कई पुस्तकों में एवं कई स्थानों पर मिशनरी सीएफ एंड्रूज़ को भारत प्रेमी या फिर हिन्दुओं का मित्र बताया जाता है। यह एक ऐसा मिथक है जिसे जबरन जैसे हिन्दुओं के मस्तिष्क में बैठाया गया है। क्योंकि सत्यता कहीं न कहीं बहुत अलग है। यह ऐसा ही है जैसे अपने कातिलों की प्रशंसा करना। कातिल का अर्थ यह हुआ कि जो उसके संहार के लिए तत्पर है और वह आपको विमर्श से ही मिटा देना चाहता है और उसके लिए वह आपकी बुद्धि को ही ईसाई बनाना चाहता है।
अर्थात वह पहले आपकी वैचारिक मृत्यु चाहता है और फिर आपकी धार्मिक मृत्यु, ऐसे व्यक्ति को कई कथित राष्ट्रवादी पुस्तकों में भी भारत का प्रेमी बताया गया है। परन्तु वह अपने लक्ष्य अर्थात ईसाइयत को लेकर कितने कृत संकल्पित थे, वह उनके द्वारा लिखी गयी पुस्तक THE RENAISSANCE IN INDIA ITS MISSIONARY ASPECT में स्पष्ट लिखा है कि कैसे मिशनरी ने बौद्धिक प्रपंच रचे थे।
कैसे उनका एकमात्र लक्ष्य था कि वह भारत के जनमानस से हिन्दू का इतिहास मिटाकर उन्हें ईसाईयत में रची पगी अंग्रेजी भाषा का दर्शन, भूगोल, विज्ञान आदि पढाएं। क्योंकि उनके अनुसार अंग्रेजी शिक्षा सेक्युलर ही नहीं बल्कि ईसाईयत को धारण किए हुए है।
ऐसे में जब वह हिन्दू महिलाओं के विषय में लिखते हैं तो वह यह विश्वास जताते हैं कि अभी बेशक हिन्दू महिलाऐं रामायण में बसे हुए स्त्रीत्व की बात करें, परन्तु एक दिन आएगा जब ईसाईयत का विश्वास जीतेगा। उन्होंने रामायण अर्थात राम कथा पर लिखते हुए कहा था कि भारत के गावों में रात को जब लोग काम निपटा लेते हैं तो वह रामायण के उन हिस्सों का पाठ मिलकर करते हैं, जो उन्हें सबसे अधिक पसंद है और जो व्यक्ति गाने में और व्याख्या कर सकता है तो उसका सम्मान होता है। वह लिखते हैं कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस पुस्तक ने भारतीय स्त्रीत्व के मानक निर्धारित कर दिए हैं।
यह एंड्रूज़ अपनी पुस्तक में कहते हैं। परन्तु क्या अभी भी हम हिन्दू महिलाओं को लेकर यह कह सकते हैं? क्या अब स्त्रियाँ प्रभु श्री राम एवं माता सीता को उसी सम्मान से देखती हैं या फिर छद्म स्त्री विमर्श में बंधकर सीता माता को प्रभु श्री राम की प्रतिस्पर्धी बना रही हैं? यह प्रश्न इसलिए उठ खड़ा हुआ है कि आज ऐसे विमर्श उत्पन्न हो रहे हैं जिनमें कभी सीता माता, कभी उर्मिला तो कभी श्रुतकीर्ति के त्याग को पलड़े में रखकर मापा जा रहा है कि यह महान, वह महान!
