एक पार्टी, जिसके टॉप लीडर राजनीति में परिवारवाद के खुलकर खिलाफ हैं। ऐसा वे सिर्फ भाषणों में नहीं कहते बल्कि उन्होंने अपने किसी भाई, भतीजे, बहन, बेटे, भांजे, चाचा, ताऊ, जीजा, दामाद, नाती-पोतों को न किसी चुनाव के टिकट दिए हैं और न ही पार्टी में किसी पद पर रखा है। वे अकेले ही सक्रिय हैं और अपनी मेहनत से एक सामान्य कार्यकर्ता या स्वयंसेवक की हैसियत से आगे बढ़ते हुए वहां पहुंचे हैं, जहां वे आज हैं।
एक पार्टी जिसके टॉप लीडर तीस सालों की सत्ता की राजनीति में किसी भी बड़े-छोटे घोटाले से दूर रहे हैं और कमीशन खोरी या आर्थिक अनियमितताओं का कोई दाग उनके दामन पर नहीं है। उन्होंने सत्ता में आने के अवसर को अपने परिवारजनों या चाटुकारों को मुनाफों की बंदरबांट की तरह नहीं भुनाया है।
एक पार्टी, जो स्वतंत्र भारत में कुछ ऐसे ज्वलंत मसलों को लेकर जीरो से लड़ते-लड़ते यहां तक पहुंची, जो मुख्य धारा की राजनीति में रचे-बसे मसले थे। जिन्हें कोई छू नहीं सकता था। लेकिन उसके हर चुनावी एजेंडे में वे मसले हेडलाइन की तरह चमकते रहे और देश व्यापी जनजागरूकता से जिसने आम लोगों को बताया कि कश्मीर किधर जा रहा है और हमारे सांस्कृतिक मानबिंदुओं को किस तरह बरबाद छोड़ दिया गया है।
एक पार्टी, जिसे जब गठबंधन के साथ सत्ता मिली तो वह कॉमन मिनिमम प्रोग्राम की मर्यादाओं में अपने मूल मसलों को दूर से ही देखती रही और पूरी शक्ति से सत्ता में आने का धैर्य धारण किया और इस दौरान जनता को ठगने और मूर्ख बनाने की तोहमतें भी झेलती रही-‘इन्हें तो चुनाव के समय ही राम की याद आती है!’
एक पार्टी जिसने आजादी की लड़ाई में स्वयंभू एकछत्र योगदान की दम पर एक खानदान के सत्ता में एकाधिकार को तोड़कर रख दिया और यह बताया कि लोकतंत्र में दादा से लेकर पोते तक ही सिंहासनों पर बैठे नहीं रहेंगे। यह एक तरह से लोकतंत्र के मूल भाव की ही हत्या है कि एक परिवार की खूंटी से पार्टियां बंधुआ की तरह बनी रहें।
एक पार्टी, जिसने अपनी दूसरी और तीसरी पीढ़ी के नेतृत्व के लिए सामान्य हैसियत के कार्यकर्ताओं को आगे किया, बिना इस भेदभाव के कि कौन किस जाति का और कौन किस क्षेत्र या मजहब का। जहां लोग अपनी काबिलियत से आगे आए और जिसमें दम था, वो उतना दूर तक टिके। उन्हें ऊपर से हटाने का हुक्म देने वाला कोई तानाशाह नहीं था।
एक पार्टी, जिसने उन ताकतों को बेनकाब किया, जिन्होंने एक समय अपने परिवार की सत्ता मुट्ठी में बनाए रखने के लिए लोकतंत्र की ही हत्या कर डाली थी और जिसने सत्ता में बनाए रखने की खातिर हर तरह की दुष्ट ताकतों से समझौते किए थे। भस्मासुरों को पालकर देश की अपूरणीय क्षति करने वाली ताकतों को सरेआम नंगा किया था।
