आज 29 जनवरी है। आज से सैकड़ों वर्ष पूर्व, बाबर ने आज ही के दिन चंदेरी के दुर्ग पर मरे हुए राजपूतों के सिरों की मीनार बनाकर अपनी जीत का जश्न मनाया था। आज भी बाबर के शुभचिंतक या फिर बाबर को महान शासक बताने वाले कई सेक्युलर और कट्टर इस्लामिस्ट सामने आ जाते हैं, परन्तु वह उन सभी हत्याओं को विस्मृत कर देते हैं, जो मजहब के नाम पर इन मुगलों द्वारा की गयी हैं।
हाल ही में कांग्रेस के नेता मणिशंकर अय्यर ने कहा था कि बाबर यहाँ पर आया और केवल चार वर्ष रहा, परन्तु उसे भारत पसंद नहीं आया क्योंकि यहाँ पर तरबूज नहीं था आदि आदि और फिर फिर भी उसने यही सोचा कि अब वह यहाँ से नहीं जाएगा। यह बेहद बेवकूफी वाली बात है। बाबरनामा पढने पर कई बातें ज्ञात होती है। राणा सांगा के साथ युद्ध के समय बाबर ने हिन्दुओं के सिरों की मीनारें बनाई थीं, यह तो सत्य है परन्तु राणा सांगा के साथ हुए युद्ध से पहले भी वह कई कत्लेआम कर चुका था।
ऐसा नहीं है कि केवल हिन्दुओं का। बल्कि वह तो पठानों का भी कत्ल करके आया था। बाबरनामा में वह लिखता है कि
“अफगानों के खिलाफ हमने युद्ध किया और उन्हें हर ओर से घेर कर मारा। जब चारों ओर से हमला किया तो वह अफगान लड़ भी नहीं सके; सौ-दो सौ को पकड़ा गया। कुछ ही जिंदा आए, अधिकांश का केवल सिर आया। हमें बताया गया कि जब पठान लड़ने से थक जाते हैं, तो मुंह में घास लेकर अपने दुश्मन के पास जाते हैं कि हम तुम्हारी गायें हैं। यह रस्म वहीं देखी गयी है!” यहाँ भी हमने यह प्रथा देखी, हमने देखा कि अफगान अब आगे नहीं लड़ सकते हैं तो वह मुहं में तिनका रखकर आए। मगर जिन्हें हमारे आदमियों ने बंदी बनाया था, हमने उन सभी का सिर काटने का हुकुम दिया और उनके सिरों की मीनारें हमारे शिविरों में बनी गयी!”
*इसके अंग्रेजी अनुवाद में यह भी लिखा है कि एक कट्टर हिन्दू से तो गाय बन कर याचना करने से बच सकते थे, पर बाबर से नहीं!

उसके बाद बाबर लिखता है कि अगले दिन वह हंगू की ओर गया, जहाँ स्थानीय अफगान पहाड़ी पर एक संगुर बना रहे थे। उसने पहली बार इसका नाम सुना था। हमारे आदमी वहां गए, उसे तोड़ा और एक या दो सौ अफगानियों के सिरों को काट लिया और फिर मीनारें बनाई गईं!”
वर्ष 1527 में राणा सांगा के साथ युद्ध के बाद हिन्दुओं के कत्लेआम के बाद उसने गाजी की उपाधि धारण की थी। (गाजी माने इस्लाम के लिए काफिरों का कत्ले आम करने वाला) बाबरनामा में लिखा है कि
“हिन्दू अपना काम बनाना मुश्किल देखकर भाग निकले, बहुत से मारे जाकर चीलों और कौव्वों का शिकार हुए, उनकी लाशों के टीले और सिरों के मीनार बनाए गए। बहुत से सरकशों की ज़िन्दगी खत्म हो गयी जो अपनी अपनी कौम से सरदार थे। ”
इस युद्ध के बाद भी उसने हिन्दुओं के कटे सिरों की दीवार बनाई थी! फिर उसने चंदेरी आदि का रुख किया!
चंदेरी उन दिनों मेदिनीराय नामक राजपूत के अधीन था। वर्ष 1528 में जब चंदेरी के दुर्ग पर बाबर ने आक्रमण किया तो 28 जनवरी 1528 की रात को उसने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि वह आज दुर्ग पर हमला करेंगे और उसमें प्रवेश करेंगे। उसने अपने सैनिकों से कहा कि वह अपने अपने मोर्चे पर जाएँ, लड़ने के लिए उकसाएं और जब मैं नगाड़े बजाऊँ (drum) तो वह सभी अपने अपने स्थानों से दुर्ग पर हमला करेंगे।
बाबरनामा में लिखा है कि चंदेरी का दुर्ग एक पहाड़ी पर था। पहाड़ी से एक तरफ पानी के लिए दोहरी दीवार पहाड़ से थोड़ी नीचे थी और अब यहीं पर बल प्रयोग करना था। और वहीं से हमला किया गया, हालांकि दुर्ग से ऊपर से हिन्दुओं ने पत्थर फेंके और आग भी जला जला कर फेंकी परन्तु वह असर नहीं की और फिर वहीं से सैनिक चढ़ गए।
राजपूतों ने देखा कि अब संभवतया वह शत्रुओं के हाथों से बच नहीं पाएंगे तो वह कुछ क्षण के लिए गायब हो गए। बाबरनामा के अनुसार, वह इसलिए चले गए थे क्योंकि वह अपनी पत्नियों और बच्चों को मारने गए थे और उसके बाद वह लगभग निर्वस्त्र होकर लड़ने के लिए आ गए। और फिर उन्होंने मुगलों की सेना पर हमला कर दिया।
उन्होंने कुछ नहीं देखा और वह मारते गए।
बाबरनामा में लिखा है कि वह या तो लड़ते रहे या फिर वह अपने आप ही अपनी गर्दन आगे कर देते थे। और उसमें लिखा है कि इस तरह बहुत बड़ी संख्या में लोग जहन्नुम में गए।
फिर आगे लिखा है कि
“अल्लाह के करम से, इस दुर्ग को 2 या 3 घड़ी में ही जीत लिया गया, जिसमें बहुत अधिक संघर्ष नहीं करना पड़ा था। और फिर चंदेरी के उत्तर-पश्चिम में हिन्दुओं के सिरों की मीनार बनाने का आदेश दिया।”

इस तिथि को फतह-ए-दारुल-हर्ब का नाम दिया गया।
हालांकि कुछ लोगों का यह भी कहना है और चंदेरी के दुर्ग में भी यह अंकित है कि मेदिनीराय की महारानी थी मणिमाला। उन्होंने 29 जनवरी 1528 को सोलह सौ क्षत्राणियों के साथ जौहर कर लिया था। और मध्य प्रदेश में चंदेरी के दुर्ग में कहते हैं कि 15 कोस तक धधकती हुई ज्वालाएँ नजर आ रही थीं।

चाहे जौहर किया हो या फिर राजपूतों ने स्वयं ही अपने हाथों से अपनी पत्नियों और बच्चों को मारा हो, उनके मारे जाने के लिए एक ही विचारधारा जिम्मेदार थी और वह थी वह कट्टर इस्लामिस्ट विचारधारा, जो काफिरों की स्त्रियों को यौन गुलाम बनाती थी। लडकियों और छोटे बच्चों को भी नहीं छोडती थी जो। इसलिए चाहे वह जौहर की आग में जलकर मरे या फिर तलवारों से, वह बाबर की वहशत का ही शिकार हुए थे।
29 जनवरी 1528, क्रूर अट्टाहास संभवतया इतिहास भी विस्मृत नहीं करेगा!