11 सितम्बर 2001, जब अमेरिका और पूरा का पूरा विश्व दहल गया था, दो हवाई जहाज जाकर टकरा गए थे वर्ल्ड ट्रेड टावर पर, और देखते ही देखते, तीन हज़ार लोग समा गए थे असमय काल के मुख में! उनका कोई दोष नहीं था। जिन लोगों ने उस विमान में कदम रखा होगा, उन्हें भी यह नहीं पता होगा कि आज उनके साथ क्या होने जा रहा है, और न ही उन लोगों ने सोचा होगा, जो रोज की तरह उस दिन भी वहां पर कार्य करने के लिए आए थे।
मगर उस दिन उनकी ही नहीं पूरे विश्व की दुनिया बदलने जा रही थी।
अमेरिका की छाती पर इस्लामी आतंक ने कदम रख दिया था, और इतनी मजबूती से कदम रखा था कि हर कोई सिहर गया था, दहल गया था। उस दिन के बाद सामान्य नहीं रह जाना था सब कुछ। 11 सितम्बर 2001 को श्रृंखलाबद्ध हुए इस्लामी आतंक के हमले में एक या दो नहीं बल्कि चार विमानों का अपहरण किया गया। और फिर खेला गया वह खेल, जो अब तक हमने केवल इतिहास में ही देखा था।
वह खेल जो केवल टूटी इमारतों में ही था, वह विध्वंस की कहानी का खेल जो हमारी धरती पर खेला गया था और जो अभी भी खेला जा रहा है, वह हमने इतिहास की पुस्तकों से बाहर साक्षात घटते हुए देखा। जब बाबर ने कहा था कि उसने बना दी थी, कटे हुए सिरों की मीनार। दरअसल उनका सपना हमेशा से ही वही रहा था, जो फैज़ ने अब आकर कहा था
“वो दिन कि जिस का वादा है
जो लौह-ए-अज़ल में लिख्खा है
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जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का”
फैज़ तक जो यात्रा बस नाम रहेगा अल्लाह के रूप में आई, उसी सोच का परिणाम होती है ऐसी घटनाएं, जिसमें सब कुछ नष्ट हो जाता है, अपने अलावा हर कोई जुल्म करने वाला है। एक सोच कि एक दिन दुनिया के हर कोने पर दीन का ही शासन होगा, एक दिन ये सारी इमारतें टूट जाएँगी। या तोड़ दी जाएंगी, जैसे पकिस्तान में टूटे हैं मंदिर या अभी भी टूटती हैं, मूर्तियाँ, जैसे बांग्लादेश में टूट जाते हैं, मंदिर, जैसे आज तक बामियान के बुद्ध विध्वंस हुए खड़े हैं।
ग्यारह सितम्बर 2001 भी उसी प्रकार के विध्वंस का एक नमूना था। दरअसल वहशीपन का कोई इलाज नहीं होता। हालांकि भारत इस वहशीपन का सामना आज से नहीं बल्कि सदियों से करते हुए आ रहा था। क़ुतुब मीनार से लेकर अयोध्या तक जिस वहशीपन के निशान बिखरे थे, जिस विध्वंस की कहानी सोमनाथ भी कह रहा था। हालाँकि, वहशीपन को भी सोमनाथ के आगे हारना पड़ा था, आज सोमनाथ और अयोध्या दोनों ही गर्व से अपनी मुस्कान के साथ खड़े हैं।
विध्वंस को हमेशा हारना पड़ेगा, पर यह अजीब है कि जिस सोच ने अमेरिका को रक्त रंजित किया, वह आज अफगानिस्तान में विजयी मुस्कान के साथ खडी ही नहीं है बल्कि और भी सशक्त होकर खडी है, और आज ही शायद अपनी सरकार भी बना रही है।
अमेरिका की धरती आज फिर शायद अपने जख्मों को याद करेगी और आज ही उसके गुनाहगार विश्व से औपचारिक मान्यता मांगेगे। मगर एक बहुत ही हैरान करने वाला तथ्य यहाँ उभर कर आता है कि क्या अमेरिका के लिए 11 सितम्बर 2001 एक हमले को याद रखने वाला दिन है या फिर वह अतीत में जाकर भारत से आए एक ऐसे साधु को भी स्मरण करेगा जिन्होनें कहा था कि मुझे गर्व है कि मैं उस धर्म से हूं जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। हम सिर्फ़ सार्वभौमिक सहिष्णुता पर ही विश्वास नहीं करते बल्कि, हम सभी धर्मों को सच के रूप में स्वीकार करते हैं।
और उन्होंने कहा था कि मुझे गर्व है कि मैं उस देश से हूं जिसने सभी धर्मों और सभी देशों के सताए गए लोगों को अपने यहां शरण दी। मुझे गर्व है कि हमने अपने दिल में इसराइल की वो पवित्र यादें संजो रखी हैं जिनमें उनके धर्मस्थलों को रोमन हमलावरों ने तहस-नहस कर दिया था और फिर उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली।
उन्होंने कहा था कि सांप्रदायिकताएं, कट्टरताएं और इसके भयानक वंशज हठधमिर्ता लंबे समय से पृथ्वी को अपने शिकंजों में जकड़े हुए हैं। इन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है। कितनी बार ही यह धरती खून से लाल हुई है। कितनी ही सभ्यताओं का विनाश हुआ है और न जाने कितने देश नष्ट हुए हैं।
और 11 सितम्बर 2001 को अमेरिका ने देखा कि साम्प्रदायिक और कट्टरता ने उसे कैसे लीलने की कोशिश की। यदि पुराना समय होता तो उसी दिन नाम बदल गया होता और जैसे हम गाज़ियाबाद, या फैजाबाद या गाजीपुर सुनते हैं, हो सकता है कुछ समय बाद न्यूयॉर्क का नाम भी बदल जाया। मगर भारत ने बांग्लादेश की सहायता की तो उस पर कब्ज़ा नहीं किया, बल्कि सौंप दिया, न ही नाम बदला और न ही अधिकार करने का ही सोचा। यही भारत का दर्शन है, यही हिन्दुओं का दर्शन है!
