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Friday, March 31, 2023

मैं हिन्दू कैसे बना: सीताराम गोयल: अध्याय 6: श्री रामस्वरूप द्वारा बचाव

हम सीता राम गोयल जी की पुस्तक “मैं हिन्दू कैसे बना: How I Became Hindu” अपने सभी पाठकों के लिए हिंदी में प्रस्तुत कर रहे हैं. स्वर्गीय सीता राम गोयल जी स्वतंत्र भारत के उन अग्रणी बौद्धिकों एवं लेखकों में से एक थे,  जिनके कार्य एवं लेखन को वामपंथी अकादमी संस्थानों ने पूरी तरह से हाशिये पर धकेला. हम आम लोगों के लिए पुस्तकों/लेखों का खजाना उपलब्ध कराने के लिए VoiceOfDharma.org के आभारी हैं:

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मैं भारतीय साम्यवादी दल के दूसरे पार्टी सम्मेलन में उपस्थित था जो फरवरी 1928 में कोलकाता के मैदान में आयोजित किया गया था।  इस सम्मेलन से कुछ समय पहले ही ही बी.टी.रणदिवे ने पी.सी जोशी से सीपीआई के महासचिव पद लिया था।  रणदिवे की नियुक्ति, जैसा कि भारत में माना गया, सितंबर 1947 में स्टालिन द्वारा निर्धारित अपने कृपापात्र ज़दानोव के माध्यम से निर्धारित,अंतर्राष्ट्रीय साम्यवादी पद्धति को अपनाने की प्रक्रिया थी।  

ज़दानोव सोच सोवियत संघ के पूर्वी यूरोपीय के पिछलग्गुओं के व्यापक फैलाव और चेकोस्लोवाकिया के साम्यवादी अधिग्रहण का कारण बन गयी।  भारत,बर्मा,मलाया,इंडोनेशिया और फिलीपींस के साम्यवादी दलों ने हिंसक विद्रोह कर दिए।  चीन में गृहयुद्ध तेज हो गया था और इसके कारण 1949 में माओ की जीत हुई।  उत्तर कोरिया की साम्यवादी सेनाओं द्वारा दक्षिण कोरिया पर आक्रमण इस सोच की चरम पराकाष्ठा थी।  स्टालिन,ब्रिटिश सत्ता के प्रत्याहार और अमेरिकी सेना के विनियोजन द्वारा बनाए गए शून्य को भरने के लिए आतुर था।

सीपीआई के इस द्वितीय दल सम्मेलन में बड़े आकार के मंच को मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, स्टालिन, माओ और मार्शल टीटो के चित्रों से सजाया गया था।  कई पूर्वी यूरोपीय और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के प्रतिनिधि उपस्थित थे।  युगोस्लाव प्रतिनिधि को विशेष रूप से एक प्रसिद्ध योद्धा के रूप में मंच पर सबके सम्मुख प्रस्तुत किया गया था, जो अभी भी अपने कंधे में एक जर्मन गोली लिए घूम रहा था।  मुझे उनका नाम जगदीश जैसा लग रहा था, परन्तु मुझे बाद में यह पता चला कि वह कॉमरेड डेडियर थे।  एक के बाद एक वक्ताओं ने बहुत ही सशक्त भाषा में गर्जना की ओर लोगों से “उन पूंजीवादी दुष्टों को नर्क देने का आह्वान किया जिन्होंने अपनी आत्मा एंग्लो अमेरिकी साम्राज्यवादियों को बेच दी थी”।

मैं वास्तव में रोमांचित था और मैंने तुरंत दल में शामिल होने का मन बना लिया।  कुछ महीने पहले मैं एक और बंगाली साम्यवादी के काफी करीब आ गया था जो कोलकाता में पार्टी पदानुक्रम में काफी अच्छे पद पर स्थित थे।  वह मेरे बॉस के अच्छे दोस्त थे और मेरे भी दोस्त बन गए।  उनके पास भी एक अच्छा भंडारित पुस्तकालय था। अब मैंने उनसे संपर्क किया कि वे मुझे पार्टी मुख्यालय ले जाएं और मुझे पार्टी के सदस्य के रूप में नामांकित करें।  उन्होंने एक तारीख तय की जिस दिन मुझे उनके साथ क्रांति के साथ मुलाकात के लिए जाना था और मैं उस तारीख की बड़ी बेसब्री से इंतजार करने लगा जिस का अनुभव मैंने पहले शायद ही कभी किया हो।

