spot_img

HinduPost is the voice of Hindus. Support us. Protect Dharma

Will you help us hit our goal?

spot_img
Hindu Post is the voice of Hindus. Support us. Protect Dharma
21.8 C
Sringeri
Saturday, October 5, 2024

सूफियों द्वारा भारत का इस्लामीकरण- भाग II

(यह श्री पुरुषोत्तम की पुस्तक “सूफियों द्वारा भारत का इस्लामीकरण” का हिंदी में पुनर्प्रस्तुतिकरण है।  इसे तीन भाग श्रंखला के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। यह दूसरी श्रृंखला है)

प्रस्तावना

यह अत्यधिक रूप से प्रचारित किया जाता है कि सूफीवाद अध्यात्मवाद और रहस्यवाद से भरा है और ‘हिंदू-मुस्लिम’ एकता और सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा देने का एक बहुत प्रभावी साधन हो सकता है, जबकि तथ्य इसके विपरीत है ।

शहीद सालार मसूर गाजी: तलवार या कुरआन

तलवार चलाने वाले सूफी संतों में शायद शहीद सालार मसूद गाजी का नाम सबसे ऊपर है। वह महमूद गजनवी की बहन का बेटा था और इसी ने गजनवी को सोमनाथ मंदिर को नष्ट करने के लिए उकसाया था।

उसने अपने पिता और कुछ हजार घुड़सवारों के साथ उत्तर पश्चिम से भारत में प्रवेश किया।पहले ही दिन से उन्होंने हिंदुओं को तलवार या कुरान का विकल्प दिया।स्थानीय रंगरूटों के शामिल होने के कारण उसकी सेना बढ़ गई,और उसने बहराइच (यूपी) तक प्रयाण किया। वह जिस रास्ते से निकला, उस रास्ते पर वह उन तमाम हिन्दुओं की लाशें भर गईं थीं जो हिंदू ताकतों से लड़ते हुए मारे गए थे। इसे शहीद या गाज़ी (काफिरों का कातिल) शब्द से पहचाना जा सकता है जो उनके नाम के साथ जुड़ा हुआ है।

लखनऊ में दो ऐसी कब्रें हाल ही में (विभाजन के बाद) प्रसिद्ध हुईं हैं और अब हजारों हिंदू माथा टेकने आते हैं, जिसके कारण हिन्दुओं के पैसे से ही हिन्दुओं की कातिलों की मजार फल फूल रही है!

लखनऊ के खम्मन पीर बाबा

इनमें से एक को लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन पर खम्मन पीर बाबा की मजार के रूप में जाना जाता है। यह अजीब तरह से रेलवे लाइनों के बीच स्थित है। हफ्ते में एक दिन रेलवे का सामान्य कामकाज पूरी तरह अस्त-व्यस्त हो जाता है। यहां तक पहुंचने के लिए हजारों की संख्या में लोग रेलवे लाइन पार करते रहते हैं। यह आदमी सालार मसूद का साथी था जो लड़ाई में हिंदुओं द्वारा मारा गया था और उसे वहीं दफना दिया गया था जहां वह आज पड़ा है।

लखनऊ का शहीद कासिम बाबा

एक और कब्र लखनऊ छावनी में दिलकुशा के पास शहीद कासिम बाबा की है। वह भी सालार मसूद गाजी का साथी था और उसी जगह मारा गया जहां आज उसकी कब्र है। भगवान जाने कितने हिंदुओं को उसने और उसके साथी “फकीरों” ने इस्लाम स्वीकार करने से इनकार करने पर मार डाला?
(दैनिक जागरण लखनऊ समाचार अंश दिनांक 25-07-1994) इसलिए बहराइच में सालार मसूद,अजमेर में मोइनुद्दीन चिश्ती , दिल्ली में निजामुद्दीन और भारत के इस्लामीकरण में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले हजारों अन्य लोगों के मजार के साथ हिंदू अज्ञानता या राजनीतिक अवसरवाद का ऐतिहासिक स्मारक हमेशा खड़ा रहेगा।

