आज देश में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित की जयंती मनाई जा रही है। सोशल मीडिया के आने के साथ ही पंडित जवाहर लाल नेहरू के जीवन और कार्यों पर अब प्रश्न उठने लगे हैं। ऐसा नहीं था कि पहले नहीं उठते थे, परन्तु पहले संभवतया इतनी मुखरता नहीं थी। अब हिन्दू प्रश्न उठाने लगे हैं। पहले जहाँ यह दिन बाल-दिवस के रूप में मनाया जाता था, अब लोग प्रश्न करने लगे हैं कि इसी दिन बाल दिवस क्यों?
परन्तु इसी बीच कई बातें रह जाती हैं, जैसे उनके द्वारा संस्कृत निष्ठ हिंदी का विरोध किया जाना और हिंदी लेखकों को पश्चिमी साहित्य पढ़ने के लिए प्रेरित करना एवं साथ ही यूरोप की भाषाओं के पुराने साहित्य और नवीन विचारों का हिंदी में अनुवाद प्रस्तुत करना। और साथ ही उनके वामपंथी रूप पर भी चर्चा नहीं होती है। जो सबसे अधिक आवश्यक है।
उन्होंने हिन्दू और संस्कृत को प्रोत्साहित करने वाले हिंदी साहित्य को पिछड़ा कह दिया था. और अपनी पुस्तक “मेरी कहानी” में उन्होंने कहा है कि
“आजकल हिंदी में जो क्लिष्ट और अलंकारिक भाषा इस्तेमाल की जाती है, मैंने उसकी कुछ कड़ी आलोचना की. उसमें कठिन बनावटी और पुराणी पीढी के संस्कृत शब्दों की भरमार रहती है. मैंने यह कहने का साहस किया कि कोषों के काम में आने वाली दरबारी भाषा भाषा छोड़ देनी चाहिए. और हिन्दू के लेखकों को यह कोशिश करनी चाहिए, कि वह हिन्दुस्तान की आम जनता के लिए लिखें और ऐसी भाषा में लिखें जिसे लोग समझ सकें.”
पंडित जवाहरलाल नेहरू का यह कथन स्वयं में संस्कृत का तो विरोध है ही, परन्तु प्रगतिशील साहित्यकारों ने इसे हिन्दू विरोध एक बड़े हथियार के रूप में प्रयोग किया क्योंकि इसी पुस्तक में इसी पृष्ठ पर आगे वह कहते हैं कि यूरोप साहित्य का अनुवाद अधिक उपलब्ध होना चाहिए. (जवाहरलाल नेहरु : ‘मेरी कहानी’, ग्यारहवां संस्करण, सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली, 1965, पृ. 635-636)
डिस्कवरी ऑफ इंडिया में उनके द्वारा कई बातें ऐसी हैं, जिन पर बहस होनी चाहिए और हो भी रही है। उन्होंने स्वयं कहा है कि उन्होंने भारत को पश्चिम की दृष्टि से पहले देखा और फिर जानने का प्रयास किया। इतना ही नहीं उन्होंने डिस्कवरी ऑफ इंडिया में महमूद गजनवी को भी महिमा मंडित किया है। और उन्होंने उसे मात्र योद्धा बताकर इस्लाम की कट्टरता को क्लीनचिट दे दी है। उन्होंने अपनी पुस्तक में यह प्रमाणित कर दिया है कि महमूद गजनवी केवल एक योद्धा था, जो भारत में युद्ध जीतने के लिए आया था, और उसने जो भी मंदिर तोड़े, उनमें केवल युद्ध ही कारण था, उसका मजहब नहीं!
