स्वर कोकिला, लता मंगेशकर जी के निधन पर जहाँ हर संगीत प्रेमी दुखी है, हर संगीत प्रेमी को ऐसा लग रहा है जैसे उसके जीवन से ही कोई चला गया है, उसका हाथ छोडकर, हर संगीत प्रेमी स्वयं को अनाथ अनुभव कर रहा है, फिर भी एक सड़ी हुई प्रगतिशीलता है, जो लता जी जैसे विराट व्यक्तित्व पर आक्रमण करना अपनी प्रगतिशीलता मान रही है।
प्रगतिशीलता है क्या? क्या मापदंड और पैमाना है प्रगतिशीलता का? यह इन कथित प्रगतिशीलों को नहीं पता है। लता जी की कला तो छोड़िये यह उनके द्वारा किए गए प्रगतिशील क़दमों को भी नहीं समझ सकते हैं। इन्हें यह समझ ही नहीं है कि दरअसल प्रगतिशीलता होती क्या है? यह विष आज इसलिए सामने आ रहा है क्योंकि सोशल मीडिया है। यदि सोशल मीडिया नहीं होता तो प्रगतिशीलों की यह सडांध कभी भी सामने नहीं आ पाती।
सोशल मीडिया ने उस प्रगतिशील जमात का पूरा चेहरा सभी के सामने खोलकर रख दिया है, जो स्वयं को संवेदना का ठेकेदार मानकर चलती थी। साहित्य में यह प्रवृत्ति बहुत आम थी और अभी तक है। फिल्मों में भी यह प्रवृत्ति थी, परन्तु चूंकि फिल्मों का व्यापार विशुद्ध रूप से बाजार से जुड़ा है, यहाँ पर साहित्य के जैसी “बैकडोर” महानता नहीं स्थापित हो पाती है, तो लता जी को वह कथित प्रगतिशीलता अपना शिकार नहीं बना पाई, जिस कथित प्रगतिशीलता ने हिंदी साहित्य के कई लोगों को असमय लील लिया। जिस किसी ने भी सत्ता द्वारा स्थापित परिभाषा से परे जाकर कुछ कहने का प्रयास किया, उसे इन सत्ता के लालची प्रगतिशीलों ने अपना शिकार बना लिया।
दरअसल यह विकृति आज की नहीं है, यह विकृति है वर्ष 1935 में प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन अर्थात प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना दिवस से! जिसमें उन्होंने कहा कि वह तर्क को ही साहित्य मानेंगे और जो अभी तक लिखा जा रहा है, वह कहीं न कहीं अतीत की ओर लेकर जाता है और जो तार्किक नहीं है। उन्होंने कहा कि साहित्य में यथार्थ को ही लिखना है, जैसे भूख और गरीबी की समस्या लिखनी है, सामाजिक पिछड़ापन लिखना है और राजनीतिक उत्पीड़न लिखना है।”
परन्तु इस यथार्थ के पीछे के कारणों को लिखना पिछड़ापन मान लिया गया। हालांकि प्रेमचंद ने प्रगतिशील लेखक संघ के अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था कि
‘प्रगतिशील लेखक संघ’, यह नाम ही मेरे विचार से गलत है। साहित्यकार या कलाकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है। अगर यह उसका स्वभाव न होता, तो शायद वह साहित्यकार ही न होता। उसे अपने अन्दर भी एक कमी महसूस होती है और बाहर भी। इसी कमी को पूरा करने के लिए उसकी आत्मा बेचैन रहती है। अपनी कल्पना में वह व्यक्ति और समाज को सुख और स्वच्छंदता की जिस अवस्था में देखना चाहता है, वह उसे दिखाई नहीं देती। इसलिए, वर्तमान मानसिक और सामाजिक अवस्थाओं से उसका दिल कुढ़ता रहता है। वह इन अप्रिय अवस्थाओं का अन्त कर देना चाहता है, जिससे दुनिया जीने और मरने के लिए इससे अधिक अच्छा स्थान हो जाय। यही वेदना और यही भाव उसके हृदय और मस्तिष्क को सक्रिय बनाए रखता है।“

