रूस और युक्रेन में युद्ध हो रहा है और पूरा विश्व इस युद्ध को देखकर अपने अपने हिसाब से चिंतित है। हर किसी पक्ष को लग रहा है कि कहीं न कहीं वह भी इससे प्रभावित हो रहा है, भारत के अपने नागरिक फंसे हुए हैं और पाकिस्तान के अपने। अफ्रीका के भी हित प्रभावित हो रहे हैं और पर्यावरण तो प्रभावित हो ही रहा है। परन्तु पश्चिम का मीडिया जो अफगानिस्तान, या पाकिस्तान या अफ्रीका में युद्ध और संघर्ष के समय हिंसा के चित्र साझा करता है, तमाम विमर्श करता है और एक प्रकार से उनकी दृष्टि में पिछड़े और कथित तीसरी दुनिया के देशों में हिंसा पर अपना माल बनाता है, उसका एक बड़ा वर्ग इस कारण दुखी है कि युक्रेन के युद्ध में सबसे अधिक कष्टदायी यही है कि क्योंकि “नीली आँखों और सुनहरे बालों वाले” यूरोपीय लोग इसमें मारे जा रहे हैं!
एक यूजर ने twitter पर ऐसी ही पश्चिमी प्रतिक्रियाओं का पूरा थ्रेड प्रस्तुत किया।
सीबीसी न्यूज़ के विदेशी पत्रकार चार्ली डी अगाता ने कहा कि
“यह ईराक या अफगानिस्तान नहीं है————- यह अपेक्षाकृत “सभ्य” और अपेक्षाकृत यूरोपीय शहर है!”
अर्थात पश्चिम के गोरे लोगों की औपनिवेशिक मानसिकता में अफगानिस्तान और ईराक में आप इसलिए सब कुछ कर सकते हैं क्योंकि वह कथित सभ्य नहीं हैं। यह कथित सभ्यता क्या है?
फिर उन्होंने अल-ज़जीरा का वक्तव्य दिखाया
उन्हें देखकर जो सबसे ज्यादा परेशान करने वाली बात है वह यह कि जिस तरह से वे कपड़े पहने हुए हैं। ये समृद्ध, मध्यम वर्ग के लोग हैं। ये स्पष्ट रूप से शरणार्थी नहीं हैं जो मध्य पूर्व ।।। या उत्तरी अफ्रीका से दूर जाने की कोशिश कर रहे हैं। वे किसी भी यूरोपीय परिवार की तरह दिखते हैं। जो शायद आपके ही पड़ोसी हों, यह ऐसे दिखते हैं।”

फिर फ्रांस के एक समाचार चैनल का वक्तव्य दिखाया कि “हम 21वीं शताब्दी में हैं, हम एक यूरोपीय शहर हैं और हमारे पास क्रूज़ मिसाइल हैं, ऐसा लग रहा है जैसे हम अफगानिस्तान या ईराक में हैं, क्या आप कल्पना कर सकते हैं?”
द टेलीग्राफ लिखता है कि
“इस बार युद्ध गलत है क्योंकि लोग हमारे जैसे ही दिखते हैं और उनके पास इन्स्टाग्राम और नेटफ्लिक्स एकाउंट्स हैं। यह कोई गरीब, दूर देश नहीं है! वहां पर स्वतंत्र रूप से चुनाव होते हैं और वहां पर स्वतंत्र प्रेस है” डेनियल हनन
इतना ही नहीं यूके की आईटीवी की ओर से एक पत्रकार का कहना है कि “जो सोचा नहीं था, वह हो रहा है और यह कोई विकासशील देश या तीसरी दुनिया का देश नहीं है, यह यूरोप है!”
पोलैंड से जब यह पूछा गया कि अब वह यूक्रेन से रिफ्यूजी क्यों ले रहे हैं तो पोलैंड का कहना था कि सही कहा जाए तो वह सीरिया से आए हुए रिफ्यूजी नहीं हैं, वह यूक्रेन से हैं, वह ईसाई हैं, वह श्वेत हैं, वह हमारी तरह हैं
यह तो वह थ्रेड है जो किसी ने संयोजित की और उसे एक थ्रेड में पिरो दिया। परन्तु पश्चिमी मीडिया के लिए अफ्रीका और एशिया दोनों ही अपनी प्रयोगशाला के केंद्र रहे हैं, जहाँ पर कथित रूप से उन्होंने उद्धार किया। जबकि हम देखते हैं कि कैसे पश्चिम ने अपने हस्तक्षेप से समृद्धिशाली देशों की पूरी की पूरी देशी सभ्यता को नष्ट कर दिया था।
जब द्वितीय विश्व युद्ध में लाखों भारतीयों को पश्चिम के गोरे नायक “चर्चिल” ने भूखा मरवा दिया था? और हॉलीवुड में उसके कसीदे पढ़े जाते हैं!