लेकिन ईश्वर की इच्छा कुछ और ही थी।  ठीक उसी तारीख को बंगाल में साम्यवादी पार्टी पर प्रतिबंध लगा दिया गया। जिस घर में मैं रहता था उसके भूतल में एक दूरभाष था। मैंने यह नंबर अपने बंगाली दोस्त को दिया था कि अगर उसे कभी भी आपात स्थिति में मुझे फोन करने की जरूरत पड़े तो उस नंबर पर कर सकता है। उस दिन उसने मुझे फोन किया।  सुबह का समय था।  मुझे नहीं पता था कि पार्टी पर प्रतिबंध लगा दिया गया है।  उसने मुझे बहुत ही गंभीर स्वर में ये बड़ा समाचार दिया। मुझे उनकी सलाह थी की पार्टी कार्यालय या किसी भी फ्रंट संगठन के कार्यालय के पास कहीं भी ना जाऊँ और सार्वजनिक रूप से साम्यवादन का दावा करना बंद कर दूँ।  कुछ दिनों बाद सट्टा बाजार के मेरे मारवाड़ी मित्र ने मुझे यह सुझाव दिया कि चूंकि मेरे घर पर पुलिस को संदेह नहीं था इसलिए इसका उपयोग राजस्थान के साम्यवादी नेता के ठहरने के लिए किया जा सकता है जो एक पखवाड़े के बाद कोलकाता आने वाले थे।  मैंने तुरंत उन वयोवृद्ध की यात्रा का गर्मजोशी से इंतज़ाम किया।

लेकिन नियति ने मानो मुझे उस सम्मान से भी वंचित रखने को ठान लिया था।  मेरे दोस्त रामस्वरूप अचानक वहाँ आ गए और उन्होंने मेरे साथ कुछ समय साथ रहने का इरादा व्यक्त किया।  यह उनकी कोलकाता की पहली यात्रा थी।  मैं बहुत खुश था क्योंकि वह पूरी दुनिया में मेरे सबसे करीबी और प्यारे दोस्त थे।  मुझे नहीं पता था कि रामस्वरूप अब तक साम्यवाद को एक बहुत बड़ी बुराई मानने लगे थे जो कि उनके अनुसार,मानव जाति के भविष्य को निगल जाने के खतरे की सूचक थी।  इस निर्णायक मोड़ को इंगित करने के लिए उनके पत्रों में कुछ भी नहीं था। उन्होंने मुझे केवल चेतावनी दी थी कि मैं इतना बुद्धिमान हूं कि लंबे समय तक साम्यवादी नहीं रह सकता।  लेकिन उन्होंने यह भी स्वीकार किया था कि मैं साम्यवादी नहीं बनने के लिए भी बहुत बुद्धिमान था।  मैंने उनकी चेतावनी को नजरअंदाज़ कर दिया था और उनकी रियायत को ज़्यादा गंभीरता से ले लिया था।

साम्यवाद के बारे में रामस्वरूप के निष्कर्ष उनके आगमन के कुछ दिनों बाद नाटकीय रूप से मेरे सामने प्रकट हुए जब उनके और मेरे मारवाड़ी मित्र के बीच कुछ टकराव हुआ जो विशेष रूप से एक ऐसे व्यक्ति से मिलने आए थे जिसके बारे में मैंने हमेशा बहुत गर्मजोशी से बात की थी।  मैं जान कर दुखी था कि मेरे दो अच्छे दोस्तों के बीच दोस्ती होने की बहुत कम संभावना थी।