परन्तु समस्या यही हुई कि केवल हिन्दू धर्म को कोसना ही प्रगतिशीलता मान लिया गया एवं कट्टरपंथी इस्लाम की अवधारणा डालने वालों तक को मात्र इसलिए क्रांतिकारी मान लिया गया क्योंकि वह उर्दू बोलते थे और उर्दू से ही यह कथित प्रगतिशीलता आरम्भ हुई थी। जो लोग हिन्दू अस्मिता के साथ जुड़े रहे, वह इस परिभाषा के चलते स्वयं ही साहित्य और कला से खारिज किए जाने के पात्र हो गए थे।
जो लोग लता जी को स्वीकार नहीं कर रहे हैं, उसकी नींव आज की नहीं है। उसकी नींव तो सज्जाद जहीर ने उसी दिन डाल दी थी, जब उन्होंने कन्हैया लाल मुंशी की सोमनाथ की पीड़ा को जहरीला प्रभाव बता दिया था। वह लोग साहित्य को कौन सी दिशा देना चाहते थे, उसका उदाहरण देखिये:
“”हमें यह स्पष्ट हो गया कि कन्हैयालाल मुंशी का और हमारा दृष्टिकोण मूलतः भिन्न था। हम प्राचीन दौर के अंधविश्वासों और धार्मिक साम्प्रदायिकता के ज़हरीले प्रभाव को समाप्त करना चाहते थे। इसलिए, कि वे साम्राज्यवाद और जागीरदारी की सैद्धांतिक बुनियादें हैं। हम अपने अतीत की गौरवपूर्ण संस्कृति से उसका मानव प्रेम, उसकी यथार्थ प्रियता और उसका सौन्दर्य तत्व लेने के पक्ष में थे। जबकि कन्हैयालाल मुंशी सोमनाथ के खंडहरों को दुबारा खड़ा करने की कोशिश में थे।”
कन्हैया लाल मुंशी अपनी हिन्दू पीड़ा को जीवित रखे थे, तो क्या वह प्रगतिशील नहीं थे, क्या वह जहरीला प्रभाव घोल रहे थे? नहीं! वह मात्र अपने हिन्दू बोध को जीवित रखे थे, वही हिन्दू बोध जिसे लता मंगेशकर जी जीवित रखे हुए थीं। उनकी प्रगतिशीलता में हिन्दू धर्म को कोसना, फक हिन्दुइज्म नहीं था, उनकी प्रगतिशीलता में उस लोक को गाली देना नहीं था जिस लोक ने उन्हें प्रेम दिया, आदर दिया।
प्रगतिशीलता क्या है?
यह बहुत ही दुर्भाग्य की बात रही कि देश को तोड़ने वाले अल्लामा इकबाल तक प्रगतिशील का खिताब पा गए, जिन्हें पाकिस्तान अपना जनक बताता है, यहाँ तक कि हिन्दू शाकाहारी सहेली को छिप कर, झूठ बोलकर मांसाहार खिलाने वाली इस्मत चुगताई भी तरक्की पसंद हो गईं, परन्तु प्रगतिशीलता की जो कथित परिभाषा गढ़ी गयी उसमें लता जी जैसी महिला को पिछड़ा या न जाने क्या क्या कह दिया गया।

हिन्दू अस्मिता या हिन्दू होने का बोध होना ही इस थोपी गयी प्रगतिशीलता का द्योतक हो गया और जब इसने राजनीतिक पाँव पकड़ लिए तो यह इतना घातक हो गया कि मूल औपचारिकता भी समाप्त हो गयी। यदि लोगों को यह लगता है कि लता जी के निधन पर भी यह घृणा बाहर निकली है, तो वह बहुत गलत हैं। यह घृणा वर्ष 1935 के बाद से हर उस व्यक्ति के लिए उपजी है, जिसने भारत के लोक, या हिन्दू लोक के लिए कार्य किया, या आवाज उठाई।