इस रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल, श्री मोतीलाल वोरा ने शहीद कासिम बाबा की मजार पर औपचारिक चादर चढ़ाने के बाद,वहां उपस्थित लोगों से कहा कि -“ऋषियों,मुनियों और सूफी संतों द्वारा,मानवता के लाभ के लिए दिया गया सबसे महान संदेश किसी देश,धार्मिक समूह या समुदाय तक ही सीमित नहीं है। हजरत शहीद कासिम बाबा ने भी मानव समाज की मुक्ति के लिए धर्म,समुदाय, भाषा और क्षेत्र की सभी सीमाओं से परे जाकर प्रेम,एकता और मानवतावाद का उपदेश दिया। महामहिम ने प्रसन्नता व्यक्त की कि मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने मजार तक सड़क का निर्माण कराकर उसमें पानी और बिजली की आपूर्ति की।

उसी सभा को संबोधित करते हुए श्री मुलायम सिंह ने कहा कि ” इस नौ सौ साल पुराने मजार की सभी धर्म के लोग पूजा करते हैं। यह हमारी गंगा-यमुना मिश्रित संस्कृति का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।राष्ट्रीय एकता, सांप्रदायिक सौहार्द, आपसी प्रेम और भाईचारा हासिल करने के बाबा के फरमान को पूरा करना हमारा संकल्प है।” मजार के पास की छावनी भूमि को इस धर्मस्थल को हस्तांतरित कर दिया गया है।

अजमेर में मोइनुद्दीन चिश्ती और दिल्ली में निजामुद्दीन औलिया में इसी तरह के समारोहों की तस्वीरें और समाचार विषय, जहाँ हमारे राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री धर्मनिरपेक्षता और इस्लामी आस्था के लिए मान सम्मान साबित करने के लिए, पेशकश करने के लिए आते हैं और औपचारिक चादर और उपहार भेंट करते हैं, अक्सर राष्ट्रीय समाचार पत्रों में दिखाई देते हैं ।

निर्दोष शिक्षकों,किसानों, महिलाओं और बच्चों को केवल मृत्यु या कुरान का विकल्प देने वाले इन क्रूर कट्टरपंथियों को हिंदू गणमान्य व्यक्तियों द्वारा ऋषि-मुनियों और संतों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जो राष्ट्रीय एकता और सांप्रदायिक सद्भाव का उत्कृष्ट उदाहरण है जिन्होंने हिंदू मुस्लिम भाईचारे को बढ़ावा दिया।

इस अभूतपूर्व अज्ञानता, राजनीतिक अवसरवाद या कपट की व्याख्या कैसे करें?

वापिस सालार गाज़ी की बात करें, तो जब उसने भारत में प्रवेश किया था तो हिंदू राजाओं ने उससे पूछा था कि बिना किसी उकसावे के ‌किसी की भूमि पर आक्रमण करने का क्या औचित्य था? मसूद ने ऐसे शब्दों में जवाब दिया था कि, “सीमापार से मुसलमानों द्वारा इस तरह के अकारण आक्रमण के उद्देश्य के बारे में किसी भी संदेह को दूर कर देना चाहिए।” उसने कहा-“यह भूमि अल्लाह की है वह इसे अपने दासों में से किसी एक को देता है जिस पर वह कृपा करना चाहता है, मेरे पूर्वजों की यही मान्यता है। काफिरों को इस्लाम में धर्मांतरित करना एक कर्तव्य है, अगर वह मना करते हैं तो उन्हें मार डाला जाना चाहिए।”

