मैकाले ने जानते बूझते हुए ही एक ऐसी शिक्षा प्रणाली एवं पाठ्यसामग्री हिन्दू बच्चों के लिए क्रियान्वित की, जिससे वह अपनी जड़ों से पूरी तरह से दूर हो जाएं और पूरी तरह से उस मानसिकता के वश में हो जाएं जो उय्न्हें मानसिक स्लेवरी की ओर लेकर जाती है जो उन्हें गुलाम बनाती है
हमारे बच्चों के लिए जो कहानियाँ होती हैं, वह कहानियाँ भी बिना हिन्दू मूल्यों के होती है यहाँ तक कि वर्णमाला को भी सेक्युलर बताते हुए अब तो ग से गणेश के स्थान पर ग से गमला या ग से गधा पढ़ाया जाता है यद्यपि समय-समय पर इसका विरोध भी होता आया है हमने पहले अपने पाठकों को वैद्य यशोदा देवी के विषय में बताया था कि कैसे उन्हें विस्मृत किया गया, जिन्होनें स्त्री विषयक कई पुस्तकों की रचना की थी
उन्होंने एक बहुत ही अच्छी पुस्तक लिखी है, जिसका नाम है गृहिणी कर्तव्यशास्त्र अर्थात पाकशास्त्र इस पुस्तक में उन्होंने यह विस्तार से लिखा है कि किस भोज्य पदार्थ की प्रवृत्ति क्या होती है और किस भोज्य पदार्थ को किस समय खाने से क्या परिणाम होते हैं?
कौन सा पदार्थ किसके साथ खाना चाहिए और किसके साथ नहीं, यह सब बताया गया है परन्तु दुर्भाग्य ही बात है कि रसोई में जाने को पिछड़ापन बताया गया और इसके बहाने एक ऐसा उद्योग खड़ा हुआ, जिसे हम फेमिनिज्म कहते हैं, और जो समाज के लिए कैंसर के समान है जैसे कैंसर को होने से रोकने के लिए स्वस्थ जीवन शैली आवश्यक है, तो वैसे ही फेमिनिज्म रूपी कैंसर के लिए आवश्यक है कि पाठ्यपुस्तकों में स्वस्थ कंटेट आए!
परन्तु वह स्वस्थ कंटेंट कहाँ से आएगा क्योंकि आयुर्वेद जैसे विषय तो पिछड़े मान लिए गए हैं
आइये जानते हैं कि यशोदा देवी ने अपनी उस पुस्तक में, जो पूर्णतया आयुर्वेद एवं खाद्य पदार्थों की प्रवृत्ति पर लिखी थी, क्या लिखा है:
उन्होंने लिखा कि
“ये विषय कन्याओं को आरम्भ से ही पढाए जाने चाहिए पाठशालाओं में कौव्वा, चिड़िया, गधा, उल्लू, गीदड़ आदि की कहानियां रटाई जाती हैं, जिनसे कन्याओं की बुद्धि भी उन्हीं पशु पक्षियों की भांति हो जाती है यह निश्चय बात है कि जिस प्रकार की शिक्षा मिलेगी बुद्धि भी वैसी ही होगी
हम देखते हैं कि जब से रसोई और घर के कामों को गुलामी मान लिया गया, तभी से मात्र स्वास्थ्य का सर्वनाश नहीं हुआ है, बल्कि भयंकर दुष्परिणाम हुए हैं। स्त्रियों को, और मुझे भी सहज यह ज्ञान नहीं है कि कौन सी खाद्य सामग्री की क्या प्रवृत्ति है और किसके साथ खाने से क्या लाभ देगा और क्या नुकसान करेगा?
क्योंकि फेमिनिज्म ने हमें रसोई और घर के उन साधारण कार्यों से दूर कर दिया, जो सहज प्रकृति थी हमे हिन्दी साहित्य ने यह समझाया कि रसोई में जाना तो सबसे पिछड़ा काम है, जबकि हमारी रसोई आज भी कई छोटे मोटे उपचार कर सकती है और मात्र इतनी जानकारी कि कौन सी दाल में कौन से गुण होते हैं और कौन सी दाल किस सब्जी के साथ नहीं खानी है, हमें कई छोटे रोगों से बचा सकती है
इस पुस्तक में ननद और भाभी का संवाद है जिसमें भाभी अपनी ननद को समझा रही है कि कैसे स्वस्थ रहा जा सकता है इसमें ननद पूछती है कि आपका कहना ठीक है, यह तो प्राय: मैं भी देखती हूँ कि कभी कभी भोजन करने पर तुरंत ही शरीर में एक प्रकार की बेचैनी हो जाती है और कभी कभी भोजन करने से शरीर में उत्साह और प्रसन्नता मालूम होती है, इसका क्या कारण है?
तो उसकी भाभी ज्ञानवती कहती हैं कि “रूपा इसका कारण यही है कि जिस दिन ऋतु के अनुसार भोजन बन गया उस दिन शरीर में उत्साह और प्रसन्नता मालूम हुई और जिस दिन नियम विरुद्ध आहार या ऋतु विरुद्ध आहार मिला उस दिन शरीर रोगी और अलसी मालूम होता है परन्तु हम तुम (सब स्त्रियाँ) अज्ञानता वश यह नहीं जानती कि किस दिन ऋतु के अनुसार भोजन बना और किस दिन नियम व ऋतु के विरुद्ध!”
परन्तु आजकल भी यह देखा गया है कि रसोई में जाना जैसे पिछड़ेपन की निशानी बना दी गयी है, यहाँ तक कि हमारा राष्ट्रवादी विमर्श भी रसोई को अत्यंत सामान्य समझकर बाहर के काम को ही अधिक प्राथमिकता देता है, जबकि यदि यह अत्यंत साधारण जानकारी कि कौन से खाद्य पदार्थ की क्या प्रवृत्ति है और उसे किसके साथ खाने से हानि और किसके साथ खाने से लाभ हो सकता है तो कई समस्याओं से बचा जा सकता है
परन्तु यही कथित प्रगतिशीलता है जिसने हमारे पारम्परिक ज्ञान से विमुख करके पश्चिम का वह मॉडल हमें बेचा जिसमें कथित आधुनिकता है, कथित विकास है, परन्तु वह पारंपरिक ज्ञान नहीं है, जिसे सीखने के लिए न जाने कहाँ कहाँ से लोग भारत में आया करते थे
यशोदा देवी की यह पुस्तक वर्ष 1913 में प्रकाशित हुई थी! क्या संयोग है कि वर्ष 1936 के बाद उत्पन्न प्रगतिशील साहित्य ने हिन्दू ज्ञान को पिछड़ा प्रमाणित कर दिया और स्त्री को वस्तु बनाने वले फेमिनिज्म को आधुनिक, जिसका दुष्परिणाम हम आज कई रूपों में देख रहे हैं!