एक पार्टी जिसने जताया कि सिर्फ आजादी ही पर्याप्त नहीं थी। मूल बात यह है कि आजादी के बाद हम मुल्क को कैसा बनाना चाहते हैं और किस दिशा में ले रहे हैं? हमारी नीति क्या है और नीयत कैसी है? उसने सिर्फ राष्ट्र के निर्माण की बात की। भारत माता और वंदे मातरम् का मंत्र ही साधा और बेनकाब किया उन ताकतों को जिनकी नजरों मंे भारत माता डायन थी और ऐसा कहने वालों के सिर पर ताज सजाने वाले भी थे।
एक पार्टी, जिसने सेक्युलरिज्म के घातक दुष्प्रभावों की तरफ लगातार इशारे किए। वे तब तक ऐसा करते रहे जब कि वह एकपक्षीय तुष्टिकरण की सियासत एक ऐसी आग की तरह नहीं हो गई, जिसकी आंच हमारे घरों तक आने लगी थी। उन्होंने देश को एक गहरी खाई में जाता हुआ देखकर भी लोकतांत्रिक तरीकों से ही अपनी बात कही। यह लंबी प्रतीक्षा का कठिन काल था।
एक पार्टी, जिसने भारत का असल इतिहासबोध जगाया, जिसने सांस्कृतिक रूप से समृद्ध भारत की महिमा अपने गीतों में गाई और उसे फिर से विश्व गुरू बनाने का सपना देखने की जुर्रत की। वे सोते-जागते यही सपना देखते हुए मशाल अगली पीढ़ी को सौंपते रहे। उन्हें पोंगापंथी कहा गया। उन्हें सांप्रदायिक कहकर गरियाया गया। मगर वे अपनी धुन के धनी थे। वे अपने एकसूत्रीय कार्य में लगे ही रहे। वह सिर्फ चुनावी अभियान नहीं थे। कुछ लोगों के लिए वह एक तप था।
जनता सब देखती रही। जनता सबको देखती रही। सबको आजमाती रही। एक बार नहीं। बार-बार आजमाती रही। उसने बार-बार खुद को ठगा हुआ ही पाया। वह इधर-उधर के विकल्पों को भी तलाशती रही। जहां विकल्प मिले, उन्हें भी देखती और आजमाती रही। उसने आजादी की लड़ाई लड़कर निकले लोगों के हाथ में साठ साल तक एकाधिकारपूर्ण सत्ता सौंपकर रखी और तीन पीढ़ियों को राजाओं की तरह आते-जाते देखा।
जनता ने क्षेत्रीय विकल्पों को भी आजमाया। आज तक आजमा रही है। उनमें नए-नए राजा उभर आए। खानदान के खानदान सत्ता की खुरचन खरोंचने में लगे उसने लगातार देखे। कहीं समाजवाद के नाम पर, कहीं किसानों के नाम पर। केवल सत्ता उनके विचार के केंद्र में थी। खानदान प्राथमिक थे। टुकड़ों पर मौकापरस्तों को भी पलने के मौके मिले। सेक्युलर हवा में कई रंगों के गुब्बारे आसमान में उड़े।
जनता ने आखिरकार उन लोगों पर ध्यान दिया, जो कब से चिल्ला रहे थे कि कश्मीर में एक संविधान, एक निशान होना चाहिए। कि अयोध्या, मथुरा और वाराणसी में हमारा अतीत हमें पुकारता है। कि बटवारे की कीमत चुकाने के बावजूद घाटी में आतंक किस हद तक जा पहुंचा है। ये 370 एक अभिशाप है, वरदान नहीं। वे कब से तुष्टिकरण की राजनीति के प्रति जगाने में लगे हुए थे।
एक दिन उनकी आवाज सुनी गई। पहले कुछ राज्यों में, फिर दिल्ली में। और ऐसे ही एक पूरी पीढ़ी विदा हो गई।
2014 में दूसरी पीढ़ी ने वह मशाल थामे रखी। न उसकी लपट को बुझने दिया और न ही उसकी आंच को कम होने दिया। वे राज्यों में अपनी काबिलियत सिद्ध करने में भी कामयाब हुए। वे साफ विजन वाले लोग थे, जो सब तरह धूल और धुंध से साफ सुथरे निकलकर सामने आए थे।
