कश्मीर से हिन्दुओं को सफलतापूर्वक बाहर भगाने के बाद अब बारी है उन लोगों की, जो इस्लाम में ही विभिन्न फिरके हैं और जिन्हें इस्लामिक कट्टरपंथी अपना दुश्मन मानते है जैसे शिया, अहमदिया आदि! हमने पाकिस्तान में देखा है, अफगानिस्तान में देखा है कि कैसे हिन्दुओं को भगाने के बाद अब वह लोग शिया समुदाय को निशाना बना रहे हैं।
जो भी उन्हें लगता है कि सच्चा मुसलमान नहीं है, या उतना कट्टरपंथी नहीं है, तो उसे मुनाफिक घोषित कर दिया जाता है और उससे भी बदतर काफिर घोषित कर दिया जाता है। परन्तु समस्या यह है कि जब भी हिन्दू के खिलाफ किसी कदम की बात आती है तो मजहब के नाम पर सब एक हो जाते हैं। परन्तु हिन्दुओं के समाप्त होते ही शिया कट्टरपंथियों के निशाने पर आते हैं।
पाकिस्तान में शिया मस्जिद में जब विस्फोट हुआ था तो यह कहा भी गया था शिया मरा है, उसकी हिफाजत करना फर्ज है, क्योंकि वह जिम्मी बनकर हमारे मुल्क में रहते हैं, उनकी हिफाजत करना हमारा फर्ज है, पर उन्हें मुसलमान तो नहीं कह सकते न?
पाकिस्तान और अफगानिस्तान से चलकर अब शियाओं के साथ यह सब व्यवहार कश्मीर में भी होने वाला है क्या? हाल ही में कुछ नारे ऐसे पाए गए, जिनमें यह लिखा गया था कि “शिया काफिर” और यह श्रीनगर में शिया मुस्लिमों के घरों पर लिखे पाए गए।
एक यूजर ने इसके उत्तर में लिखा भी कि अगर हिन्दू नहीं होते तो इस समय भारत में भी अफगानिस्तान और पाकिस्तान की तरह शियाओं का कत्लेआम हो रहा होता!
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार जम्मू और कश्मीर की कुल जनसँख्या का 68 प्रतिशत मुस्लिम हैं। और राज्य का विभाजन भी धारा 370 के हटने के बाद जम्मू और कश्मीर और लद्दाख नामक दो संघ शासित क्षेत्रों में हो गया था। इनमें से शिया 15 लाख हैं तो वहीं सुन्नी लगभग 70 लाख हैं।
जहाँ पर यह देखते हैं कि भारत में कश्मीर को लेकर कुछ भी स्पष्ट दृष्टिकोण नहीं है क्योंकि जिहाद की समस्या को न समझने की जिद्द ही समस्या का विस्तार कर रही है। साहित्य से लेकर फिल्मों और विमर्श तक में यही बात छाई रहती है कि सेना और सरकार मुस्लिमों का और कथित आजादी के सैनिकों का कत्लेआम कर रही है। फिल्मों ने एक ऐसा विमर्श बना दिया है, जिसमें कश्मीर में हिन्दुओं का कोई स्थान ही नहीं है।
मगर वह यह नहीं बता रहे कि अब शियाओं का भी कोई स्थान नहीं है!
