आज पूरे विश्व में मातृभाषा दिवस मनाया जाता है। संस्कृत इस देश की सबसे प्राचीन भाषा मानी जाती है, जिसे देवभाषा कहा जाता है। संस्कृत में ज्ञान, विज्ञान, नृत्य, संगीत, खगोल एवं ज्योतिष आदि सभी विषयों पर समृद्ध साहित्य उपलब्ध है, हाँ वह दूसरी बात है कि समय के साथ संस्कृत के साथ कई षड्यंत्र किए गए और भारत की ज्ञान परम्परा को नीचा दिखाने के लिए संस्कृत का अपमान किया गया, जबकि संस्कृत साहित्य के जितने भी ग्रन्थ मुस्लिम आक्रान्ताओं के हाथों शेष रह गए थे, उनके अनुवाद अंग्रेजी में पर्याप्त किए गए।
बार बार यह स्थापित किया गया कि संस्कृत प्रेम की भाषा नहीं है, संस्कृत में प्रेम और श्रृंगार व्यक्त नहीं हो सकता है, तो आइये आज मातृभाषा दिवस पर यह जानने का प्रयास करते हैं कि क्या वास्तव में संस्कृत में प्रेम नहीं लिखा गया है?
सबसे पहले हम भर्तृहरि के श्रृंगार शतक को देखते है। उसमें स्त्री के सौन्दर्य के साथ साथ काम रूप को प्रस्तुत किया गया है:
मुग्धे! धानुष्कता केयमपूर्वा त्वयि दृश्यते ।
यया विध्यसि चेतांसि गुणैरेव न सायकैः ॥ १३॥
अर्थ:
हे मुग्धे सुन्दरी ! धनुर्विद्या में ऐसी असाधारण कुशलता तुझमे कहाँ से आयी, कि बाण छोड़े बिना, केवल गुण से ही तू पुरुष के ह्रदय को बेध देती है ?
इसे ही शायद ग़ालिब ने कहा होगा कि
इस सादगी पर कौन न मर जाए ऐ खुदा,
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं!
अनुष्टुभ्
सति प्रदीपे सत्यग्नौ सत्सु नानामणिष्वपि ।
विना मे मृगशावाक्ष्या तमोभूतमिदं जगत् ॥ १४ ॥
अर्थ: यद्यपि दीपक, अग्नि, तारे, सूर्या और चन्द्रमा सभी प्रकाशमान पदार्थ मौजूद हैं, पर मुझे एक मृगनयनी सुन्दरी बिना सारा जगत अन्धकार पूर्ण दिखता है ।
कालिदास का मेघदूत
कालिदास ने मेघदूत की रचना जब की थी, उस समय प्रेम और प्रेम की उन्मुक्तता किस स्तर पर थी, उसे मेघदूत पढ़कर समझा जा सकता है।
इसमें यक्ष ने अपनी प्रेयसी के पास मेघ को दूत बनाकर सन्देश भेजा है। इस प्रेम में व्याकुलता है, काम से पीड़ित होने की पीड़ा है और साथ ही है वह वेदना जो एक प्रेमी समझ सकता है। यदि यह प्रेम नहीं है तो प्रेम क्या हो सकता है?
कश्चित् कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारात्प्रमत्तः
शापेनास्तङ्गमितमहिमा वर्षभोग्येण भर्तुः ।
यक्षश्चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु
स्निग्धच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु ॥ १॥
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इसके आरम्भ में ही प्रेम की विह्वलता को प्रदर्शित किया गया है और कहा है कि यक्ष को कार्य में असावधानी का परिचय देने के कारण यक्षपति ने यह श्राप दिया कि वह अपनी पत्नी से एक वर्ष तक अलग रहेगा
और इससे आगे दूत के रूप में यक्ष द्वारा मेघ का चयन करना सम्मिलित है और साथ ही उसे विरह वेदना बताना। इसके आगे कालिदास लिखते हैं:
जातं वंशे भुवनविदिते पुष्करावर्तकानां
जानामि त्वां प्रकृतिपुरुषं कामरूपं मघोनः ।
तेनार्थित्वं त्वयि विधिवशाद्दूरबन्धुर्गतोऽहं
याच्ञा मोघा वरमधिगुणे नाधमे लब्धकामा ॥ ६॥
इसका अर्थ है कि पुष्कर और आवर्तक नाम वाले मेघों के लोक प्रसिद्ध वंश में तुम जन्मे हो! हे मेघ, तुम ही कामरूपी हो, और मैं विधि वश अपनी प्रिया से दूर हूँ, और तुम्हारे सम्मुख याचक हूँ!
