स्त्रियों के विषय में यह हमारी निरंतर चल रही श्रृंखला है। हम यही चाहेंगे कि भारतीय स्त्रियों की यह श्रृंखला इसी प्रकार निरंतर चले। आज एक और ऋषिका के विषय में आइये पढ़ते हैं, और फिर समझने का प्रयास करते हैं कि क्या वास्तव में स्त्रियों को हमारे भारत में पिछड़ा रखा जाता था, या यह षड्यंत्र के अंतर्गत किया गया:
अद्भुत ऋषिका वागाम्भृणी
उन्होंने कहा मैं शक्ति हूँ! और कहा कि मैं परमात्मा के साथ एकाकार हूँ। इस जगत में आत्मा और परमात्मा एक ही है!” आत्मा और परमात्मा को एक कहने वाला सिद्धांत ऋग्वेद के दशम मंडल के 125वें सूक्त में प्राप्त होता है। जिसे हम अद्वैत सिद्धांत की प्रेरणा कह सकते हैं। वाग देवी के नाम से लिखे गए यह सूक्त जीवन के उस सिद्धांत की तरफ संकेत करते हैं, जो आगे जाकर पूरे विश्व में भारत की आध्यात्मिक पहचान बना।
अमम्भृणी महर्षि की पुत्री वागाम्भृणी, जिन्होनें उन मन्त्रों की रचना की, जो आत्मा और परमात्मा के मध्य सम्बन्धों को बताते हैं। वह स्त्री हैं, परन्तु उन्हें यह पूरी तरह से ज्ञात है कि आत्मा के स्तर पर स्त्री क्या और पुरुष क्या। तभी वह स्वयं के विषय में कहती हैं कि वह परमेश्वर की प्रतिनिधि पारमेश्वरी है, जो ज्ञान शक्ति, पृथ्वी, आदि आठ वस्तुओं, प्राणस्वरूप ग्यारह रूद्रों, बारह मासों, अग्नि विद्युत्, दिन रात और पृथ्वी को धारण करती है।
अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत विश्वदेवैः ।
अहं मित्रावरुणोभा बिभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्विनोभा ॥1
इसका अनुवाद अंग्रेजी में इस प्रकार किया गया है
I TRAVEL with the Rudras and the Vasus, with the Adityas and All-Gods I wander।
I hold aloft both Varuna and Mitra, Indra and Agni, and the Pair of Asvins। (Ralph T।H। Griffith)
वागाम्भृणी, जो यह स्पष्ट कहती हैं कि वह ज्ञानशक्ति सूर्य, वायु और यज्ञ को धारण करती हैं और वह उस यजमान आत्मा के लिए संपत्ति को धारण करती हैं जो यज्ञ करने वाले विद्वानों के लिए सोम्राश निकालता है।
अहं सोममाहनसं बिभर्म्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम् ।
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते ॥2
I cherish and sustain high-swelling Soma, and Tvastar I support, Pusan, and Bhaga।
I load with wealth the zealous sacrificer who pours the juice and offers his oblation
विनोबा अपनी पुस्तक वेदामृत में वागाम्भृणी को सबसे महान ऋषिकाओं में से एक बताते हैं। वह कहते हैं कि वागाम्भृणी एक बृह्मचारिणी थी। अर्थात उन्होंने ज्ञान के कारण विवाह नहीं किया था। वह इस तथ्य से अत्यंत प्रभावित हैं कि वागाम्भृणी ने स्वयं को उस सीमा तक भगवान के साथ जोड़ लिया था कि वह परमात्मा की महिमा गाते गाते गाने लगी थीं, “भगवान की रचना मेरी ही रचना है,” उन्होंने स्वयं को राष्ट्र का देवता मान लिया था।
उनके रचे सूक्तों को देखा जाए तो यह पता चलेगा कि उन्होंने ज्ञान प्राप्त स्त्री को इतना ज्ञानी एवं शक्तिशाली बताया है जो न केवल जलवायु को नियंत्रित कर सकती है, अर्थात वर्षा, ग्रीष्म आदि के चक्र को नियंत्रित करती है, अपितु वह अपनी संगत में आए हुए मनुष्यों को तेजस्वी बनाती है, वह उन्हें ब्रह्म बना सकती है, वह उन्हें ऋषि बना सकती है।
अपने सूक्तों के माध्यम से वागाम्भृणी ने ज्ञान की महत्ता को स्थापित किया है। वह आत्मा को परमात्मा कहते हुए कहती हैं कि मैं ही सर्वव्याप्त हूँ! यह परमात्मा है जो सर्वव्याप्त हैं। वह यही कहती हैं कि इस जगत में ब्रह्म को छोड़कर सब मिथ्या है। वागाम्भृणी द्वारा रचे गए सूक्तों को देवी सूक्त कहा जाता है। वागाम्भृणी को ज्ञान प्राप्त हुआ था, एवं इसी ज्ञान को उन्होंने कह दिया। वागाम्भृणी के सामने भी कई बाधाएं आई होंगी, कई बार उनके सामने भी सांसारिक मोह का जाल आया होगा, पर उस समय उन्होंने ज्ञान प्रचार हेतु जीवन समर्पित किया। उन्होंने अविवाहित रहना स्वेच्छा से स्वीकार किया। किसी और ने उससे शक्ति नहीं कहा, किसी और ने चाटुकारिता करते हुए नहीं कहा कि वह इतनी महान है! वर्षों के अध्ययन एवं तपस्या के साथ ही उन्होंने यह ज्ञान प्राप्त किया होगा। वह ज्ञान जो सभी के लिए है। अंतिम सूक्त में वह कहती हैं कि मैं ही वायु वेग के समान वेग से गति करती हूँ, मैं अपने ही महत्व से इस पृथ्वी लोक से परे हूँ।
अहमेव वात इव प्र वाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वा ।
परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिना सं बभूव ॥
इसे अंग्रेजी में इस प्रकार कहा गया है:
I breathe a strong breath like the wind and tempest, the while I hold together all existence।
Beyond this wide earth and beyond the heavens I have become so mighty in my grandeur। (Ralph T.H. Griffith)
जिस प्रकार वह आत्मा की सर्वव्याप्त बताती हैं वह स्वयं में अद्भुत है। सातवें सूक्त में वह कहती हैं कि आत्मा ही वह शक्ति है जो हर कण में व्याप्त है और जो इस आकाश में व्याप्त है।
अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे ।
ततो वि तिष्ठे भुवनानु विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृशामि ॥
यह कहना कि अद्वैतवाद के सिद्धांत की प्रेरणा इसी देवी सूक्त से प्राप्त हुई हो, अतिश्योक्ति नहीं है।
यह स्त्रियाँ गुम नहीं हुई हैं, हमारी चेतना में उपस्थित हैं।
*चित्र प्रतीकात्मक है!