हम सीता राम गोयल जी की पुस्तक “मैं हिन्दू कैसे बना: How I Became Hindu” अपने सभी पाठकों के लिए हिंदी में प्रस्तुत कर रहे हैं. स्वर्गीय सीता राम गोयल जी स्वतंत्र भारत के उन अग्रणी बौद्धिकों एवं लेखकों में से एक थे, जिनके कार्य एवं लेखन को वामपंथी अकादमी संस्थानों ने पूरी तरह से हाशिये पर धकेला. हम आम लोगों के लिए पुस्तकों/लेखों का खजाना उपलब्ध कराने के लिए VoiceOfDharma.org के आभारी हैं:
********************************************
अपने स्वास्थ्य के कारण मुझे कोलकाता छोड़ कर दिल्ली लौटना पड़ा। मैंने बांग्ला संस्कृति और राजनीति के उस उदात्त और सर्वोत्कृष्ट केंद्र में बारह वर्ष की लंबी अवधि बिताई थी। एक तरह से मैंने कोलकाता की राजनीति में भाग लिया था। यह मेरा दुर्भाग्य था कि मैं बंगाली संस्कृति की गहराई में नहीं उतरा था, जो हाल के दिनों में, भारत की अंतरात्मा को फिर से जगाने का पर्याय बन गई थी। बंगाल स्वयं उस उत्कृष्ट विरासत से दूर हो रहा था और एक आयातित विचारधारा की ओर मुड़ रहा था जो उसे आध्यात्मिक ध्वंस की ओर ले जा रहे था।
लेकिन मैंने बंगाली साहित्य के साथ एक चिरस्थाई संपर्क बनाया, जिसे मैं भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के महानतम साहित्य में से एक मानता हूं। मैंने सोचा कि यद्यपि गुरुदेव रविंद्रनाथ ठाकुर आधुनिक समय के सबसे महान कवि थे किन्तु बिभूति भूषण बंदोपाध्याय की भी दुनिया के महान उपन्यासकारों में गिनती की जा सकती थी। मैं वैष्णव और बाउल कवियों की ओर बहुत आकर्षित हुआ जिनकी पदावली कीर्तन (श्री कृष्ण के इर्द-गिर्द केंद्रित गीत) और रहस्यवादी संग्रह अभी भी बंगाल में एक जीवंत परंपरा थी। मुझे इन गायकों के कुछ सत्रों में भाग लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जो आत्मा की दिव्यता प्राप्ती का प्रयास कर रहे थे।
दिल्ली में मेरी नई नौकरी ने मुझे बहुत फुर्सत का समय दिया। दिल्ली की एकांत वीथियों पर लंबी सैर के दौरान मैं पढ़ और सोच सकता था और अपनी स्थिति का जायजा ले सकता था। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि अब मैं अपनी सारी शामें रामस्वरूप के साथ बिता सकता था। मैं देख सकता था कि उसकी खोज ने एक गहरी दिशा की ओर एक निर्णायक मोड़ ले लिया था । वह भारत में सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिदृश्य के प्रति पहले की तरह जागृत थे। लेकिन इस जागृति ने अब एक बिल्कुल नया आयाम हासिल कर लिया था। राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलन अब बाहरी ताकतों और बौद्धिक विचारों के टकराव या जमावड़े नहीं रह गए थे; वे समाज के लोगों की मानसिक और आध्यात्मिक अवस्था के अनुमान बन गए थे । उनके निर्णयों ने अब एक गहराई हासिल कर ली थी जिसकी थाह पाना मेरे लिए अक्सर मुश्किल हो जाता था।
रामस्वरूप अब लंबे समय तक ध्यान में बैठे रहते। उनकी बातचीत अब वेदों, उपनिषदों, गीता, महाभारत और बुद्ध के इर्द-गिर्द केंद्रित रहती थीं। उन्होंने मुझे भी कभी कभी अपने साथ ध्यान में बैठने के लिए आमंत्रित किया। मैंने कई बार कोशिश की । लेकिन मैं स्वयं इतना व्याकुल और बेचैन रहता था कि एक ही मुद्रा में लंबे समय तक बैठ पाना,बाहरी दुनिया की ओर अपनी आंखें बंद कर कुछ नई धारणाओं की तलाश में शून्य में झांकना मेरे लिये मुश्किल था । मुझे वर्तमान राजनीतिक स्थिति पर लिखने और उस पर कड़ी टिप्पणियाँ करने की तीव्र इच्छा थी। लेकिन जो मैंने लिखा था उसे प्रकाशित करने वाला कौन था ?