जब मैं अपने मारवाड़ी मित्र को छोड़ने नीचे गया तो उन्होंने मुझसे कहा कि वे राजस्थान के साम्यवादी नेता को उस छत के नीचे नहीं रहने देंगे जहाँ ऐसे अवांछनीय राजनीतिक साख वाले व्यक्ति रहते हैं।  मैं दंग रह गया।  मैं रामस्वरूप को कभी भी एक अवांछनीय व्यक्ति के रूप में नहीं सोच सकता था।  लेकिन मुझे नहीं पता था कि इस तर्क का विरोध कैसे किया जाए।  

ऊपर अपने कमरे में लौटकर मैंने रामस्वरूप से अपने मारवाड़ी मित्र के बारे में उनकी राय पूछी ।  वह मुस्कुराए और बोले -” वह काफी मोटी बुद्धि वाला है।  ऐसा लगता है कि कोई भी तर्क उसकी खोपड़ी में प्रवेश ही नहीं कर सकता”।  साम्यवाद को त्यागने के तुरंत बाद इस मारवाड़ी मित्र के साथ मेरी दोस्ती टूट गई और हम एक दूसरे से पूरी तरह से अजनबी हो गए।

इसके बाद मैंने यह पता लगाने की कोशिश की कि क्या रामस्वरूप मेरे बंगाली दोस्त के साथ ताल-मेलबैठाने में सफल होंगे।  मैंने उनसे भी रामस्वरूप के बारे में चर्चा की थी और उन्हें रामस्वरूप की लिखी किताब -” लैट अस हैव रायट्स: द फिलॉसफी ऑफ दोस़ हू वॉन्ट टू डिवाइड इंडिया बाय स्टीर्ट रायट्स “।  एक दिन इस दोस्त के घर पर बंगाली आतिथ्य की सच्ची परंपरा से हमें मनोरंजित किया गया। लेकिन रामस्वरूप और हमारे मेजबान के बीच शायद ही कोई संवाद हुआ हो।  

रामस्वरूप बस मेरे मित्र को नई पार्टी नारे के बारे में विस्तार से व्याख्या करते ही सुनते रहे।  मैं रामस्वरूप के सुविचारित मौन से कुतूहल में था।  जैसे ही हम उनके घर से निकले मैंने अपने दोस्त के बारे में उनकी राय पूछी।  रामस्वरूप ने कहा – “साम्यवाद के प्रति उनकी प्रतिबद्धता एक रोग की स्थिति है।  इसे सुलझाने की जरूरत है”।  रामस्वरूप के कोलकाता आने के कुछ ही दिनों के भीतर यह मेरी दूसरी निराशा थी।

मेरे बंगाली मित्र को कुछ सप्ताह बाद उत्तर बंगाल के एक शिविर में गिरफ्तार कर लिया गया और हवालात में डाल दिया गया।  1949 में जब वे वापस आए तब तक मैं ने न केवल साम्यवाद का परित्याग कर दिया था बल्कि कोलकाता के कुछ अखबारों में इसके खिलाफ  लिखा भी था।  वह एक दिन हमारे कार्यालय में मुझसे मिलने आए और कहा कि उन्होंने मेरे कुछ मजेदार बयान पढ़े हैं ।  मैंने उनसे कहा कि मैंने जो कुछ कहा था उसके बारे में मैं बहुत गंभीर था और शायद हम किसी दिन मिलें तो बैठकर इसकी कुछ सख़्त आलोचना कर सकें। उन्होंने तर्क के लिए कोई उत्सुकता नहीं दिखाई ।  वह एक और बहुत ही मधुर और स्नेहिल मित्रता का अंत था।  बाद के दिनों में हमारी इत्तेफाकन मुलाकातें हमेशा निःस्नेह और उदासीन रहीं।