जो विमर्श पूरी तरह से धार्मिक और शंका रहित होना चाहिए था, उसमें यह एजेंडा वाले प्रश्न किसने भर दिए? उसके बाद वह तोरू दत्ता की कविता, जो पूरी तरह से हिन्दू विश्वासों पर आधारित कविता है, परन्तु चूंकि तोरू दत्ता के पिता ने ईसाई रिलिजन अपना लिया था तो सीएफ एंड्रूज़ का विश्वास है कि जिन चरित्रों को तोरू दत्ता ने रचा है, उनसे ईसाई विश्वास अवश्य ही जीतेगा।
इसके बाद वह क्या लिखते हैं, उसे सही से समझना होगा क्योंकि तभी पाठक यह समझ पाएँगे कि आखिर साहित्य में हिन्दू विरोध का विमर्श क्यों है? वह लिखते हैं कि
“मेरा विश्वास दिनों दिन बढ़ रहा है कि भारतीय स्थितियों में यदि ईसाई सन्देश को स्वाभाविक बनाना है तो यह कला, संगीत और कविता के माध्यम से ही होगा बजाय इसके कि हम विवाद करें और तर्क वितर्क करें। इंग्लैण्ड से भारत के लिए एक ऐसी मिशनरी जरूरी है जिसमें कल्पना रचने की क्षमता हो और जिसमें साहित्यिक या कलात्मक या संगीत की क्षमता हो और वह उच्च क्षमता प्राप्त लोगों के दिल में संवेदनात्मक रूप से प्रवेश कर सके।”
फिर क्या लिखते हैं उसे पढ़ें और साहित्य में जो अभी लिखा जा रहा है, उसे समझें!
“हम अपने दृष्टिकोण में बहुत ही संकुचित रहे हैं और हमें लगा कि हम भारत को अपने व्यावहारिक दृष्टिकोण एवं उच्च व्यवस्थित संस्थानों से जीत सकते हैं। परन्तु जहाँ इन दोनों ही पहलुओं ने बढ़िया काम किया है तो वहीं यह भी सत्य है कि इन्होनें आत्मा नहीं छुई है। जबकि दूसरी ओर जहाँ पूर्व के नाटकों एवं आदर्शों में कल्पनाओं का मिश्रण श्लाघनीय हैं तो वहीं इनके माध्यम से भारत के साथ जुड़ाव हुआ है!”
यहाँ एक बात यह समझने की है कि वह भारत के जुड़ाव की बात करते हैं, परन्तु वह जुड़ाव केवल इसलिए है जिससे हिन्दू विमर्श समाप्त होकर केवल और केवल ईसाई विमर्श ही स्थान बना ले। वह एक और हिन्दू से ईसाई में मतांतरित हुई कृपाबाई का उदाहरण देते हैं। कृपाबाई ने भी ईसाई धर्म की होते हुए भी हिन्दू परम्पराओं के विषय में लिखा। हालांकि कृपाबाई का जीवन भी अधिक नहीं रहा और वह 1894 में मर गयी थी। वह अपने नवजात शिशु की मृत्यु का सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाई थी।
कृपाबाई को आधार बनाकर सीएफ एंड्रूज़ लिखते हैं कि
“वह उस प्रकार की एजुकेटेड वुमन (शिक्षित नहीं लिख रही हूँ जानते बूझते) है, जिन्हें भारत अब पैदा कर रहा है, वह कल्चर्ड हैं, परिष्कृत हैं, कल्पनाशील हैं, एवं भारत के नवजागरण की ईसाई उत्पाद हैं!”
आज जब हम हिन्दी या भारतीय साहित्य की तमाम कथित प्रगतिशील धाराओं में लिख रही वीमेन (क्योंकि वह स्त्री नहीं हैं) को देखते हैं तो यही पाते हैं कि कहीं न कहीं वह उसी परिभाषा के दायरे में लिख रही हैं जो सीएफ एंड्रूज़ ने दी थी।
“भारतीय नवजागरण की ईसाई उत्पाद!”
सीएफ एंड्रूज़ की परिभाषा वाली वीमेन ही आज विमर्श में हैं, हिन्दू विमर्श को धारण करने वाली स्त्रियाँ कहाँ है? या फिर हिन्दू स्त्री विमर्श है भी, यह भी प्रश्न उठता ही है!