उसी समय ‘ऑर्गेनाइजर’ के मृदुभाषी और हमेशा मुस्कुराते रहने वाले संपादक श्री के .आर मलकानी ने मेरे लिये अपने साप्ताहिक में मेरा स्वागत किया। मैंने कई वर्षों तक कमोबेश नियमित रूप से ‘ऑर्गेनाइजर’ में लिखा। मेरी एक लंबी श्रृंखला पंडित नेहरू की राजनीतिक जीवनी को समर्पित थी जिसकी वजह से अंततः मेरी नौकरी चली गई। कुछ मित्रों ने ऑर्गेनाइजर के लिए मेरे लेखन पर त्यौरियाँ चढ़ाईं। पर मेरा अटल जवाब था कि एक तथाकथित प्रतिष्ठित पत्रों में केवल तभी भुगतान किया जाता है जब किसी के पास कहने के लिए कुछ नहीं होता है या यदि किसी की एकमात्र आकांक्षा मोटी चेक के लिए होती है। मुझे श्री मलकानी एक बहुत ही ईमानदारएवं कर्तव्यनिष्ठ संपादक लगे। उन्होंने मुझसे परामर्श किए बिना मेरे लेख पर कभी कोई भी बदलाव नहीं किया।
इस समय दिल्ली में एक और महान व्यक्ति से मेरी मुलाकात हुई। वह थे प्रसिद्ध हिंदी उपन्यासकार और हिंदू संस्कृति के प्रतिपादक,श्री गुरुदत्त। मैंने उनसे संकोचपूर्वक और अनौपचारिक लहजे में एक उपन्यास का उल्लेख किया जो मैंने लिख कर पूरा किया था। उनकी प्रतिक्रिया तात्कालिक और बहुत गर्मजोशी से भरी थी। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं जो मन हो वह लख सकता हूँ, और मुझे आश्वासन दिया कि वह इसे प्रकाशित करवाने की जिम्मेदारी लेंगे। उन्होंने अपना वादा निभाया भी, भले ही मैंने अंततः उनके प्रकाशक को कुछ नुकसान भी करवाया। लेकिन जिस बात में मुझे आकर्षित किया वह था उस सख्त बाह्य स्वरूपके पीछे छिपे कोमल इंसान ने। वह मुझसे बीस साल से भी अधिक वरिष्ठ थे। इस सदी के बीसवें दशक से एक लंबे सांस्कृतिक और राजनीतिक इतिहास के जागरूक साक्ष्य रहे हैं । उन्होंने अपने स्वयं के वैचारिक परिपेक्ष में घटनाओं और व्यक्तित्व की एक व्यवस्थित आलोचना भी विकसित की थी। लेकिन मैंने कभी उन्हें अपने वर्षों का भार या अपनी प्रग्यता को दूसरों पर थोपते नहीं देखा। मैंने पाया कि,यदि वह तथ्यों या तर्क के विपरीत कथन से आश्वस्त होते तो वह अपने निर्णय को बदलने को तैयार रहते थे। युवा पीढ़ी के साथ युवा बनने की उनकी क्षमता अद्भुत थी ।
मैं इन तीन-चार वर्षों के दौरान अपने खाली समय का उपयोग अपनी संस्कृत को सुधारने में कर रहा था। मैंने काफी प्रगति की क्योंकि मैंने हिंदी या अंग्रेजी अनुवादों की सहायता छोड़ दी और सिर्फ संस्कृत भाष्यों की मदद से कुछ बहुत कठिन ग्रंथों को अनुत्यक्त कर लिया। अंत में मैं महाभारत को उसकी मूल भाषा, गिरवाण भारती में पढ़ने में सक्षम हुआ। गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित छह खंड का पाठ काफी काम आया। यह मेरे अब तक के पूरे अध्ययन में एक अनूठा अनुभव था।