अंततः मैंने रामस्वरूप और मेरे बॉस के बीच एक बैठक की व्यवस्था की।  उन दोनों ने आपस में बातचीत की पर उस एक विषय से परहेज किया जिस पर मैं चाहता था कि वह चर्चा करें। चर्चा कुछ दिनों बाद हुई जब मेरे बॉस दफ्तर में मेरी सीट के पास से गुजर रहे थे और उन्होंने देखा कि रामस्वरूप मेरे सामने बैठे हैं।  ये चर्चा अगले बड़े विश्व मंदी और विश्व पूंजीवादी व्यवस्था के विघटन के बारे में थी,जिसके बारे में हम साम्यवादियों को संदेह था कि वह बहुत निकट भविष्य में होने वाला है। कोई समझौता नहीं हो सकता था क्योंकि रामस्वरूप को विश्वास था कि पूंजीपतियों द्वारा,जिन्होंने अपनी अर्थव्यवस्था पर काफी अच्छी पकड़ हासिल कर ली थी,एक और मंदी नहीं होने दिया जाएगा।  मेरे बॉस ने उन कम्पनियों के आंकड़े दिए जो उस वर्ष दिवालिया हो गई थीं।  रामस्वरूप ने उनसे,अपने लिए और हमारे लिए भी ऐसी नई कम्पनियों के आंकड़े निकालने का भी अनुरोध किया जो उसी विशिष्ट अवधि के दौरान शुरू हुई थीं। उनका तर्क था कि एक जीवित अर्थव्यवस्था में कुछ कम्पनियाँ बीमार पड़ कर बंद हो रही थीं तो विपरीत प्रवाह होने से भी कोई फर्क नहीं पड़ता था।  इसने संपूर्ण तर्क के लिए एक नया दृष्टिकोण पुनः स्थापित किया।  मेरे बॉस ने उस दिन और कोई टिप्पणी नहीं की।  मैंने अपने बॉस के बारे में रामस्वरूप की राय पूछी। उन्होंने कहा-” वह बहुत बेहतर हैं।  वह बहुत सारे तथ्यों और आंकड़ों के साथ बहस करते हैं ना कि पार्टी के नारों से”।

कुछ महीने बीत गए।  उन महीनों के दौरान रामस्वरूप में मुझे साम्यवादी से साम्यवाद विरोधी में बदल दिया।  मुझे कोलकाता से कई हफ्तों की व्यापारिक यात्रा पर जाना था।  रामस्वरूप कोलकाता में रुके थे लेकिन जब तक मैं लौटा तब तक वे जा चुके थे। जब मैं अपने बॉस  से मिला तो उनके पहले शब्द थे-“तुम्हारा दोस्त एक अद्भुत व्यक्ति है।  हमने एक साथ बहुत समय बिताया। साम्यवाद के बारे में उनके विचारों का महत्व अब मैं समझ सकता हूँ। ” वे दोनों तब से बहुत अच्छे दोस्त बन गए।

जब मैं अपने तीन सबसे अच्छे साम्यवादी मित्रों को रामस्वरूप के खिलाफ खड़ा करने में विफल रहा तो, मुझे उनका अकेले ही सामना करना पड़ा।  चर्चा कई महीनों तक चली।  ज़्यादातर मैंने दल के नारे ही दोहराए, कभी-कभी तो बहुत आवेगपूर्ण तरीके से। रामस्वरूप ने मुस्कुराते हुए उन्हें खारिज कर दिया।  एक दिन झुंझलाहट में मैंने एक ऊृध्र्ववर्ती रवैया अपनाया और कहा – “हमें किसी निष्कर्ष पर पहुंचना मुश्किल होता है क्योंकि मेरी दार्शनिक पृष्ठभूमि है जबकि आप केवल आर्थिक,सामाजिक और राजनीतिक परिसर से आगे बढ़ते हैं। “

