खुद को कथित रूप से फेमिनिस्ट कहने वाली भारतीय वाम औरतें कट्टर इस्लाम की समर्थक किस प्रकार होती हैं, वह उनकी रचनाएं पढ़कर पता चलता है कि कैसे वह लड़कियों को इस्लाम के कट्टरपंथ के जबड़ों में फेंक देती हैं। पिछले वर्ष तनिष्क का विज्ञापन और उस पर फेमिनिस्ट का प्रेम हम सभी को ज्ञात होगा। जबकि यही औरतें उन लड़कियों के बारे में कुछ नहीं लिखती हैं जो बेचारी उन लड़कों का शिकार बन जाती हैं, जो उनसे अपना मजहब छिपाकर शादी करते हैं और फिर मार डालते हैं।
अब आते हैं कि कुछ शब्दों पर कि कैसे यह लोग खेल खेलती हैं। कुछ गिने चुने शब्द हैं, ज़ुल्म, जुल्मी, औरत, बुत, ईमान, सनम आदि। और अधिकतर उर्दू शायरी को ही उद्घृत करती हैं, बिना इन शब्दों के प्रचलित मतलब जानते हुए। और जितने भी उर्दू शायर हुए हैं, उनमें से किसी ने ही शायद अपने मजहब में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ आवाज़ उठाई हो, उन्होंने आवाज़ उठाई, किसी ज़ुल्म के खिलाफ, किसी अज्ञात जालिम के खिलाफ, बुत के खिलाफ, मगर उन्होंने उस बाबर के लिए तो कुछ नहीं कहा जिसने उसके ही पठानों के सिरों की मीनार बनाई थी।
वह तो इतिहास था, हाल ही में उनका प्रिय दानिश सिद्दीकी मारा गया है, मगर अभी तक तालिबान को जुल्मी नहीं कहा है। उन्होंने यह तक नहीं कहा है कि किसी जुल्मी ने दानिश को मार दिया! वह नहीं बोल सकतीं! क्योंकि कुरआन के अनुसार तालिबान जुल्मी है ही नहीं! ज़ुल्म का अर्थ होता क्या है और जुल्मी कौन होता है? कुरआन के अनुसार जुल्मी का अर्थ है काफिर, खुदा के ईमान में न आने वाला और अल्लाह के खिलाफ कार्य करने वाला। वह जो बुतपरस्त है, वही जुल्मी है। और ऐसा कुरआन में लिखा है। कई स्थानों पर जुल्मी की परिभाषा दी गयी है!
जबकि तालिबान ऐसा नहीं है। इसलिए तालिबान जुल्मी नहीं है, तालिबान तो काफिरों को मारता है और क्या यही कारण है कि दानिश सिद्दीकी की हत्या को उनके मजहब वालों ने केवल मौत कहा, जैसे वह अपने आप मारा गया और जो फेमिनिस्ट हर दूसरी बात पर मोदी और योगी को जुल्मी कहती थीं, वह भी यह न कह सकीं कि जुल्मी तालिबान ने हत्या कर दी, जबकि इसके बजाय “जुल्मी” हिन्दुओं को कोसा गया कि वह दानिश की हत्या पर हंस रहे हैं। जबकि कोई हिन्दू हंसा नहीं था, बल्कि कर्म के परिणाम की बात की थी।
वामी फेमिनिस्ट की असलियत आपको पिछले साल की एक घटना से समझ में आएगी! एक वर्ष पहले द वायर, बीबीसी, जनज्वार जैसे पोर्टल के लिए एकतरफा वामी-इस्लामी पत्रकारिता कर चुकी वाराणसी की स्वतंत्र पत्रकार रिजवाना ने आत्महत्या कर ली थी। जबकि वह अपनी मौत के लिए स्थानीय सपा नेता शमीम को जिम्मेदार ठहराकर फांसी पर लटकी थी, फिर भी कुछ प्रगतिशीलों ने उसकी आत्महत्या के लिए प्रशासन को दोषी ठहराना शुरू किया कि वह ऐसी पत्रकारिता कर रही थी, इसलिए उत्तर प्रदेश के भगवा प्रशासन ने उसकी जान ले ली।
क्योंकि इन वामी फेमिनिस्ट के अनुसार शमीम तो जालिम या जुल्मी हो नहीं सकता, क्योंकि उसने ऐसा कुछ भी नहीं किया है जिसे जुल्म ठहराया जा सके, तो उन्होंने इस विषय में चुप्पी साध ली। 25 साल की रिजवाना इनका एजेंडा ढोते ढोते मर गयी, मगर पूरा वामी-इस्लामी फेमिनिस्ट सर्कल शांत रहा, एक भी फेमिनिस्ट की आवाज़ आपको सुनाई नहीं दी होगी।

इतना ही नहीं आपको यह भी नहीं पता होगा कि रिजवाना नामक कोई क्रान्तिकारी पत्रकार भी रही होगी। हाँ, यदि उसके मरने में जरा सा भी किसी काफिर, या बुतपरस्त का नाम होता तो वह शहीद करार दी जाती और फिर जुल्म और जुल्मी शब्द प्रयोग होते!