रामस्वरूप के साथ बिताई लंबी शामों में मैंने उनके साथ महाभारत पर अपने अवधानों/टिप्पणीयों की तुलना की। लेकिन महाभारत को देखने का रामस्वरूप का नजरिया काफी अलग था। उन्होंने इसे सीधे वेदों से जोड़ा। उन्होंने समझाया कि कैसे इस महान महाकाव्य के शक्तिशाली पात्रों ने वैदिक ऋषियों की आध्यात्मिक दृष्टि को मूर्त रूप दिया और जीवित किया। जो बात मुझे और भी अधिक आकर्षित कर रही थी वह थी महाभारत में वर्णित रामस्वरूप की धर्म की व्याख्या। मेरे लिए,धर्म हमेशा नैतिक मानदंडों, बाहरी नियमों और विनियमों, क्या करें और क्या न करें का मामला रहा है जो इच्छा द्वारा जीवन में लागू किया गया है। अब मुझे धर्म को, मनुष्य के अस्तित्व के आंतरिक नियम, उसके अलौकिक उद्भव, उसकी आध्यात्मिक वृद्धि और अपने लिए और उस समुदाय के लिए जिसमें वह रहता था, एक बाहरी जीवन के सहज निर्माण के एक बहुआयामी आंदोलन के रूप में दिखाया जा रहा था।
अगला काम जो मैंने किया वह था श्री औरोबिंदो की प्रमुख कृतियों को कई बार पढ़ना और रामस्वरूप के साथ उनके संदेश पर दिन प्रतिदिन चर्चा करना। योग पर अपने सभी लेखन के बावजूद श्री औरोबिंदो मेरे लिए एक अमूर्त दार्शनिक बने रहते, अगर रामस्वरूप ने मुझे नहीं समझाया होता कि कैसे यह दृष्टा हमारे समय में वैदिक दृष्टि के सबसे बड़े प्रतिपादक थे। उन्होंने मुझे बताया कि श्री अरबिंदो का संदेश मूल रूप से वही पुराना वैदिक संदेश था,अर्थात ,हम अपने अंतरतम में देवता हैं और इस पृथ्वी पर देवताओं का जीवन जीना चाहिए। उन्होंने मुझे बताया कि श्री अरबिंदो का भौतिक, प्राणिक, मानसिक और आध्यात्मिक से क्या तात्पर्य है। उन्होंने इन शब्दों को उपनिषदों में पाँच कोस के सिद्धांत से जोड़ा।
लेकिन श्री अरबिंदो केवल वैदिक आध्यात्मिकता के प्रतिपादक नहीं थे। वह एक कवि,गुणग्य,एक राजनेता और एक शानदार समाजशास्त्री भी थे। उनका मानव चक्र , इतिहास की एक व्याख्या थी जिसने अपने आंतरिक और बाहरी जीवन में आध्यात्मिक पूर्णता के लिए मनुष्य के प्रयास को विश्व आव्यूह के प्रमुख प्रेरक के रूप में रखा । उनके भारतीय संस्कृति की नींव ने मुझे पहली बार दिखाया की हमारी महान आध्यात्मिकता, कला, वास्तु, साहित्य ,सामाजिक सिद्धांत और राजनीतिक अभिरूप की हमारी बहुमुखी विरासत एक ही केंद्र से निकली और उसी के चारों ओर घूमती है । वह केंद्र था सनातन धर्म जो भारत की आत्मा थी। श्री औरोबिंदो ने अपने उत्तरपारा के भाषण में यह बहुत स्पष्ट कर दिया था कि भारत का अभ्युदय सनातन धर्म के उदय के साथ हुआ था और अगर सनातन धर्म को मरने दिया गया तो भारतवर्ष भी मर जाएगा।
एक और महान लेखक जिन्होंने मुझे इस मंच पर आगे बढ़ाया वे थे बंकिंग बंकिम चंद्र चैटर्जी। मैंने उनके सभी उपन्यास पढ़े थे लेकिन कभी समझ नहीं पाया कि उन्हें एक ऋषि की तरह सम्मानित क्यों किया गया था। मैं स्वयं एक उपन्यासकार था और पहले ही कई मानवीय कहानियां लिख चुका था। मैं सोचता था कि एक उपन्यासकार मानव चरित्र के आयामों को संबोधित करता है कि वो किन ऊंचाइयों को छू सकता है और किन गहराईयों तक डूब सकता है । हम उस बेचारे पर ऋषि की उपाधि क्यों थोपें? इस तरह तो ऋषि एक पैसा दर्जन में उपलब्ध हो जाएंगे। बंकिमचंद्र के ऋषि होने के बारे में मेरा संदेह तब दूर हो गया जब मैंने बांग्ला में उनके कलेक्टेड वर्क्स का दूसरा खण्ड पढ़ा। हिंदू संस्कृति के अंतरतम केंद्र में उनकी अंतर्दृष्टि एक रहस्योद्घाटन थी। उनकी “रामायणेर आलोचना” ने मुझे आधुनिक भारत शास्त्र की अतिविरूपता को पहले से कहीं अधिक दिखाया। मैंने तुरंत इस कृति का हिंदी में अनुवाद किया।