रामस्वरूप ने पूछा कि दर्शन से मेरा क्या मतलब है अब मैंने अपने दिमाग में जो सूची तैयार की थी उसे मैंने सुना दिया- लॉक,बर्कले, ह्यूम, डेस्कार्टेस, स्पिनोज़ा, लिबनिट्ज़, कांट, हेगेल, शोपेन्हावर इत्यादि। रामस्वरूप ने मुझे बताया कि उन्होंने कभी ना कभी उन सभी का अध्ययन किया था लेकिन उन्हें वे सभी अप्रसांगिक और बेकार लगे। मैं हैरान भी था और दुखी भी।  रामस्वरूप ने समझाया -“मान लीजिए कि कोई इस या किसी और दार्शनिक प्रणाली को जानता है।  तो क्या यह किसी भी तरह से एक इंसान को बेहतर बनाता है? यह प्रणालियां केवल प्रमस्तिष्क क्रिया हैं और जीवन के व्यवहारिक उद्देश्यों के लिए बिल्कुल नहीं हैं।  “सेरेब्रेशन” शब्द मेरे दिमाग में अटक गया और इसके बाद मेरे लिए किसी भी अमूर्त दर्शन को पढ़ना असंभव हो गया। मुझे उस समय तक पाश्चात्य तत्वमीमांसा और ज्ञान-पद्धतिशास्त्र पढ़ना बहुत पसंद था।

एक दिन रामस्वरूप ने मुझे एस्प्लेनेड में अमेरिकी सूचना पुस्तकालय में जाने और सोवियत रूस में डेविड डाल्लिन के दासश्रम में केवल दस्तावेज ही  देखने के लिए कहा। मुझे इस पुस्तकालय के आसपास भी जाने में बहुत हिचकिचाहट थी क्योंकि लंबे समय से मैं इसे मुखर साम्राज्यवादी अधिप्रचार के रूप में मानता था ।  यह ठीक उसी तरह का अवरोध था जैसा मैंने श्रीमद्भागवत को पढ़ने में पहले अनुभव किया था।

लेकिन मेरी जिज्ञासा जाग गई थी।  मैं एक चोर की तरह पुस्तकालय में गया और इस पुस्तक को पढ़ा।  दस्तावेज़ीकरण, मुख्य रूप से पूरे सोवियत संघ में स्थित अस्वाभाविक श्रम शिविरों के कैदियों को जारी किए गए पहचान पत्रों के फोटो स्टेट इत्यादि थे जो कि सुविस्तृत और साथ ही बहुत सूचनापूर्ण थे।  मैं पूरी तरह हिल गया था।  मुझे अचानक याद आया कि मास्को साप्ताहिक न्यू टाइम्स के अनुसार, मोलोटोव ने संयुक्त राष्ट्र में जबरन मज़दूरी के विषय पर हुई एक बहस में सोवियत संघ में सुधारात्मक श्रमशिविरों के अस्तित्व को स्वीकार किया था।

मैंने अपने संदेह का उल्लेख अपने बॉस से किया।  उन्होंने मुस्कुराते हुए मुझे विक्टर क्रावचेन्कोज़ की “आई चोज़ फ्रीडम” पढ़ने को कहा जो कुछ समय पहले ही प्रकाशित हुई थी।  मुझे अब याद आया कि मेरे बॉस ने कुछ महीने पहले मुझे इस पुस्तक की एक प्रति उधार देने की पेशकश की थी और मैंने उसे इस अपमानजनक टिप्पणी के साथ ठुकरा दिया था कि मैं साम्राज्यवादी प्रचार साहित्य पर अपना समय बर्बाद नहीं करना चाहता।  मैंने अब उनसे ये किताब उधार ली और अविरल पढ़ डाली।  

लास्की के साम्यवाद को पढ़ने के पूर्व अनुभव को दोहराया गया। साम्यवाद अब मेरे चारों ओर ध्वंसावशेष स्थिति में था।  मैं अब समझ सकता था कि मेरे बॉस जो पहले एक उत्साही पार्टी लाइनर थे, ने फरवरी 1948 में अपनाए गए नए पार्टी नारे के लिए कोई उत्साह क्यों नहीं दिखाया।  क्रैवचेन्कोज़ की पुस्तक पढ़ने से सोवियत संघ के लिए उनका उत्साह काफी ठंडा हो गया था।  जब मैंने उनसे अगले दिन पूछा तो उन्होंने ये स्वीकार भी किया।

