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Saturday, April 27, 2024

हिंदवी स्वराज्य में भाषा का भारतीयकरण और उस से मिलने वाली सीख

“जब किसी समाज को गुलाम बनाया जाता है, तो उनकी स्वतंत्रता की कुंजी वह आम भाषा होती है, जिसमें वे अपने विचारों को साझा करते हैं”

~ फ्रांसीसी लेखक अल्फांस डुडेट

यूं तो अल्फांस ने यह बात फ्रांस में जर्मन भाषा थोपे जाने के विरोध में लिखी थी परंतु 19वी सदी के यूरोप में कही गई यह बात दुनिया भर के देशों विशेषकर उपनिवेशों के लिए बिल्कुल सटीक बैठती है।

भारतवर्ष हमेशा से ही अपनी संस्कृति,  भाषा, पहनावे, खान पान, आदि के लिए प्रसिद्ध रहा है। हमारे ग्रंथों और ऐतिहासिक पुस्तकों के अलावा कई विदेशी आगंतुक भी इसका बखान कर चुके हैं। समय-समय पर हुए कई विदेशी आक्रमण भी भारत की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर को समाप्त नहीं कर पाए। हालांकि मध्य एशिया एवं यूरोप के शासकों के चलते हमारी संस्कृति काफी दूषित अवश्य हो गई, जिसके कई उदाहरण हम आज भी अपने आसपास देख सकते हैं। जहां एक ओर बहुत सारे भारतीयों को विदेशी धर्म को अपनाना पड़ा, वहीं काफी एक बहुत बड़े वर्ग ने विदेशी भाषा एवं रहन सहन को अपना लिया।

समय-समय पर भारतीय संस्कृति के इस्लामीकरण और पश्चिमीकरण को रोकने के कई सफल एवं असफल प्रयास हुए हैं। इन्हीं में से एक है अपनी भाषा का शुद्धिकरण। अपने इस लेख में मैं छत्रपति शिवाजी महाराज के शासन में भाषा के भारतीयकरण हेतु हुए प्रयासों के बारे में बताऊंगा, जिसके लिए वाल्मीकि अध्ययन मंडल भी प्रयासरत है। आज के दौर में इसकी बात करना पहले से कहीं अधिक आवश्यक है, क्योंकि जिस प्रकार 17वी सदी में मराठी भाषा में बहुत अधिक फारसी/उर्दू शब्दों की मिलावट हो चुकी थी ठीक उसी प्रकार आज लगभग सभी भारतीय भाषाओं में अंग्रेजी के शब्द देखने को मिलते हैं।

शिवाजी महाराज ने हिंदवी स्वराज का पहली बार उल्लेख अपने मित्र दादाजी नारस प्रभु को लिखे पत्र में वर्ष 1645 में किया था। यदि हम अपनी धरती पर अपने राज की बात करते हैं तो स्वाभाविक है की शासन प्रणाली की भाषा भी अपनी ही होनी चाहिए। इसकी पहल शिवाजी महाराज के शासन में हुई। जब उनके मंत्री रामचंद्र अमात्य ने राज व्यवहार कोष नामक कोषग्रंथ लिखा जिसमें 1,000 से अधिक फारसी के प्रशासनिक शब्दों के तुल्य संस्कृत शब्द थे। यह बदलाव इतना बड़ा था की इसे आज भी अनुभव किया जा सकता है। जहां उत्तर भारत में फारसी/उर्दू का प्रभाव काफी अधिक है वहीं सभी आर्य भाषाओं में मराठी सबसे अधिक संस्कृत निष्ठ लगती है।

कृते म्लेच्छोच्छेदे भुवि निरवशेषं रविकुला-

वतंसेनात्यर्थं यवनवचनैर्लुप्तसरणीम्।

नृपव्याहारार्थं स तु विबुधभाषां वितनितुम्।

नियुक्तोऽभूद्विद्वान्नृपवर शिवच्छत्रपतिना ॥८१॥

सोऽयं शिवच्छत्रपतेरनुज्ञां मूर्धाभिषिक्तस्य निधाय मूर्ध्नि।

अमात्यवर्यो रघुनाथनामा करोति राज्यव्यवहारकोशम् ॥८२॥

अर्थ:- पृथ्वी से सभी म्लेच्छों को समाप्त करने के बाद, छत्रपति शिवाजी, जो सूर्यवंश के पुत्र थे, ने राज्य मामलों के लिए यवनोक्ति द्वारा कवर की गई भगवान की भाषा को बढ़ावा देने के इरादे से एक विद्वान को नियुक्त किया। ‘वह’ यानी मैं राजकार्य का अधिष्ठाता धारण करने वाला अमात्य रघुनाथ हूं।

शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक प्राचीन हिंदू पद्धति के अनुसार हुआ, जो कई सदियों से किसी भी शासक का नही हुआ था। यह कदम भारत पर बढ़ते विदेशी वर्चस्व को तोड़कर भारतीय संस्कृति के पुनर्जागरण जैसा था। शिवाजी महाराज के शासन काल का एक बड़ा महत्त्वपूर्ण हिस्सा है विभिन्न प्राचीन भारतीय राजनीतिक और सांस्कृतिक परंपराओं को पुनर्जीवित करना। और इसी कड़ी में उन्होंने निर्णय लिया मराठी में जो फारसी/अरबी के शब्द हैं उन्हें संस्कृत निष्ठ शब्दों से बदलने का। दरअसल 14वी सदी के आरंभ में यादव वंश को खिलजियों के हाथों पराजय का सामना करना पड़ा और महाराष्ट्र के बड़े हिस्से पर विदेशी मुस्लिम शासकों का आधिपत्य स्थापित हो गया। जिसके उपरांत भारी संख्या में फारसी या अरबी मूल के शब्दों का मराठी में उपयोग होने लगा। इसका प्रभाव गद्य से अधिक पद्य में देखा गया। प्रमुखता इसका एक बड़ा कारण था की अब पद्य देवी देवताओं की जगह मुस्लिम शासकों की प्रशंसा में लिखे जा रहे थे। यदि हम 13वीं सदी के मध्य  में लिखी गई मराठी पुस्तक लीला चरित्र की तुलना 17वी सदी में गोवा के वाइसरॉय को लिखे गए एक पत्र से करें तो हम पाते हैं की इन 4 सदियों में मराठी भाषा से संस्कृत निष्ठ शब्द विलुप्त हो चुके हैं और वो फारसी के समान दिख रही है। कई परिवार भी विदेशी मूल के शासकों से प्रभावित होकर अपने बच्चों के ‘रुस्तम राव’ और ‘सुल्तान राव’ जैसे नाम रखने लगे।

इस ऐतिहासिक भूल को सुधारने या यूं कहें की हम पर थोपी गई भाषा को बदलने का काम छत्रपति शिवाजी महाराज ने अपने दक्षिणी प्रांत तंजावुर के अधिकारी रघुनाथ नारायण को दिया। जिन्होंने पूरी निष्ठा से काम करते हुए 1678 तक इस कार्य को करके पूरा कर दिया। हालांकि कुछ लोगों का मानना है की यह कोष महाराज के राज्याभिषेक से पूर्व ही रघुनाथ हनुमंते द्वारा तैयार कर दिया गया था। इस कोष में 1,380 शब्दों की सूचि तैयार की गई जिन्हें 10 प्रकार के वर्गों में बांटा गया:-

1) राज्य वर्ग

2) कार्यस्थान वर्ग

3) भोग्यवर्ग

4) शस्त्र वर्ग

5) चतुरंग वर्ग

6) सामन्त वर्ग

7) दुर्ग वर्ग

8) लेखन वर्ग

9) जनपद वर्ग

10) पण्यवर्ग

जिन फारसी शब्दों के लिए शब्द दिए गए थे उनके कुछ उदाहरण हैं वज़ीर के स्थान पर प्रधान, गुलाम के स्थान पर दास, चाकर के स्थान पर सेवक। सेनापति, सुमंत और अमात्य जैसे शब्द भी इसी कोष की देन हैं।

इस मुहिम का प्रभाव भी काफी सकारात्मक देखने को मिला। इतिहासकार वी. के. राजवाड़े के अनुसार लिखित मराठी में मराठी मूल के शब्दों का उपयोग 1677 में 62.7% से 1728 में 93.7% हो गया। और आज के दौर में मराठी के 10 लाख से अधिक शब्दों में से मात्र 2900 के करीब ही फारसी या अरबी मूल के हैं। कुछ इस प्रकार हुआ दक्खन में मध्यकालीन युग का सबसे बड़ा भाषा का शुद्धिकरण।