जवाहर लाल नेहरू इन कथित प्रगतिशीलों को इसीलिए पसंद हैं क्योंकि उन्होंने इस एजेंडा साहित्य का समर्थन किया था। विवशता में इस प्रगतिशील संघ ने प्रेमचंद का नाम तो रखा, परन्तु उन्होंने प्रेमचंद की कहानी जिहाद को परिदृश्य से लगभग गायब कर दिया और हामिद का चीमटा ही प्रेमचंद की पहचान हो गया। वर्ष 1935 में एजेंडा साहित्य की नींव डाली गयी, और जिसके कारण साहित्य से निर्मल वर्मा जैसे महान लेखकों को भी खारिज करने की एक परम्परा चल पड़ी, जिन्होनें स्पष्ट रूप से धर्म और धर्मनिरपेक्षता पर अपने विचार रखते हुए मसीहा की अवधारणा वाले धर्मों की तुलना में हिन्दू धर्म की महान अवधारणा को कही अधिक बेहतर बताया।
परन्तु विरोध करने वाले भूल गए कि वह न ही निर्मल वर्मा जैसी भाषा को छू सकते हैं और न ही लता जी जैसी वाणी को।
प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा स्थापित की गयी वामपंथी प्रगतिशीलता की सडांध अब अपने अंतिम चरण में है, क्योंकि यह सड़ांध अब उन तक आ रही है, जो इतने वर्षों तक इसे पोषित करते रहे थे। यह सड़ांध अब उन्हें ही निशाना बना रही है, क्योंकि उनके द्वारा लगाई गयी आग अब उन तक पहुँच रही है। निर्मल वर्मा, जयशंकर प्रसाद, सुभद्रा कुमारी चौहान आदि को खारिज करते करते जब वह नरेंद्र कोहली को खारिज करते हुए आए और उन्हें अपशब्द कहते हुए आए तो कहीं न कहीं उन्हें यह लग रहा था कि वह बचे रहेंगे क्योंकि साहित्यिक व्यक्तियों को पाठक जानते हैं, और वह इतने मुखर नहीं हैं।
फिर उन्होंने राजनेताओं के साथ किया। जो विचारधारा इकोसिस्टम की नहीं थी, उसके मरने पर जश्न मनाना आरम्भ किया, जैसे जॉर्ज फर्नांडीज, अटल बिहारी वाजपेयी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, मनोहर पर्रीकर! स्मृति ईरानी की सामान्य पृष्ठभूमि पर इस वर्ग की अश्लील टिप्पणियों की मैं बात भी नहीं कर सकती हूँ। परन्तु इसे राजनीतिक विरोध मान लिया गया, परन्तु साहित्य में ही हंस एवं कथादेश जैसी “जनवादी” पत्रिकाओं के साथ जुड़ी एवं प्रख्यात आलोचक डॉ अर्चना वर्मा को भी उनके अंतिम समय में ही भक्त आदि जैसी उपाधियों से नहीं नवाजा गया, बल्कि उनके असामयिक निधन के उपरान्त भी उनके कथित दक्षिणपंथी झुकाव को लेकर न जाने क्या क्या कहा गया, जबकि उन्होंने सदा मात्र तथ्यों को प्रस्तुत किया था।
रोहित सरदाना की मृत्यु पर तो उनकी पुत्रियों तक को नहीं छोड़ा था, परन्तु लता जी जैसे व्यक्तित्व पर जब उन्होंने थूका, तो वह थूक उन्हीं पर आकर गिरा है। वह आत्ममंथन नहीं कर रहे हैं, क्योंकि यह विष उन्होंने ही घोला है। वह अपना चेहरा छिपाने की फिराक में है क्योंकि लता जी का व्यक्तित्व इतना महान है कि समूचे विश्व से शोक सन्देश आ रहे हैं।
यह प्रगतिशील सड़ांध अब कथित प्रगतिशीलों की बैठकों में पहुँच चुकी है और दुर्भाग्य है कि यह उन्हें ही और प्रताड़ित करेगी क्योंकि देश का जनमानस इस सड़ांध को कभी अपना नहीं सकता है!