उन्होंने लिखा है कि महमूद गजनवी ने अपने मजहब का नाम केवल अपनी विजयों के लिए प्रयोग किया। और भारत उसके लिए एक ऐसा स्थान था जहाँ से वह अपने शहर में बहुत सा खजाना ले जा सकता था।
HINDU TEMPLES, WHAT HAPPENED TO THEM ? में सीता राम गोयल लिखते हैं कि पंडित नेहरू प्रोफ़ेसर हबीब से भी कहीं आगे निकल गए हैं। प्रोफ़ेसर हबीब ने यह लिखा है कि कैसे महमूद गजनवी ने मथुरा के मंदिर जलाने के आदेश दे दिए थे और वह भी उनके स्थापत्य की प्रशंसा करने के बाद। मगर जवाहर लाल नेहरू ने यह वर्णन किया कि कैसे महमूद गजनवी ने यह बताया कि महमूद गजनवी ने मथुरा के मंदिरों की प्रशंसा की। मगर वह यह छिपा गए कि उसने उन मंदिरों को नष्ट किया था। और इस प्रकार वह व्यक्ति जो हिन्दू मंदिरों को नष्ट करने वाला था, उसे स्थापत्य का सबसे बड़ा प्रशंसक बनाकर प्रस्तुत कर दिया गया।
और यह विवरण डिस्कवरी ऑफ इंडिया में भी पृष्ठ 235 पर उपस्थित है, जिसमें पंडित जवाहर लाल नेहरू यह लिख रहे हैं कि महमूद गजनवी दिल्ली के पास मथुरा शहर के मंदिरों से बहुत प्रभावित था। इस विषय में वह लिखते हैं कि मथुरा में हज़ारों मूर्तियाँ और मन्दिर थे और इन्हें बनाने में लाखों दीनार खर्च हुए होंगे, ऐसा कोई भी निर्माण पिछले दो सौ सालों में नहीं हुआ होगा।”
मगर पंडित जवाहर लाल नेहरू बहुत ही सफाई से यह छिपा ले जाते हैं कि महमूद ने उसके बाद सभी मंदिरों में आग लगा दी थी।
और इतना ही नहीं जिस महमूद गजनवी ने सोमनाथ का मंदिर तोड़कर अपमानित किया था, उसे उन्होंने अपने देश में सांस्कृतिक गतिविधियों का संचालन करने वाला बता दिया था और उन्होंने महमूद गजनवी की प्रशंसा करते हुए कहा था कि चूंकि युद्ध के बीच महमूद गजनवी को अपने शहर में सांस्कृतिक गतिविधियों को करने का शौक था, यही कारण है कि कई ख्यात व्यक्ति उसकी सेवा में थे।
इसके आगे हिन्दुओं को नीचा दिखाने के लिए संभवतया डिस्कवरी ऑफ इंडिया में अलबरूनी की प्रशंसा में पंडित जवाहर लाल नेहरू इतना डूब गए हैं कि वह अपने भारतीयों के स्वभाव को भी हमलावर गजनवी के साथ आए हुए अलबरूनी की दृष्टि से देखते हुए लिखते हैं कि “भारतीयों के विषय में अलबरूनी का कहना है कि वह ‘अभिमानी, मूर्खतापूर्ण बेकार और खुद में संतुष्ट एवं बेवकूफ व्यक्ति होते हैं और उनका विश्वास है कि उनके देश जैसा कोई देश नहीं है, उनके राष्ट्र जैसा कोई राष्ट्र नहीं है, उनके राजा जैसा कोई राजा नहीं है और उनके विज्ञान जैसा कोई विज्ञान नहीं है।’ अलबरूनी के वक्तव्य को सही ठहराते हुए वह लिखते हैं कि “यह शायद लोगों के स्वाभाव का सबसे सही विवरण है,”
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने प्रगतिशीलता के नाम पर वामपंथी साहित्य को भी प्रोत्साहित किया। पंडित जवाहरलाल नेहरू के वामपंथी पक्ष पर लेखक संदीप देव ने अपनी पुस्तक कहानी कम्युनिस्टों की में लिखा है। अध्याय दो में सीताराम गोयल की पुस्तक जेनिसिस एंड ग्रोथ ऑफ नेहरुइज्म’ के हवाले से लिखा गया है कि कोमिन्टर्न नेटवर्क में पंडित नेहरू वर्ष 1924 -25 में एम।एन। राय की पहली पत्नी एवेलिन राय के मार्फत शामिल हुए थे। एम. एन. राय ने पेरिस में फ्रांस के मशहूर कम्युनिस्ट हेनरी बारबॉस के साथ मिलकर comit-pro-Hindou नामक संगठन की रचना की थी और यह कोमिन्टर्न नेटवर्क का हिस्सा था।
सीताराम गोयल जी के अनुसार इसकी पूरी फंडिंग कोमिंटर्स की थी। और उसका मकसद भारत में कम्युनिस्ट साजिशों को अंजाम देना था। और सीताराम गोयल लिखते हैं कि पंडित जवाहर लाल नेहरू अपनी पत्नी की बीमारी के बहाने दुनिया भर में चल रहे कम्युनिस्ट आन्दोलनों का हिस्सा बनने के लिए यूरोप गए थे।
वह लिखते हैं कि ऐसा स्वयं पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में स्वीकार करते हुए लिखा है कि जिस विचार के लिए मैं भारत से बाहर निकला था, वहां पहुंचकर मैंने उसका स्वागत किया। मेरा मन अँधेरे से घिरा था, मुझे कोई भी स्पष्ट राह नहीं सूझ रही थी और फिर मैंने सोचा कि क्या पता जब मैं भारत से दूर हो जाऊं तो मैं उस राह को बेहतर समझ सकूं। जिस पर मुझे चलना है!”