यही भारत और हिन्दू धर्म है। जिस हिन्दू धर्म की बात स्वामी विवेकानंद ने 11 सितम्बर को की थी, और यह बात सभी को पता है कि पारसी किसके अत्याचारों से प्रताड़ित होकर भारत आए थे, और यह भी सब जानते हैं कि बौद्ध और हिन्दू भाषी अफगानिस्तान किस मजहबी कट्टरता के कारण वैश्विक आतंक के गढ़ अफगानिस्तान में बदल गया और अब जहां बौद्ध धर्म की शांति की शिक्षाएं गूंजती थीं, आज वहां पर उन्हीं की मूर्ती पर तालिबानियों की बंदूके तनी हुई हैं।
मगर यह दुःख की बात है कि 11 सितम्बर को मजहबी इस्लामी कट्टरता का इतना बड़ा घाव झेलने के बाद भी और स्वामी विवेकानंद द्वारा मानवता के लिए इतने बड़े सन्देश के बाद भी आज अमेरिका ने अपने लिए क्या चुना है?
आज अमेरिका में हिन्दुओं के खिलाफ ही तीन दिनों तक एक ऐसा षड्यंत्र हो रहा है, जिससे विश्व के ऐसे धर्म को निशाना बना रहा है, जिसके हृदय में झूठी सहिष्णुता नहीं अपितु स्वीकार्यता है। वह स्वीकार करता है, वह झूठी सहिष्णुता के जाल में नहीं फंसता। जितनी भी धाराएं आईं, वह सब हिन्दू भारत में आकर मिलती रहीं, मगर आज अमेरिका में हिन्दुओं के ही विरुद्ध ग्लोबल हिंदुत्व को नष्ट करने पर एक सम्मेलन हो रहा है। हालांकि वह लोग कह रहे हैं कि हम हिन्दुओं के नहीं, बल्कि राजनीतिक हिंदुत्व के खिलाफ हैं!
आयोजकों की मंशा विषय और चित्र से स्पष्ट होती है, और यह पूरी तरह से स्पष्ट है कि हिन्दुओं में जिस राजनीतिक चेतना को इतने वर्षों में दबाकर रखा गया था, पश्चिम और इस्लाम ने, वह अब एक बार पुन: उभर कर आ रही है, इसीलिए यह सब प्रपंच हो रहे हैं। अमेरिका को यह नहीं दिखाई देता है कि नाइजीरिया आदि में बोको हराम ईसाइयों की गिन गिन कर हत्या कर रहे हैं। आईएसआईएस द्वारा ईराक में इसाई परिवार के संहार की तस्वीर आज तक ताजी है, इतना ही नहीं पाकिस्तान में ईसाई समुदाय सबसे ज्यादा शोषण का शिकार है, लड़कियों को उठा ले जाते हैं, ईसाई लड़कियों का जबरन रिलिजन बदल देते हैं। किसी भी इस्लामिक देश में ईसाइयों को वह अधिकार नहीं होते, जितने भारत में हैं। मगर फिर भी हिन्दुओं से उन्हें घृणा है!
दरअसल उन्हें इस बात से डर है कि इतने वर्षों तक वह जिस झूठे इतिहास के माध्यम से हिन्दुओं को मानसिक गुलाम बनाए रहे, हिन्दुओं को डराते धमकाते रहे, और उनका उद्धारक बनने का झूठा लोलीपॉप दिए रहे, उसकी असलियत सामने आ रही है, और वह उद्धारक न होकर संहारक थे, और बौद्धिक चोर थे। अपना पिछडापन भारत पर थोपने वाले थे, मगर अब हिन्दुओं ने उनका उत्तर देना सीख लिया है और वह अपने उन धार्मिक ग्रंथों की गोद में वापस जा रहा है, जिन्हें उन्होंने बहुतेरा नष्ट करना चाहा, पर चेतना से नष्ट न कर सके।
यह अमेरिका का दुर्भाग्य है कि जब वहां पर चर्चा होनी चाहिए थी कि कैसे उस मजहबी कट्टरता का सामना करें, जिसने उसके गौरव को चोट पहुंचाई थी और जिसके कारण उसके हज़ारों लोग काल के मुख में समा गए थे, वह अमेरिका आज अपने नागरिकों के कातिलों के साथ मिलकर इस बात पर चर्चा कर रहे हैं कि कैसे वैश्विक हिंदुत्व से लड़ा जाए! कातिलों के साथ मिलकर उसके खिलाफ खड़े हैं, जो सदियों से खड़ा है, अडिग, अविचलित, चेतना में समाया हुआ, जिसे कोई वैश्विक सम्मलेन नष्ट नहीं कर सकता क्योंकि वह तो समस्त सृष्टि में समाया है।
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