अपने शुरुआती दिनों में मैंने रोमेन रोलैंड द्वारा लिखित श्री रामकृष्ण की जीवनी पढ़ी थी। विवेकानंद ने बहुत पहले ‘माय मास्टर’ के बारे में जो भाषण लिखा था उसे भी मैंने पढ़ा था। मैं दक्षिणेश्वर में श्री रामकृष्ण के कमरे में गया था। मैंने उनके जीवन पर एक बंगला फिल्म भी देखी थी। लेकिन जो चीज़ मुझे इस महान रहस्यवादी और भक्त और शाक्त और अद्वैत के साथ घनिष्ठ और जीवंत संपर्क में लाई, वह थी उनकी कथामृत। उन्होंने एक भी अमूर्तता का उपयोग नहीं किया था और ना ही किसी भी समस्या पर चर्चा की थी जो दर्शन के रूप में मिलती है। उनके भाषणों में एक ठोस चेतना की अभिव्यक्ति थी जिसने गंदगी और मल और निष्क्रियता के हर निशान को स्खलित कर दिया था जो कि सामान्य मानव चेतना के रूप में जाना जाता है। इस शुद्ध चेतना से अनायास उत्पन्न हुए रूपक अपनी उपयुक्तता में बेजोड़ थे और कुछ शब्दों में उन उलझी हुई समस्याओं को प्रकाशित करते थे जिन्हें हल करने में कई विस्तीर्ण कार्य विफल हो गए थे। मुझे अब अमरता का पहला प्रग्यापन मिल रहा था, जिसकी ओर कबीर,नानक और श्री गरीबदास ने पहले मुझे प्रवृत्त किया था।
अंतिम सफलता 1959 में मिली जब ऑर्गेनाइजर में रामस्वरूप जी का लंबा लेख, ‘बौद्ध धर्म की तुलना में हिंदू धर्म’, प्रकाशित हुआ। बुद्ध की एक नीतिकथा ने मुझे झकझोर कर रख दिया था, जिसमें यह था कि एक मनुष्य जो तीर से घायल था, और किसी भी प्रकार के चिकित्सा से इंकार कर रहा था जब तक कि उसके कई बौद्धिक प्रश्नोत्तर और जिज्ञासा संतुष्ट नहीं होती।
मैंने अपना जीवन बौद्धिक अभ्यासों में आनंदित होते हुए बिताया था। ब्रह्मांड की प्रकृति क्या थी? इसमें मनुष्य का क्या स्थान था? क्या कोई भगवान था?क्या उसने इस ब्रह्मांड को बनाया था? उसने ऐसा खिलवाड़ क्यों किया? मानव जीवन का लक्ष्य क्या था? क्या मनुष्य उस लक्ष्य का पीछा करने के लिए स्वतंत्रता था?या वह अपने नियंत्रण से परे ताकतों द्वारा किसी विशेष लक्ष्य के लिए पूर्व निर्धारित या पूर्वनियत या देवनिर्दिष्ट था? और इसी तरह और आगे यह एक अंतहीन प्रमस्तिष्क क्रिया थी। बुद्ध ने इसे दृष्टि कंतरा , खोज का रेगिस्तान कहा था। श्री रामकृष्ण ने एक अक्लमंद की नमक की गुड़िया का भी उपहास किया था जो महान महासागर की थाह लेने गई थी लेकिन पहली ही डुबकी में लुप्त हो गई थी।
मुझे अब यकीन हो गया था कि मेरे द्वारा उठाए गए प्रश्नों की गुणवत्ता मेरी चेतना की गुणवत्ता से नियंत्रित होती है। रामस्वरूप ने मुझे बताया कि जिसे हम सामान्य मानव चेतना कहते हैं उसे किसी अन्य चेतना के साथ संपर्क स्थापित करने से पहले निष्क्रिय होने के लिए छिपा दिया गया था जिसमें उचित प्रश्न और उचित उत्तरों की कुंजी थी। दहलीज पर हमेशा प्रतीक्षा कर रही एक शुद्ध और उच्च चेतना के मार्ग को अवरुद्ध करने का सबसे सुरक्षित तरीका था सामान्य चेतना को हर प्रकार के प्रश्नों और जिज्ञासाओं से द्वंद करना और उत्तेजित करना।