जब वह दिल्ली पहुंचा तो गजनी के नए सैनिकों के सुदृढ़ीकरण ने तत्कालीन शासक महिपाल को हराने में उसकी मदद की । बड़ी संख्या में हिंदू और मुसलमान मारे गए।मसूद ने पाँच से छह हजार स्थानीय भाड़े के सैनिकों की भर्ती की और कन्नौज के पास गंगा को पार किया,जिसका राजा, जो महमूद गजनवी का  जागीरदार था ,ने उसकी मदद की। मसूद ने “इस्लाम या मौत” का प्रयाण जारी रखा और उत्तर प्रदेश के बाराबंकी  जिले के पवित्र पोखरे पर पहुँचा।यहाँ उसने अपना प्रधान कार्यालय बनाया। सात्रिक से उसने अपने सेनापतियों को सभी दिशाओं में भेजा। उन्हें भेजते समय उसने कहा-“हम तुम्हें अल्लाह के सुपुर्द करते हैं। तुम जहां भी जाओ, हिंदुओं को इस्लाम स्वीकार करने के लिए राजी करो। यदि वे स्वीकार करते हैं तो उन से सम्वेदनापूर्ण व्यवहार करो अन्यथा उन्हें मार डालो।” इसके बाद उन्होंने एक दूसरे को गले लगाया और अपने धर्म प्रचारक कार्य पर चल दिये।

मुस्लिम इतिहासकारों ने इसकी सराहना करते हुए कहा-“क्या दृश्य है,क्या दोस्ती है। विश्वास की कितनी दृढ़ता? अपनी व्यक्तिगत उन्नति या सुरक्षा की परवाह किए बिना इस्लाम के सच्चे विश्वास के प्रचार के लिए कुफ्र के समुद्र में कूदने के लिए तैयार।”

सालार मसूद, पासी राजा सुहेलदेव द्वारा एक युद्ध में मारा गया था और उत्तर प्रदेश के बहरईच जिला में दफनाया गया था।उसके शरीर को बाद में वहाँ से निकाल कर शायद मुस्लिम सुल्तान मोहम्मद बिन तुगलक द्वारा हिंदुओं के प्रसिद्ध पवित्र स्थान सूरजकुंड में दफनाया गया।उसके नाम के साथ लगे शहीद और गाजी का उपसर्ग और प्रत्यय उसके जीवन की कहानी बताते हैं जो हजारों हिंदुओं को जबरन धर्मांतरित करने और मारने  के लिए समर्पित था और अंततः इस प्रयास में मारा गया।

  सैयद अतहर अब्बास रिजवी ने अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ सूफिज्म इन इंडिया’ (2 खंड)  में उपयुक्त टिप्पणी की है :”उन हिंदुओं के लिए जो उन्हें तिलिस्मी ताकतों का फकीर मानते हैं, उनके द्वारा उनके असंख्य भाइयों को मारना या इस्लामीकरण करना,तब भी अर्थहीन था और आज भी  अर्थहीन है।वे उसकी पूजा करते हैं और जो लोग बहराइच के मकबरे की यात्रा करने में असमर्थ हैं वे पूर्वी बंगाल से लेकर पंजाब तक  बिखरी हुई  कई प्रतीकात्मक कबरों में से एक पर जाकर पूजा करते हैं। यह प्रतीकात्मक कब्रें सालार मसूद के जीवन की घटनाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं और बहराइच में उसकी कब्र के समान उत्साह के साथ इनकी पूजा की जाती है।
 
नौचंदी, मेरठ का बाले मियां

मेरठ (उत्तर प्रदेश) में प्रसिद्ध नौचंदी मंदिर के पास बाले मियां नामक एक महत्वपूर्ण मजार का यहाँ उल्लेख किया जाना चाहिए। ऐसा प्रतीत होता है कि जब मसूद की सेना ने मंदिर पर हमला किया था तब यहां एक भीषण लड़ाई लड़ी गई थी। हिंदुओं ने लड़ाई लड़ी और उनके सेनापति और कई अन्य लोगों को मार डाला। मुख्य कब्र (शायद सेनापति की) को बाले मियां (यानी मसूद) की मजार कहा गया है,जिसकी असली कब्र बहराइच में है। पास की छोटी-छोटी कब्रें मुस्लिम सैनिकों की प्रतीत होती हैं। हाल ही में उस क्षेत्र के मुस्लिम सांसद ने धर्मनिरपेक्ष सार्वजनिक धन राशि में से चार लाख की रकम    अपने विवेकाधीन/ स्वनिर्णयगत अनुदान से मजार में हॉल के निर्माण के लिए खर्च किये हैं जबकि वहीं सड़क के पार मुश्किल से सौ फीट की दूरी पर हिंदू मंदिर उपेक्षित और उजाड़ खड़ा है क्योंकि हिंदू मंदिर में एक हॉल जोड़ने का कोई भी प्रयास भारत सरकार के धर्मनिरपेक्ष चरित्र के खिलाफ होगा।