क्रैवचेन्को, सोवियत संघ में एक प्रख्यात धातु कर्म इंजीनियर,जिन्हें प्राचीन ज़मीन पट्टा कार्यक्रम के तहत सैन्य आपूर्ति की देखभाल के लिए द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान वाशिंगटन भेजा गया था,कुछ समय बाद पश्चिम देशों की ओर चले गए थे और उन्होंने इस पुस्तक को सोवियत संघ के बारे में सच्चाई के अपने इच्छापत्र के रूप में लिखा था।  पुस्तक बहुत सफल हुई थी क्योंकि यह बहुत विवादास्पद थी और दुनिया की कई भाषाओं में, कई संस्करण में द्रुत अनुक्रमण में प्रकाशित की गई थी।  मुझे खुद इसका हिंदी में अनुवाद और प्रकाशन करना था।  साम्यवादी प्रेस ने पुस्तक के साथ-साथ इसके लेखक की भी बहुत कठोर भाषा में निंदा की।  जिस समय मैंने पहली बार इसे पढ़ा उसी समय क्रैवचेन्को पेरिस से प्रकाशित एक प्रसिद्ध फ्रांसीसी पत्रिका के खिलाफ लंबे समय तक मानहानि का मुकदमा लड़ रहे थे।  पत्रिका ने उन्हें शराबी, झूठा, देशद्रोही आदि बताया था।  मैनचेस्टर गार्जियन मामले की कार्यवाही को दिन-ब-दिन बड़े विस्तार से प्रकाशित कर रहा था।  इस अंग्रेजी दैनिक का एक एयर मेल संस्करण कोलकाता में ब्रिटिश सूचना सेवा पुस्तकालय में नियमित रूप से प्राप्त होता था।

मैं मैनचेस्टर गार्जियन में क्रैवचेन्को मामले पर नज़र रख रहा था।  क्रैवचेन्को ने जो कहा था उसकी सच्चाई के बारे में मेरे दिमाग में अगर कोई भी संदेह था तो वो इस मुकदमे से दूर हो गया था।  पेरिस में सोवियत दूतावास इस दलील पर फ्रांसीसी पत्रिका द्वारा बचाव में भाग ले रहा था कि इसमें उनके देश की प्रतिष्ठा का सवाल था।  दूतावास ने सोवियत संघ के कई गवाहों को पेरिस की अदालत में गवाही देने के लिये उपस्थित किया।  अधिकांश प्रसिद्ध साम्यवादियों के साथ-साथ पूरे पश्चिमी यूरोप के साथी यात्रियों को भी क्रैवचेन्को के खिलाफ सूचीबद्ध किया गया था।  मैं इस नाटक को देखकर चकित था जिसमें क्रैवचेन्को ने अपनी पुस्तक में जो कुछ लिखा था उसके बचाव में उन्होंने आधिकारिक सोवियत प्रकाशनों से प्राप्त तथ्यों और आंकड़ों को ही शामिल किया था लेकिन साम्यवादी बड़ी हस्तियों के एक पूरे समूह के पास उनको नियत साम्यवादी गालियाँ देने से बेहतर कुछ भी नहीं था।

एक प्रकरण बहुत मजेदार था।  यह साम्यवादी तर्क था कि क्रैवचेन्को एक प्रख्यात धातुविग्यान यंत्रवेत्ता नहीं थे जैसा कि उन्होंने अपनी पुस्तक में दावा किया था ।  क्रैवचेन्को ने प्रावदा की एक प्रतिकृति तैयार की जिसमें मॉलोटोव ने व्लादिवोस्तोक में नए सोवियत धातु उद्योग कारखाने के प्रभारी के रूप में सबसे प्रतिष्ठित धातु विग्यान यंत्रवेत्ता में से एक के रूप में उन्हें नाम से वर्णित किया था।  

अगले दिन क्रैवचेन्को के लेनिनग्राड विश्वविद्यालय के अभियांत्रिकी के पुराने प्रोफेसर अदालत में पेश हुए और गवाही दी कि क्रैवचेन्को वास्तव में एक शानदार धातु कर्म यंत्रवेत्ता हैं और उनके सर्वश्रेष्ठ छात्रों में से एक हैं।  जर्मन आक्रमण के बाद प्रोफेसर ने लेनिनग्राड छोड़ दिया था और सोवियत सरकार के साथ युद्ध के बाद के समझौते को ध्यान में रखते हुए पश्चिमी शक्तियों द्वारा प्रत्यावर्तन से बचने के लिए पश्चिमी यूरोप में कहीं छिपे थे।