जिस भारत में मौर्यकाल में मेगस्थनीज़ के अनुसार कभी भी अकाल नहीं पड़ता था और लोगों के लिए कभी भी खानेपीने के सामान के लिए आपूर्ति की कमी नहीं होती थी, उसी देश में जब बाहरी आक्रमण हुए उसके बाद अकाल पड़ने आरम्भ हुए। और बंगाल में जो चर्चिल की गलत नीतियों के कारण अकाल पड़ा था, उसके कारण लाखों लोगों की जानें गयी थीं।
जैसे अभी पश्चिम का मीडिया “श्वेत, सफ़ेद, गोरे, नीली आँखों वालों को ही बचाने की” चिंता में व्यस्त है और अफगानिस्तान को वह बर्बाद कर चुका है और भारत पर निशाना साधे है, तो ऐसे में विंस्टन चर्चिल, जिन्हें पश्चिम और हॉलीवुड द्वारा एक बहुत बड़े महानायक के रूप में दिखाया जाता है, उन्होंने भारत के साथ जो किया, उसके लिए उन्हें कोई क्षमा नहीं कर सकता है। उन्हें इस तीसरी दुनिया अर्थात भारत से घृणा थी और द्वितीय विश्व युद्ध में जो भोजन भारतीयों के लिए था उसकी आपूर्ति भारत में नहीं होने दी।
जैसे आज यह कहा जा रहा है कि कथित सिविलाईज लोग मारे जा रहे हैं, इसलिए दुःख हो रहा है, तो उस समय चर्चिल ने यह सुनिश्चित किया कि वह कथित सिविलाइज्ड लोग न मारे जाएं और केवल वह बेचारे भारतीय मारे जाएं जिनका वह खून पहले ही चूस चुके हैं और जो जानवरों की तरह बच्चे पैदा करते हैं। और इस कारण एक दो नहीं बल्कि तीस-चालीस लाख लोगों को चर्चिल ने मरवा दिया था!
जब द्वितीय विश्व युद्ध में भारत की ओर से सेनाएं जा रही थीं तो ऐसे में यह भी सुनिश्चित किया जा रहा था बंगाल में अनाज न पहुंचे।
इस विषय में मधुश्री मुखर्जी ने अपनी पुस्तक चर्चिल्स सीक्रेट वॉर में बताया है कि किस तरह भारत के अपने अतिरिक्त खाद्यान्न सीलोन निर्यात किए गए थे; ऑस्ट्रेलियाई गेहूं को कलकत्ता के भारतीय बंदरगाह के ज़रिए (जहां सड़कों पर भुखमरी से मरने वालों के शव पड़े थे) भू-मध्यसागर और बाल्कन देशों में भंडारण के लिए भेजा गया ताकि युद्ध के बाद ब्रिटेन में खाद्यान्न संबंधी दबाव कम किया जा सके। इस बीच अमेरिकी और कनाडाई खाद्य सहायता के प्रस्ताव ठुकरा दिए गए थे। एक कॉलोनी के रूप में भारत के पास अपने लिए भोजन आयात करने या अपने भंडार खर्च करने की अनुमति नहीं थी। यहां तक कि अपने स्वयं के जहाजों का उपयोग कर खाद्य सामग्री आयात करने की अनुमति भी नहीं थी। आपूर्ति और मांग के कानून भी मददगार साबित नहीं हुए: अन्य जगहों पर तैनात अपने सैनिकों के लिए खाद्य आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए, ब्रिटिश सरकार ने भारतीय बाज़ार में अनाज के लिए बढ़ी कीमतें तय कीं, जिससे यह अनाज आम भारतीयों के लिए महंगा और उनकी पहुंच से बाहर हो गया।
गोरी नस्लीय श्रेष्ठता की सनक के चलते पश्चिम आज तक खेल खेल रहा है!
आज जब यूक्रेन में युद्ध हो रहा है तो यह मानसिकता कि “यह तो तीसरी दुनिया के देश नहीं है” कहना कहीं न कहीं उन्हें उसी मध्ययुगीन मानसिकता में ले जाता है, जहाँ से वह निकल नहीं पाए हैं।
और दुर्भाग्य ही बात है कि संसार भर की देशी सभ्यताओं को अपने गोरे रंग में खा जाने वाले यह लोग कथित सभ्य होने का दावा करते हैं!