भारत में वामपंथी साहित्य ने ऐसा सावित्री की कथा को जितना सुन्दर तोरूदत्त ने अंग्रेजी में लिखा है, उतना सुन्दर हिन्दी में लिखा गया है या नहीं, ज्ञात नहीं है! हिन्दी में या तो सावित्री को वट सावित्री तक सीमित कर दिया गया, या फिर एक पिछड़ी स्त्री घोषित कर दिया। सावित्री की कहानी में सबसे सुन्दर पक्ष है मद्र नरेश का यह अधिकार सावित्री को देना कि हे पुत्री मुझे तुम पर पूर्ण विश्वास है, जाओ अपनी इच्छानुसार वर चुनो! वाह कितनी सुन्दर व्यवस्था थी, स्वतंत्रता की क्या सीमा थी? और सावित्री का स्वयं का दृढ निश्चय!
पूरे वामपंथी परिवार तोड़ने वाले नैरेटिव को सावित्री स्वयं तोड़ती हैं, बशर्ते हम केवल उन्हें वट तक ही सीमित न करे दें, उन्हें एक ऐसी स्त्री के रूप में बताएं जो अपने गुणों के अनुसार वर खोजने के लिए घूमती रहीं, निर्भीक, निर्विघ्न!
मद्र नरेश को भी ऐसे व्यक्ति के रूप में स्थापित करें जिन्होनें पुत्र होने की इच्छा होने पर भी पुत्री को स्वीकारा और प्रसन्नता पूर्वक स्वीकारा! हृदय से स्वीकार किया, उसके उपरान्त उन्होंने अपनी पुत्री को वह स्वतंत्रता दी, जो कोई भी पिता सहज सोच ही नहीं सकता था, कि जाओ अपने मन से वर चुनो! अपने गुणों के अनुसार वर चुनो!
यह स्त्री स्वतंत्रता की कहानी है, इस कथा को मात्र वट सावित्री के प्रतीकों में सीमित करने का अर्थ है कि स्वतंत्रता को बंदी बना लेना!
सावित्री कविता की कुछ पंक्तियाँ पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं:
Her father let her have her way
In all things, whether high or low;
He feared no harm; he knew no ill
Could touch a nature pure as snow।
अर्थात वह कह रही हैं कि सावित्री के पिता ने उन्हें अपने मार्ग पर जाने दिया क्योंकि उन्हें यह ज्ञात था कि वह हिम की भांति पवित्र हैं, उन्हें कुछ नहीं हो सकता!
Long childless, as a priceless boon
He had obtained this child at last
By prayers, made morning, night, and noon
With many a vigil, many a fast;
Would Shiva his own gift recall,
Or mar its perfect beauty ever?—
No, he had faith,—he gave her all
She wished, and feared and doubted never।
And so she wandered where she pleased
In boyish freedom। Happy time!
वह लिख रही हैं कि उन्हें वही स्वतंत्रता मिली थी, जो लड़कों को मिलती थी।
No small vexations ever teased,
Nor crushing sorrows dimmed her prime
One care alone, her father felt—
Where should he find a fitting mate
For one so pure?—His thoughts long dwelt
On this as with his queen he sate।
राजा को यही चिंता है कि अंतत: उनकी पुत्री को सुयोग्य वर कैसे प्राप्त होगा?
“Ah, whom, dear wife, should we select?”
“Leave it to God,” she answering cried,
“Savitri, may herself elect
Some day, her future lord and guide।”
पिता कह रहे हैं कि हो सकता है कि सावित्री ही अपने जीवनसाथी को चुने और स्वयं मार्ग खोजे!
तोरू दत्त अपने 21 वर्ष भी पूर्ण नहीं कर पाई थीं और तपेदिक से उनका देहांत हो गया था। यद्यपि उनका जीवन सही से आरम्भ होने से पूर्ण ही समाप्त हो गया था, परन्तु वह अपनी उन कविताओं के माध्यम से हम सभी के मध्य विद्यमान हैं, जिनमें हिन्दू धर्म के प्रति प्रेम कूट कूट कर भरा है। यह भी विडंबना ही है कि उनके पिता ने वर्ष 1862 में ईसाई धर्म अपना लिया था। तोरू की उम्र उस समय मात्र छ वर्ष रही होगी क्योंकि उनका जन्म 4 मार्च 1856 को हुआ था।
उनकी माँ अपनी हिन्दू जड़ों से ही जुडी थीं क्योंकि कई स्थानों पर ऐसा उल्लेख है कि तोरू को हिन्दू धर्म की कहानियाँ वही सुनाती थीं, और तभी तोरू अपनी हिन्दू जड़ों से जुडी रही थीं। उन्होंने प्रहलाद नामक लम्बी कविता में भी कहानी को ज्यों का त्यों लिया है एवं ईसाई और वामी विमर्श उन्हें छू तक नहीं गया था।
वह लिखती हैं:
A terror both of gods and men
Was Heerun Kasyapu, the king;
No bear more sullen in its den,
चूंकि वह वामी विमर्श नहीं चलाती हैं कि हिरण्यकश्यप मूल निवासी था आदि आदि, एवं विष्णु ने जानबूझकर उसे मारा, तो वह तोरू दत्त को हर विमर्श से बाहर कर चुके हैं। वह स्पष्ट लिखती हैं कि हिरण्यकश्यप ब्राह्मणों की हत्या किया करता था।
The holy Veds he tore in shreds;
Libations, sacrifices, rites,
He made all penal; and the heads
Of Bramins slain, he flung to kites,
” I hold the sceptre in my hand,
I sit upon the ivory throne,
Bow down to me — ’tis my command,
And worship me, and me alone।
वह प्रहलाद में विष्णु पुराण की कथा को ही अंग्रेजी में अपने शब्दों में प्रस्तुत करती हैं। वह नृसिंह भगवान के प्रकट होने का कितना सुन्दर वर्णन करती हैं:
” Where is this God? Now let us see। “
He spurned the pillar with his foot,
Down, down it tumbled, like a tree
Severed by axes from the root,
And from within, with horrid clang
That froze the blood in every vein,
A stately sable warrior sprang,
Like some phantasma of the brain।
He had a lion head and eyes,
A human body, feet and hands,
Colossal, — such strange shapes arise
In clouds, when Autumn rules the lands!
He gave a shout; — the boldest quailed,
Then struck the tyrant on the helm,
And ripped him down; and last, he hailed
Prehlad as king of all the realm!
स्वतंत्रता के उपरान्त या कहें वामपंथी साहित्य के आने के उपरान्त भारतीय धरोहरों एवं हिन्दू नायक नायिकाओं पर कविता लिखा जाना त्याज्य माना जाने लगा, यही कारण है कि तोरू की कविताओं को विमर्श से बाहर कर दिया जाता है। जबकि वह मात्र 21 वर्ष की उम्र में ही स्वर्ग सिधार गयी थीं। यह भी सत्य है कि उनके ईसाई बनने में भी उनका कोई हाथ नहीं था, वह निर्दोष थीं! वह रचनाओं में उन मूल्यों के लिए समर्पित रहीं, जो हिन्दू धर्म के मूल्य थे