एक और महान पुस्तक जो मुझे तुरंत मिली वह थी प्रसिद्ध फ्रांसीसी समाजवादी सुजै़न लबिन द्वारा लिखित  “स्टालिन का रूस”।  उसने सोवियत संघ के सभी पहलुओं का बहुत विस्तार से वर्णन किया था और सोवियत सूत्रों से अपने संस्करण को बहुत सावधानी से प्रलेखित किया था।  यह एक रौंगटे खड़े कर देने वाला वृतांत था। अब मुझे अपने आप पर शर्म आ रही थी कि उन्मत्त साम्यवादी बनने से पहले मैंने सोवियत संघ में जीवन का अध्ययन करने की परवाह क्यों नहीं की थी?

रामस्वरूप की गूढ़ टिप्पणी थी “सोवियत संघ के बारे में तथ्य हमेशा से ज्ञात रहे हैं ज्यादातर सोवियत स्तोत्रों द्वारा ही।  उन तथ्यों के बारे में साम्यवादियों और साम्यवाद के विरोध करने वालों के बीच बहुत अंतर नहीं है।  फर्क पड़ता है तो इस बात से कि आप उन तथ्यों कि व्याख्या कैसे करते हैं। और आपकी व्याख्या फिर से एक ऐसा मामला है जो आप के मूल्यों की भावना और उस संस्कृति पर निर्भर करता है जिससे वह मूल्य प्राप्त होते हैं। “

यह आत्म निरीक्षण के लिए एक आह्वान था साथ ही मेरे संपूर्ण दार्शनिक दृष्टिकोण का पूर्व-निरीक्षण करने का भी,जो अब तक विकसित हुआ था।  मैंने मार्क्स पर दूसरी नजर डाली जो मुझे साम्यवाद की ओर ले गया था।  मैंने पाया कि लेनिन और स्टालिन बिल्कुल भी मार्क्सवादी नहीं थे।  

उन्होंने अपने विषय/प्रकरण को तैयार करने के लिए केवल मार्क्सवादी भाषा का इस्तेमाल किया था,जो काफी अलग था।  उन्होंने क्लॉज़विट्ज़ के इस कथन को उलट दिया था कि युद्ध अन्य तरीकों से राजनीति थी,यह पढ़ने के लिये राजनीति अन्य तरीकों से युद्ध थी।  दूसरी ओर मार्क्स एक गंभीर समाजशास्त्री और अर्थशास्त्री थे।  लेकिन, पिछले विश्लेषण में,उनकी विचार प्रणाली पश्चिमी पूंजीवाद के समान परिसर से ली गई थी।  यह परिसर एक भौतिकवादी शब्द दृष्टिकोण, एक विकासवादी समाजशास्त्र, एक सुखवादी मनोविज्ञान, एक उपयोगितावादी नैतिकता और एक उपभोक्तावादी अर्थव्यवस्था थे। आखिरकार सोवियत संघ कल वह बनना चाहता था जो आज संयुक्त राज्य अमेरिका था।  दोनों ही मामलों में लक्ष्य एक ही था,बहुतायत की अर्थव्यवस्था।  सोवियत संघ ने राज्य पूंजीवाद और व्यवस्थित आतंक का रास्ता अपनाया था जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका ने इसे बाजार की ताकतों के निर्मम संचालन पर छोड़ दिया था।  क्या मैं उस लक्ष्य को सर्वोच्च माननीय अभीप्सा/महत्वाकांक्षा के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार था? यदि नहीं, तो वह कौन सा लक्ष्य था जिसे एक बेहतर विकल्प के रूप में रखा जा सकता था?

मेरे पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था।  मैं अब एक दार्शनिक शून्य के बीच था जो कई वर्षों तक चलने वाला था।  मेरे विचार से साम्यवाद को स्वीकार करने के साथ जो खोज समाप्त हुई थी वह एक बार फिर जारी है।

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