वामी और इस्लामी गठजोड़ का जीता जागता उदाहरण रिजवाना की आत्महत्या है और कोई नहीं! वह इसलिए बताया क्योंकि यह एक ही वर्ष पहले का है, तो समझ में आ सकता है। क्या रिजवाना या दानिश के हत्यारों के खिलाफ कोई कदम उठाने की बात की? क्या शमीम या तालिबान को फांसी या सजा देने की मांग वाम फेमिनिस्ट ने की?
उनके लिए ज़ालिम या जुल्मी, वह नहीं है जिसने हिन्दुओं के मंदिर तोड़े या हिन्दुओं का क़त्ल किया। वह उनके लिए उद्धारक है क्योंकि उसने बुतों को तोड़ा।
और जो उनके लिए बुत हैं, अर्थात निर्जीव अर्थात शैतान के प्रतीक, जो हमारी फेमिनिस्ट भी कहती हैं कि “हम बुतपरस्ती नहीं करते!” परन्तु क्या इन फेमिनिस्ट के अनुसार बुतपरस्ती का अर्थ मूर्तिपूजा है? बुत शैतान का होता है और मूर्ति भगवान की। जैसे मशहूर शायर दाग दहेलवी लिखते हैं:
वो दिन गए कि ‘दाग़‘ थी हर दम बुतों की याद
पढ़ते हैं पाँच वक़्त की अब तो नमाज़ हम
यह पूरी तरह से धर्मांतरण की ही तो बात है! बुत का जो अवधारणात्मक अर्थ है, वह कहीं से भी हिन्दू दर्शन की प्रतिमाओं का तो नहीं हो सकता है। प्रतिमा, मूर्ति जिसमें प्राणप्रतिष्ठा के उपरान्त अपने प्रभु का दर्शन करता है हिन्दू, क्या वह उसके लिए शैतान हो सकती है? नहीं!
ऐसे ही एक प्रियंवदा लिखती हैं:
ज़रा सी बात नहीं है किसी का हो जाना
कि उम्र लगती है बुत को ख़ुदा बनाने में
और फिर एक ज़ेबा हैं वह लिखती हैं:
ख़ुदा की भी नहीं सुनते हैं ये बुत
भला मैं क्या हूँ मेरी इल्तिजा क्या
(सभी शायरी रेख्ता से ली गयी हैं!)
तो समझना होगा कि जो बुत को निर्जीव मानती हैं, वह कभी प्रतिमाओं का अर्थ समझ पाएंगी?
ऐसे ही जब फैज़ की वह नज़्म यह फेमिनिस्ट गाती हैं कि
“सब बुत गिराए जाएंगे,
बस नाम रहेगा अल्लाह का!”