कुछ सूफी नियोगों ने अपने जीवन के कई साल जंगल में योग और तपस्या के अभ्यास के लिए समर्पित कर दिए जिससे चमत्कार और अलौकिक कारनामों को करने की उनकी क्षमता की प्रसिद्धि ने उन्हें अपने हिंदू आगंतुकों के धर्म परिवर्तन में सहायता की। ऐसा माना जाता है कि चमत्कारों और अलौकिक शक्तियों के वास्तविक प्रदर्शन की इन कहानियों से प्रभावित होकर हिंदू उनके शिष्य बन गए और अंततः इस्लाम में धर्मांतरित हो गए ।

सुहरावर्दीया, शेख जलालुद्दीन तबरीज़ी, मखदूम जहाँनियान और उनके भाई राजू कत्तल इस्लाम के कुछ बहुत सक्रिय प्रचारक थे। शेख अलाउद्दौला सिमनानी, मीर सैयद अली हमाद्री और उनके बेटे और उत्तराधिकारी मीर मोहम्मद के खानकाह में प्रशिक्षित सूफियों ने हिंदुओं के इस्लाम में  धर्मांतरण को अपने मुख्य उद्देश्यों में से एक माना। इनके द्वारा हिंदू भारत के इस्लामीकरण की सीमा सूची वाकई हैरान करने वाली है। इस संक्षिप्त निबंध में हम उनके काम के उदाहरण के रूप में केवल कुछ मामलों का उल्लेख करेंगे।

बदौनी का दावा है कि चाटी के शेख दाऊद ने पंजाब और सिंध में हर दिन पचास से सौ हिंदुओं को धर्मांतरित किया। जबरन धर्मांतरण के खिलाफ अकबर के निषेध के बावजूद शेख दाऊद के उत्तराधिकारी शाह अबुल माली और अन्य काद्रिया खानकाहों में सूफियों ने अपने धर्मांतरण मिशन में बल प्रयोग करने में कभी संकोच नहीं किया। यहां तक कि मुल्ला शाह ने भी बड़ी संख्या में हिंदुओं को इस्लाम में धर्मांतरित किया।

जौनपुर और बिहार के बीच काद्रियाओं के रशीदिया खानकाह ,मुसलमानों की कम आबादी वाले क्षेत्रों में, धर्मांतरण में अधिक सक्रिय रूप से लगे हुए थे।

दीवान अब्दुल रशीद के शिष्यों और वंशजों ने भी पूरे बंगाल में खानकाहों की स्थापना की। शेख नियामातुल्लाह कादिरी के कादिरिया खानाकाह और उनके उत्तराधिकारीयों को राजकुमार शाह शुजा द्वारा और बाद में औरंगजेब द्वारा दिए गए समर्थन में उनकी धर्मांतरण गतिविधियों को मजबूत करने में मदद की जिसके परिणाम स्वरुप वह क्षेत्र मुस्लिम बहुल क्षेत्र बन गया।