तनिक सोचिए कितना खराब रहा होगा हमारे पूर्वजों के लिए उन आक्रांताओं की भाषा का राजकीय कार्यों में प्रयोग करना जो लगातार हमारे मंदिर तोड़ा करते थे और आम जनमानस की हत्याएं करते थे। आज के भारत में तो अंग्रेजी का प्रभाव उस समय के फारसी के प्रभाव से कहीं अधिक है। अंग्रेजी विज्ञान से लेकर व्यापार तक और खेल से लेकर सिनेमा तक भारतीय भाषाओं पर वर्चस्व बनाए हुए है। उच्च शिक्षा, व्यापार समझौते, वैज्ञानिक अनुसंधान और यहां तक की संभ्रांत वर्ग के लोगों के वार्तालाप की भाषा अधिकतर अंग्रेजी ही होती है। आज युवाओं की भाषा पर गौर किया जाए तो गिनती, सप्ताह के दिन, जानवरों के नाम, आदि अधिकतर अंग्रेजी में ही लिए जाते हैं। बहुत संभव है की यदि कोई सार्वजनिक जगह पर “नाइन, सिक्स, फाइव, ज़ीरो” की जगह “छयांवे पचास” बोले तो लोग उसे ऐसे देखेंगे जैसे कोई विचित्र घटना घट गई हो।

भाषा के साथ-साथ आवश्यक है कि उसकी लिपि भी भारतीय हो। वरना लोगों में धारणा बन जाती है की भाषण विदेशी है, जो हमें भारत में उर्दू को लेकर बनी आम धरना में देखने को मिलता है। नस्तालीक लिपि के कारण लोग इसे अरबी से जोड़कर देखते हैं जबकि वह भी संस्कृत के ही पावर से है। समय की आवश्यकता है उर्दू को देवनागरी या कोई अन्य भारतीय लिपि अपना लेनी चाहिए। इसके अलावा हम देखते हैं कई युवा अपनी भाषा भी रोमन में लिखना और पढ़ना आसान पाते हैं, जिसे ‘हिंग्लिश’ जैसे नाम भी दिए गए हैं। यह प्रमुखता इंटरनेट पर प्रयोग की जा रही है, पर हैरानी नहीं होगी यदि भविष्य में यह देवनागरी व अन्य लिपियों की जगह ले ले। आज भारतीय आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा अपनी मातृ भाषा बोलने में संकोच महसूस करता है। जहां एक ओर बड़े शहरों का उच्च मध्यम वर्ग अंग्रेजी में बात करता है, वहीं दूसरी ओर भोजपुरी या हरयाणवी जैसी क्षेत्रीय भाषा बोलने वाले हिंग्लिश में अधिकतर वार्तालाप करते हैं। यदि इन लोगों का अपनी मातृभाषा से भावनात्मक जुड़ाव नही होगा तो अवश्य ही 1-2 पीढ़ी में यह लोग लोग भी अंग्रेजी की ओर बढ़ जाएंगे।

आज की स्थिति देखकर लगता है भाषा को लेकर भारतीय सभ्यता मध्यकालीन युग से भी बुरी हालत में है। परंतु भारतवर्ष तो एक अमर सभ्यता है, एक ना एक दिन हम विदेशी भाषा के इस जंजाल से भी बाहर निकल जाएंगे। हालांकि हमें यह भी समझना चाहिए की अंग्रेजी एक वैश्विक भाषा है जिसे हम एकदम से छोड़ नही सकते। इसलिए उचित यही रहेगा की विविधता से भरे देश में एक संपर्क भाषा स्थापित की जाए और धीरे-धीरे भाषा का भारतीयकरण हो। शिवाजी महाराज के हिंदवी स्वराज में मराठी भाषा का संस्कृतिकरण हमारे लिए सबसे बड़ा प्रेरणा का स्रोत है।

– अश्वनी कुमार मौर्य, स्नातक छात्र, जर्मन अध्ययन केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय

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