जबकि शियाओं को कश्मीर में भारत सरकार के समर्थक के रूप में देखा जाता है, तो वहीं यह भी हमें याद रखना चाहिए कि शियाओं का यकीन भी बाहरी मजहबी नेताओं पर ही है, जैसे ईरान पर या फिर हेज्बुल्ला पर। यहाँ पर हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि पाकिस्तान के निर्माण के लिए केवल सुन्नी ही नहीं बल्कि शिया और अहमदी भी समान रूप से उत्तरदायी हैं। यहाँ तक कि पाकिस्तान का निर्माण करने वाले जिन्ना भी शिया ही थे, हालांकि उनके परिवार वालों ने बाद में दावा किया कि वह अपने मरने से पहले सुन्नी बन गए थे।
परन्तु पाकिस्तान में हिन्दुओं, ईसाइयों, बौद्ध, सिखों, शियाओं और अहमदी आदि सभी को काफिर ही माना जाता है। और शिया समुदाय का जो हश्र पाकिस्तान में हुआ, वही हश्र कहीं न कहीं कश्मीर में तो नहीं होगा, अब यह आशंका इसलिए बलवती होने लगी है क्योंकि कश्मीर में शिया काफ़िर के नारे लगने लगे हैं।
सूफी दरगाह को आग के हवाले किया
एक और इस्लामी मत है जो हमेशा कट्टरपंथियों के निशाने पर रहता है। हालांकि इस्लामिक कट्टपंथ को ही सूफियों से लाभ होता है क्योंकि यह सूफी ही हैं जो आम लोगों के मन में इस्लाम के प्रति कोमल भाव भरते हैं और शत्रुताबोध समाप्त करते हैं, फिर भी काफिरों को मुस्लिम बनाने के बाद यही सूफी उनके निशाने पर आते हैं।
मार्च 2022 में उत्तरी कश्मीर के बारामूला में उरी के नौशेरा इलाके में एक दशकों पुरानी सूफी संत की खानका एक भयानक आग में जलकर राख हो गयी। हालांकि आग बुझाने वाले लोग भी वहां पहुंचे, परन्तु तब तक वह संरचना राख हो गयी थी।
यह बात पूरी तरह से सत्य है कि यह सूफी ही थे, जिन्होनें भारत के इस्लामीकरण में सबसे बड़ा योगदान दिया था। फिर भी यह भी बात सत्य है कि मतलब सधने के बाद इन्हीं सूफियों को इस्लामी कट्टरपंथी अपना निशाना बनाते हैं। वह किसी भी ऐसी अवधारणा को जीवित नहीं रखते हैं, जो उनके जिहाद की अवधारणा में बाधा बनती है। जैसे हाल ही में हमने अमरीना भट की हत्या में देखा था।
वह सिर ढकती थी, वह इस्लाम की तौहीन नहीं करती थी। परन्तु वह गाने के वीडियो बनाकर अपने चैनल पर post करती थी, उसका अपना यूट्यूब चैनल था। तो वह एक तरह से उस जिहाद को चुनौती दे रही थी, जो कट्टरपंथी फैला रहे हैं। जब उसके अब्बा मासूम सवाल पूछते हैं कि आखिर एक मुसलमान दूसरे मुसलमान को कैसे जिहाद के नाम पर मार सकता है? तो वह यह भूज जाते हैं कि किसका क़त्ल जायज है और काफिर की अवधारणा क्या है?
कश्मीर में जो कुछ भी हो रहा है, वह पूरी तरह से मजहबी है। और आमना बेगम अंसारी यह लिखती हैं कि जो भी कोई व्यक्ति यह कहता है कि आतंकवादी मुस्लिमों को भी मारते हैं तो वह यह नहीं बताते कि वह सबसे पहले काफिर को मारते हैं और फिर उन्हें जिन्हें वह काफिर मानते हैं और यही सब कुछ पिछले 33 वर्षों से कश्मीर में चल रहा है!
अब लोग हैरान हो रहे हैं कि आखिर कैसे कोई अपने ही लोगों को मार सकता है, और मेरे ही समुदाय ने मुझे अँधेरे में रखकर उन सभी अत्याचारों को छिपाया जो उन्होंने हिन्दू और सिख, शिया, कश्मीरी औरतों, कश्मीरी उदार सुन्नियों, सूफी मुस्लिमों, पसमांदा मुस्लिमों, गुज्जर और बकरवाल के साथ किये!
अब और नहीं
फिर भी हमारा साहित्य और लेखक वर्ग ही नहीं बल्कि लुटियन मीडिया भी इस सच्चाई को स्वीकरने से इंकार करते हुए यह कहता रहता है कि यह समस्या राजनीतिक है और पकिस्तान से बात करने चाहिए!
एक और बात हैरान करने वाली है कि जहाँ सऊदी अरब और यूएई में भी उद्दंडता और देश द्रोह को लेकर कड़े नियम और कड़े दंड हैं तो ऐसे में मात्र मजहब के नाम पर भारत में मौलाना साद और महमूद मदनी आदि को छूट क्यों दी जाती है? क्यों कड़ी कार्यवाही नहीं होती है? प्रश्न कई हैं, परन्तु उत्तर कहाँ हैं? वहीं कश्मीर से धीरे धीरे हिन्दू एक बार फिर से सामान लेकर वापस आ ही रहे हैं!