जालोद्गीर्णैरुपचितवपुः केशसंस्कारधूपैः
बन्धुप्रीत्या भवनशिखिभिर्दत्तनृत्त्योपहारः ।
हर्म्येष्वस्याः कुसुमसुरभिष्वध्वखेदं नयेथा
लक्ष्मीं पश्यंल्ललितवनितापादरागाङ्कितेषु ॥ ३२॥
इसमें कालिदास कितनी सुन्दर व्याख्या और वर्णन करते हैं। वह लिखते हैं कि उज्जयिनी में स्त्रियों के केश सुवासित करने वाली धूप गवाक्ष जालों से बाहर उठती हुई तुम्हें पुष्ट करेगी और घरों के पालतू मोर भाईचारे के प्रेम से तुम्हें नृत्य का उपहार भेंट करेंगे, वहां पुष्पों से सुरभित महलों में सुन्दर स्त्रियों के महावर लगे चरणों की छाप देखते हुए तुम मार्ग की थकान मिटाना।
अब इसे अंग्रेजी में समझते हैं
hang by lattice windows, large and sweet,
with incense out of women’s new washed hair,
watch the filial peacocks dance affection,
and in the flower scented palace air,
see dancers moving on their red lac feet!
नाट्यशास्त्र में सिद्धांत
यह कहा गया कि संस्कृत कला और विज्ञान की भाषा नहीं है। क्या वास्तव में ऐसा है? क्या सबसे प्राचीन भाषा में वास्तव में नाट्य एवं संगीत की कोई परिभाषा नहीं थी? भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में प्रेक्षागारों आदि का वर्णन भी कितने विस्तार से प्रदान किया है:
तेषां तु वचनं श्रुत्वा मुनीनां भरतोऽब्रवीत् ।
लक्षणं पूजनं चैव श्रूयतां नाट्यवेश्मनः ॥ ४॥
दिव्यानां मानसी सृष्टिर्गृहेषूपवनेषु च ।
(यथा भावाभिनिर्वर्त्याः सर्वे भावास्तु मानुषाः ॥)
नराणां यत्नतः कार्या लक्षणाभिहिता क्रिया ॥ ५॥
श्रूयतां तद्यथा यत्र कर्तव्यो नाट्यमण्डपः ।
तस्य वास्तु च पूजा च यथा योज्या प्रयत्नतः ॥ ६॥
इह प्रेक्ष्यागृहं दृष्ट्वा धीमता विश्वकर्मणा ।
त्रिविधः सन्निवेशश्च शास्त्रतः परिकल्पितः ॥ ७॥
विकृष्टश्चतुरश्रश्च त्र्यश्रश्चैव तु मण्डपः ।
तेषां त्रीणि प्रमाणानि ज्येष्ठं मध्यं तथाऽवरम् ॥ ८॥
भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के दूसरे अध्याय में श्लोक संख्या 5 से 8 तक इस बात का वर्णन है कि यद्यपि देवताओं को गृह तथा उपवन निर्माण में मानसी शक्ति प्राप्त है, अत: उनके लिए निर्माण विधि आवश्यक नहीं है, किन्तु मनुष्यों के लिए तो सभी शास्त्र के नियमों से युक्त होकर ही संपन्न होने वाले कार्य हुआ करते हैं। अत: अब आप नाट्यगृह के स्थान, उसके निर्माण प्रकार तथा पूजन विधि को सुनिए।
बुद्धिमान विश्वकर्मा ने शास्त्रानुसार तीन प्रकार के नाट्यगृह बताए हैं जिनके नाम हैं विकृष्ट, चतुरस तथा त्र्यस्र। इनके माप तीन प्रकार के होते हैं, अर्थात ज्येष्ठ, मध्य एवं अवर अर्थात सबसे छोटा!
नाट्यशास्त्र में नाट्यगृहों से लेकर नृत्य की मुद्राओं के विषय में विस्तार से वर्णन है। इसमें प्रेक्षागृहों के लक्षण एवं प्रमाण बताए हैं। माप हैं।
अत: आज जब पूरा विश्व मातृभाषा दिवस मना रहा है, इस तथ्य को स्मरण रखा जाए कि संस्कृत ऐसी भाषा है जिसमें महाभारत, रामायण, वेदों के साथ साथ नाट्यशास्त्र, श्रृंगार शतक एवं अभिज्ञान शाकुंतलम जैसे समृद्ध ग्रन्थ हैं।
Very enlightening information about the greatness of Sanskrit and its literature. Blessed are they who learnt Sanskrit.