मैंने अब रामस्वरूप से मुझे ध्यान की कला में दीक्षित करने का अनुरोध किया। उन्होंने मुझे बताया कि यह कोई बहुत जटिल या विस्तृत कला नहीं थी। मैं उनके साथ बैठ सकता था और ध्यान कर सकता था, जब भी मैं चाहूँ, प्रतीक्षा करूँ और देखूँ, जहां तक मैं किसी भी समय प्रबंधन कर सकता हूं अपने भीतर जाऊँ, जो भी अच्छे विचार प्रकट हुए उस पर ध्यान दूँ और बाकी सब स्वतः हो जाएगा। मैंने अपने मन में कुछ संशयात्मकता के साथ उनके सरल निर्देशों का पालन किया। लेकिन अगले कुछ दिनों में मैंने कुछ परिणाम देखे जिसने मुझे आगे के प्रयास के लिए प्रोत्साहित किया।
एक दिन मैंने अहिंसा का ध्यान किया जो अब तक मेरे लिए एक अमूर्त अवधारणा थी। कुछ समय बाद मैंने अपने आप को उन सभी से क्षमा मांगते हुए पाया जिन्हें मैंने अपने वचन या कर्म से आहत किया था या जिनके प्रति मेरी कोई दुर्भावना थी। यह सामान्य कथन का अभ्यास नहीं था। एक के बाद एक व्यक्ति मेरी याद में उठे, सुदूर अतीत में वापस जा रहे थे और मैं उनमें से प्रत्येक के सामने पश्चाताप से झुक रहा था। अंत में मैंने स्टालिन से क्षमा मांगी जिसके खिलाफ मैंने इतना कुछ लिखा था और जिस पर मैंने शब्दों का इतना पथराव किया था। लंबे वर्षों से मेरे जीवन में जहर घोलने वाली कड़वाहट अचानक मेरे मन से मिट गईं और मेरे दिमाग की नसें तनावमुक्त हो गईं। मुझे ऐसे लगा जैसे मेरे शरीर को पीड़ा देने वाले हजारों कांटों को एक कुशल एवं दक्ष चिकित्सक ने बिना जरा भी दर्द दिए निकाल लिया हो। मुझे और अधिक आश्वासन की आवश्यकता नहीं थी कि यही वह रास्ता है जिस पर मुझे चलना चाहिए।
एक दिन,मैंने रामस्वरूप को बताया कि कैसे मैं, कभी भी देवी को सरस्वती या लक्ष्मी या दुर्गा या काली के रूप में स्वीकार नहीं कर पाया। उन्होंने मुस्कुराते हुए मुझे उस दिन देवी का ध्यान करने को कहा। मैंने अपने तरीके से अपनी तरफ से पूरी कोशिश की। कुछ देर तक कुछ नहीं हुआ। मेरा दिमाग भावशून्य था। लेकिन अगले ही क्षण यह खालीपन एक महान सान्निध्य के अहसास से भर गया। मुझे कोई ठोस छवि नहीं दिख रही थी। मेरे कानों में कोई शब्द फुसफुसाए नहीं गए थे। फिर भी जीवन भर की कठोरता अनुत्यक्त हो तिरोहित हो गई । उदात्त माँ अपने खोए हुए बच्चे को अपनी गोद में जाकर बैठने और सभी भयों से सुरक्षित महसूस करने के लिए इंगित कर रही थीं। हमारे पास डॉक्टर गोविंद गोपाल मुखोपाध्याय के देवी के लिये गाया गया अत्यधिक प्रभावित करने वाला सुरीला स्तवन का ग्रामोफोन रिकॉर्ड था। जैसे ही मैंने इसे बजाया मैंने माँ से प्रार्थना की।
और भी बहुत से ध्यान थे। मेरी प्रगति तेज नहीं थी ना ही मैं दूर पहुँचा। लेकिन अब मुझे यकीन हो गया था कि यही वह तरीका है जिसके द्वारा मैं अपने लिए उन महान सत्य को फिर से खोज सकता हूं जिनके बारे में पूर्वजों ने हिंदू धर्म ग्रंथों में बात की थी। यह मेरी तलाश का अंत नहीं था जो सही मायने में अभी शुरू हुई थी। लेकिन यह निश्चित रूप से एक किनारे की तलाश में मेरे भटकने का अंत था, जहां मैं अपनी आत्मा का सुरक्षित रूप से लंगर डाल सकता था और अपनी स्थिति का जायजा ले सकता था।