आखिर बुत क्यों गिराने हैं? और इतने वर्षों से बुत गिराकर आपको चैन नहीं आया! तो जब दिमाग से यह ऐसी हो गयी हैं कि बुत गिराने को क्रान्ति समझती हैं, तो क्या यह लोग कभी सीता-राम, या राधे कृष्ण की मूर्ति का महत्व समझ पाएंगी? जो औरतें, स्त्री होने का अर्थ नहीं समझ पाती हैं, वह लोग आज फेमिनिस्ट बनी घूमती हैं और हमारी आने वाली पीढ़ियों को हर चीज़ का उलटा अर्थ बताती हैं।
साहिर लुधियानवी का यह शेर, देखिये और फिर जानियेगा कि कैसे वामी फेमिनिस्ट और चुनिन्दा उर्दू शायरी हमारी लड़कियों को लोक के खिलाफ और धर्म के खिलाफ खड़ा कर रही है:
हम अम्न चाहते हैं मगर ज़ुल्म के ख़िलाफ़
गर जंग लाज़मी है तो फिर जंग ही सही
इसमें जो जुल्म है वह जुल्म देखना चाहिए कि यह जुल्म कौन कर रहा है? एक और इतिहास रहा है मुस्लिम क्रांतिकारी शायरों का कि इन्होनें अपने मज़हब की कट्टरता के खिलाफ आवाज़ नहीं उठाई है! और यदि इक्का दुक्का उठाई भी हों तो उन्हें अब याद नहीं करता कोई। जब वह लोग ज़ुल्म के खिलाफ खड़े होने की बात करते है, तो वह यह नहीं कहते कि जुल्मी कौन है? क्या दानिश सिद्दीकी को मारने वालों को जुल्मी कहा? नहीं! क्या अफगानिस्तान में औरतों को परदे में बंद करने वालों को जुल्मी कहा? नहीं! क्या ईरान में हिजाब न पहनने वाली औरतों को जेल में डालने वालों को जुल्मी कहा? नहीं! क्या आईएसआईएस ने यजीदियों और ईसाइयों की हत्या की, तो उन्हें जुल्मी कहा? नहीं! यहाँ तक कि भारत में भी जो लोग एक बार में तीन तलाक देकर अपनी बीवियों को छोड़ देते हैं, क्या उन्हें जुल्मी कहा?
तो फिर जुल्मी कौन है? वाम फेमिनिज्म के हिसाब से जुल्मी वह है जो बुत बनाता है, जुल्मी वह है जो उनकी स्त्रियों के माथे से हिजाब उतारने की कोशिश करता है, जुल्मी वह नहीं है जो औरतों को काले बुर्के में दबाकर रखता है और उन्हें पूरी ज़िन्दगी तीन तलाक के साए में घिरे रहने के लिए विवश करता है। वह बहुत ही नफासत से हमारी लड़कियों को हमारे खिलाफ खड़ा कर देती हैं। हमें उनके अनुसार जुल्मी और ज़ुल्म की अवधारणा समझनी होगी।
फेमिनिस्ट अपनी आज़ादी की अवधारणा से, जिसमें हिन्दू लड़कियों को उनके कपड़ों से आज़ादी की बात करती है, परन्तु उन सभी फतवों के बारे में बात नहीं करती हैं, जो कंडीशंड औरतों को परदे में ही नहीं बल्कि अँधेरे में रहने के लिए विवश कर देता है.
वामी और कट्टर इस्लामी फेमिनिस्ट का इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा कि वह उन अफगान औरतों के पक्ष में नहीं लिख रही हैं, जिन्होनें तालिबान के खिलाफ बंदूकें उठा ली हैं और जो अपनी आज़ादी के लिए जान तक कुर्बान करने के लिए तैयार हो गयी हैं, बल्कि वह उस तालिबान के पक्ष में जाकर खड़ी हो गयी हैं, जो केवल और केवल शरिया का शासन लाना चाहते हैं और औरतों को परदे में बंद करने के साथ ही उनकी ज़िन्दगी जहन्नुम बनाना चाहते हैं.
वाम फेमिनिज्म ने अपना पक्ष हमेशा से इस्लाम की कट्टरता को चुना था, हाँ अब तक वह परदे में था, अब जैसे तालिबान सामने आया है, वैसे ही उनका असली रूप सामने आ चुका है!
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