सिलहट के शेख जलाल और उनके तुरिस्तानी शिष्य  ख्वाजागन और मध्य एशिया के नक्शबंदीया, जिनमें से कुछ ने अपने जीवन के कुछ साल काफिरों को इस्लाम में परिवर्तित करने से पहले उनसे युद्ध करते हुए समर्पित कर दिए,वे सभी धर्मांतरण में पूरे उत्साह के साथ जुड़े हुए थे। पंद्रहवी शताब्दी के दौरान अपने खानकाहों की स्थापना शुरू करने वाले शत्तारिया,काद्रिया और नक्शबंदिया नियोगों के सूफियों को भारत और मध्य एशिया में अपने पूर्वजों की धर्मांतरण परंपराओं के बारे में गहराई से जानकारी थी और अपने इस ज्ञान को भारत में धर्मांतरितों की संख्या बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया।

बंगाल से मालवा

उन्होंने बंगाल से मालवा तक अपने खानकाहों की स्थापना की और बाद में उनके शिष्यों ने गुजरात तक खानकाहों की स्थापना की ।

ऐसी ही एक और कहानी सूफी शेख जलालुद्दीन तबरीज़ी की  है।वह बंगाल के लखनौती में रहता था। वहां उसने एक खानकाह की स्थापना की और उसमें कई भूमि और उद्यान लगवाए।फिर वह देवतल्ला चला गया। वहां एक काफिर हिंदू या बौद्ध ने एक बड़ा मंदिर और एक कुआँ बनवाया था। शेख ने मंदिर को ध्वस्त कर दिया और उस पर एक तकिया (खानकाह) का निर्माण कर दिया। उसने बड़ी संख्या में काफिरों (हिंदुओं और बौद्धों) का धर्म परिवर्तन कराया। हालांकि शेख की स्मृति को हिंदुओं और मुसलमानों द्वारा समान रूप से संजोया गया है। देवतल्ला तबरिज़ाबाद के नाम से जाना जाने लगा और बड़ी संख्या में तीर्थयात्रियों को आकर्षित करता है।

बंगाल में धर्मांतरण के काम को मजबूत करने के बाद जलालुद्दीन उत्तर प्रदेश के बदायूं में स्थानांतरित हो गया। वहां भी उसने बड़ी संख्या में हिंदुओं को इस्लाम में धर्मांतरित कर दिया।

पूर्वी बंगाल के इस्लामीकरण का श्रेय, जिसने बाद में पाकिस्तान को चुना, सूफी नियोगों को जाता है ।

एक राजा गणेश ने 1409 ईस्वी में बंगाल के सिंहासन पर कब्ज़ा कर लिया। उन्होंने प्रमुख उलेमा और सूफियों से छुटकारा पाकर, जो हिंदू राज्य में परेशानी पैदा कर रहे थे,अपना अधिकार स्थापित करने की कोशिश की । कुतबुल आलम शेख नूरुल हक ने सुल्तान इब्राहिम शारकी को बंगाल आकर वहाँ के मुसलमानों को बचाने के लिए पत्र लिखा। इब्राहिम शरकी ने इस आमंत्रण का जवाब दिया,तो राजा गणेश ने इस चुनौती का सामना करने के लिए स्वयं को बहुत कमजोर समझ शेख नुरुल हक से ही मदद की अपील की, जिस से वह स्वयं छुटकारा पाना चाहता था। शेख नुरुल ने उसकी ओर से हस्तक्षेप करने का वादा किया अगर वह मुसलमान बनना स्वीकार करे तो।

असहाय राजा तैयार हो गया लेकिन उसकी पत्नी ने मानने से इनकार कर दिया। अंततः राजा ने कहा कि वह संन्यास ले लेगा और अपने बेटे जदू को धर्मांतरित करने और अपने सिंहासन पर बैठने की अनुमति देने के लिए एक समझौता किया। जदू के जलालुद्दीन शाह के रूप में धर्मांतरित होने और सिंहासन पर बैठने पर शेख नुरुल हक ने सुल्तान इब्राहिम से कहा कि वह अपनी सेना वापस ले लें।