रामस्वरूप ने मुझे बहुत दृढ़ता से चेतावनी दी कि मैं अपने चिंतनशील विवेकबुद्धि को आंतरिक अनुभव के निद्रापक के तहत सोने न दूँ, चाहे वह कितना भी गहरा या तीव्रढलान वाला क्यों न हो । उन्होंने कहा यह वह जाल था जिसमें कई अभ्यासी गिर गए थे और उन्हें विश्वास हो गया था कि उन्हें अंतिम सत्य मिल गया है, तब भी जब वह लक्ष्य से बहुत दूर थे।
सामी भविष्यवक्ताओं, विशेष रूप से मूसा और मोहम्मद,की त्रासदी और भी बड़ी थी। उन्हें मानव चेतना को उसकी अंतर्निहित अशुद्धियों को गहरा करने,परिवर्धन करने और शुद्ध करने की योग पद्धति का कोई आभास नहीं था। वह किसी बाहरी हालांकि भावुक विचार के जादू के तहत गुजरे, इसके साथ एक निरंतर और कट्टरपंथी अन्यमनस्कता से इसे आंतरिक बना दिया,इस विचार की आवाज को भगवान की आवाज के साथ भ्रमित कर दिया और अपने लिए सत्य के एकाधिकार और अपने अनुयायियों के लिये नैतिक सद्गुणों के एकाधिकार का दावा करके समाप्त हो गया। इस अर्थ में यीशु मसीह एक यहूदी भविष्यद्वकता नहीं थे। वे एक रहस्यवादी और आध्यात्मिक साधक थे। लेकिन उनका सार्वभौमिक संदेश जल्द ही पॉल और ईसाई चर्च के अन्य संस्थापक नेताओं के अनन्य धर्म शास्त्र द्वारा ग्रहण ग्रस्त हो गया । उन्हें एक बाहरी हालांकि भावुक विचार ने भी जब्त कर लिया था ।
मुझे बताया गया था कि परम सत्य, परम अच्छाई,परम सौंदर्य और परम शक्ति के लिए आत्मा की भूख, स्वास्थ्यकर भोजन और पेय के लिए शरीर की भूख की तरह थी। और जिसने मानव आत्मा की इस भूख को अंततः पूरी तरह संतुष्ट किया वह सनातन धर्म था,जो सभी समय और आबहवा के लिए सत्य था । सनातन धर्म के उपासक को एक ही शास्त्र में वर्णित अलौकिक रहस्योद्घाटन में अंधविश्वास करने के लिए मनमाने ढंग से इच्छाशक्ति के प्रयोग की आवश्यकता नहीं थी । उसे मोक्ष प्राप्त करने के लिए किसी ऐतिहासिक भविष्यवक्ता की मध्यस्थता की आवश्यकता नहीं थी और ना ही किसी संगठित चर्च की सहायता की। सनातन धर्म ने अपने उपासक से आह्वान किया कि वह सर्वप्रथम स्वयं का अन्वेषण करें और पवित्र शास्त्रों में वर्णित सत्यों को स्वयं देखें । भविष्यद्वक्ता, चर्च और धर्म ग्रंथ सहायक हो सकते हैं लेकिन आत्म-अन्वेषण, आत्म शुद्धि और आत्म अतिक्रमण के विकल्प कभी नहीं हो सकते।
मैं अंत में वापस लौट आया था अपने आध्यात्मिक घर, जहां से मैं आत्मविस्मृति में भटक गया था। लेकिन यह वापसी कोई पूर्वज प्रत्यावर्ती नहीं था इसके विपरीत यह मेरी पुश्तैनी विरासत के लिए एक पुनर्जागृति थी जो अपनी विशालता पर अपना दावा करने के लिए मेरी प्रतीक्षा कर रही थी। यह सभी मानव जाति की विरासत भी थी जैसा कि कई समय और खण्ड के ऋषियों, संतो और मनीषियों ने सिद्ध किया है। यह अलग-अलग लोगों से अलग-अलग भाषाओं में बात करती थी। मुझसे इसने हिंदू आध्यात्मिकता और हिंदू संस्कृति की भाषा में उच्चतम स्तर पर बात की। मैं उसके आह्वान का विरोध नहीं कर सका। मैं हिंदू बन गया।