2014 का साल भारत की राजनीति का एक और साल नहीं था। उसे भविष्य में भारत के एक टर्निंग टाइम की तरह रेखांकित किया जाएगा, जब सत्ता के लिए सौजन्य से सबके खुश रहने और सबको खुश रखने की मीठी गोलियों को वितरण लुटियंस के स्टॉल्स पर बंद कर दिया गया। जब परिवारवादी पुरोधाओं के तंबू हवाओं उड़ने लगे। स्वतंत्र भारत में कुछ कठाेर फैसलों और सकारात्मक बदलावों की शुरुआत का साल था 2014।
ये वो लोग थे, जो केवल शपथ ग्रहण करने नहीं आए थे और न ही उन्हें इतिहास में अमर होने के लिए प्रधानमंत्रियों की सूची में एक और नाम जोड़ना था। संसद उनके लिए शासन का शिखर नहीं थी। पहली बार सवा सौ करोड़ लोगों ने संसद के द्वार पर आए एक ऐसे अजनबी को देखा, जिसने गर्भगृह में प्रवेश करने के पहले अपना माथा जमीन पर रख दिया था। यह दृश्य 1947 में सदन के पहले सत्र के समय अपेक्षित था। किंतु तब सफेद शेरवानियों में सुर्ख गुलाब खाेंसकर सत्ता के विजेता मंगल प्रवेश कर रहे थे। वे आजादी का युद्ध जीतकर जो आए थे।
2014 के बाद से जो कुछ हुआ है, वह सब हमारी स्मृतियों में ताजा है। 2017 भी, 2019 भी और 2022 भी। ये सब अकल्पनीय पड़ाव हैं, जिन्हें हासिल करने में बहुत कुछ दाव पर लगा है। ढर्रे की सियासत धूल हो चुकी है। कामचलाऊ तौरतरीके अब गुजरे जमाने की बातें हैं। लोकतंत्र को प्रहसन बनाने वाले विदूषक चारे की चपेट में अपने अंत की प्रतीक्षा कर रहे हैं। सिर्फ अपनी कुर्सी के लिए घृणित सौदेबाजियां करने वाले दर्शक दीर्घा में भी कहीं नहीं हैं। संसार के सबसे पुरातन और सनातन संस्कृति वाले एक देश को सच्चे अर्थों में रोग प्रतिरोधक बनाने के लिए हर तरह के टॉनिक और विटामिन की खुराक दी गई है। गरीबी हटाओ अब सिर्फ एक नारा नहीं है, जो चुनाव सिर पर आते ही लगा दिया गया है। सब तरह के फरेब खुल चुके हैं।
किंतु फिर भी, एक बड़ा वर्ग है जो घात में ही बैठा है। इस वर्ग में हर तरह के गिरोह हैं, जिन्हें यह सब बदलाव अज्ञात कारणों से फूटी आंखों नहीं सुहा रहे। कुछ नहीं तो वे कुछ लोगों के मरने की ही दुआएं कर रहे हैं। वे शाहीनबाग सजा रहे हैं। किसानों के मजमे जुटा रहे हैं और जब कोई नुस्खा काम नहीं आ रहा तो हिजाब पहनकर आने में भी उन्हें कोई शर्म नहीं है। उनके हितैषी हर कहीं हैं। उन्हें लग रहा है कि भारत का इससे बुरा वक्त हो नहीं सकता था और इन ताकतों को ध्वस्त करना ही उनका धर्म है। एक किस्म का जिहाद छेड़ा हुआ है।
यह देखना दिलचस्प होगा कि 2047 में जब देश आजादी के सौ साल मनाएगा, तब तक क्या कुछ घटता है। किसके मंसूबे पूरे होते हैं, किसके इरादे बेपरदा होते हैं और कौन किस हद तक लक्ष्यपूर्ति कर पाता है। सबसे बड़ी बात तो यह कि लक्ष्य क्या हैं?
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