धर्मांतरित राजा जदु, जो अब जलालुद्दीन मुहम्मद था, ने अपने सत्रह वर्ष (1414 से 1431) के शासनकाल के दौरान कितने ही हिंदुओं को इस्लाम में धर्मांतरित किया। डॉक्टर वॉइस लिखते हैं कि-” उन्होंने केवल एक ही शर्त पेश की : कुरान या मृत्यु ….। कई हिंदू कामरूप और असम के जंगलों में भाग गए लेकिन फिर भी यह संभव है कि उनके सत्रह वर्षों (1414-1431) के शासनकाल के दौरान,अगले तीन सौ वर्षों की तुलना में, इस्लाम में और अधिक मुसलमानों को जोड़ा गया । और बारबोसा लिखते हैं कि-” स्पष्ट रूप से सोलहवीं शताब्दी के बंगाल में एक मूल (मुसलमान) होने का अलग फायदा था जैसे कि हिंदू,अपने शासकों के पक्ष को हासिल करने के लिए रोजाना मूल बन जाते हैं।” अगर गणेश के कद के राजा उलेमा और सूफियों का सामना नहीं कर सकते थे तो छोटे राजा और जमींदार तो और भी बदतर स्थिति में थे। छोटे राजाओं और जमींदारों को, जो अपना राजस्व या उपहार समय से नहीं दे पाते थे, उनकी पत्नियों और बच्चों के साथ इस्लाम में धर्मांतरित कर दिया जाता था। इस तरह की प्रथा पूरे देश में आम प्रतीत होती है क्योंकि इसके उदाहरण गुजरात से लेकर बंगाल तक पाए जाते हैं।”

आम धारणा के विपरीत, फकीरों के रूप में हिंदुओं के प्रति दयालु होने के स्थान पर, सूफी चाहते थे कि हिंदुओं को,यदि वे धर्मांतरण से इनकार करते हैं, तो द्वितीय श्रेणी की नागरिकता प्रदान की जाए ।
  सिर्फ एक उदाहरण, शेख अब्दुल गंगोही सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) का दिया जाना चाहिए क्योंकि वह चिश्श्ता सिलसिला  से संबंधित था जिसे सभी सूफी समूहों में सबसे अधिक सहिष्णु माना जाता था । उसने सुल्तान सिकंदर लोदी, बाबर और हुमायूं को शरीयत को फिर से मजबूत करने और हिंदुओं को भूमि कर और जजिया के दाताओं तक सीमित करने के लिए पत्र लिखे। उसने बाबर को लिखा-“उलेमा और फकीरों (सूफियों) को अत्यधिक संरक्षण और सुरक्षा प्रदान करें, कि उन्हें राज्य द्वारा बनाए रखा जाना चाहिए और उन्हें सब्सिडी दी जानी चाहिए। किसी भी गैर मुस्लिम को कोई पद नहीं दिया जाना चाहिए और शरीयत के सिद्धांतों के अनुरूप उन्हें सभी प्रकार के तिरस्कृत और अपमानित किया जाना चाहिए। हिंदुओं को इस्लाम में धर्मांतरित करने के लिए मजबूर करने के लिए किए गए अत्याचारों की सूची अनंत है ।

अंग्रेजी लेख का लिंक: https://hindupost.in/society-culture/islamization-of-bharat-by-the-sufis-part-2/

अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद: रागिनी विवेक अग्रवाल

Subscribe to our channels on Telegram &  YouTube. Follow us on Twitter and Facebook

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Latest Articles

Sign up to receive HinduPost content in your inbox
Select list(s):

We don’t spam! Read our privacy policy for more info.

Thanks for Visiting Hindupost

Dear valued reader,
HinduPost.in has been your reliable source for news and perspectives vital to the Hindu community. We strive to amplify diverse voices and broaden understanding, but we can't do it alone. Keeping our platform free and high-quality requires resources. As a non-profit, we rely on reader contributions. Please consider donating to HinduPost.in. Any amount you give can make a real difference. It's simple - click on this button:
By supporting us, you invest in a platform dedicated to truth, understanding, and the voices of the Hindu community. Thank you for standing with us.