पाठकों को बता दें कि कोमिन्टर्न नेटवर्क की स्थापना लेनिन ने की थी। और इसकी स्थापना पूरे विश्व में कम्युनिस्ट शासन स्थापित करने के लिए की गयी थी। यह कम्युनिस्ट पार्टियों का अंतर्राष्ट्रीय संगठन था, जिसे थर्ड इंटरनेश्नल भी कहा जाता था, ताकि सोवियत संघ के अतिरिक्त अन्य देशों में भी क्रान्ति की जा सके।
और भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु इसी नेटवर्क के एक बहुत महत्वपूर्ण व्यक्ति रहे एम एन राय से भेंट के बाद लिखते हैं कि “जिन थोड़े से हिन्दुस्तानियों से मैं यूरोप में मिला, प्राय: किसी ने भी मेरे मन पर किसी प्रकार का अच्छा प्रभाव उत्पन्न नहीं किया। मुझे बुद्धि से प्रभावित करने वाले केवल दो ही लोग मिले हैं। एक बी चटोपाध्याय और दूसरे एम एन राय।”
और सबसे मजे की बात यह है कि यह दोनों ही वामपंथी थे। अर्थात पंडित जवाहर लाल नेहरु के विचार वर्ष 1927 से ही वामपंथी होने लगे थे, एवं यही नहीं वह कोमिन्टर्न द्वारा फरवरी 1927 में ब्रुसेल्स में आयोजित सम्मलेन में भी कांग्रेस की ओर से आधिकारिक रूप से सम्मिलित हुए थे। (कहानी कम्युनिस्टों की-पृष्ठ 97)
आज जब पंडित जवाहर लाल नेहरु की जयन्ती मनाई जाएगी, तो अब यह प्रश्न उठने ही चाहिए कि जब भारत को अंग्रेजों की जकड से छूटने के बाद अपने मूल स्वरुप में, जाने की ओर कदम बढ़ाने चाहिए थे, तो सत्ता में ऐसे लोग बैठे थे, जो मन से वह भारतीय नहीं थे, जिसकी आस हिन्दू जनमानस कर रहा था। वह ऐसे हिन्दू नहीं थे, जिनका गौरव बोध संस्कृत से जुड़ा हो, जिनके हृदय में सोमनाथ का मंदिर टूटे जाने की पीड़ा हो, और जिनके हृदय में महमूद गजनवी जैसों के प्रति आक्रोश हो!
बल्कि ऐसे व्यक्ति के हाथ में सत्ता गयी जिसने जानबूझकर हिन्दुओं के सबसे बड़े खलनायक को नायक बनाकर प्रस्तुत कर दिया।
Nice article! I always mention that Mr JL Nehru never deserved title Pandit. A per shastras”vidya-vinaya-sampanne
brahmane gavi hastini suni caiva sva-pake ca panditah sama-darsinah”. He never qualifies the above mentioned,though. some falsely claim him a Pandit.