अभी हाल ही में हमने एक बहुत बड़ा कथित सुधार अभियान देखा था “कन्या-मान का”। पर क्या वास्तव में हमारे यहाँ कन्या को वस्तु मानकर दान किया जाता है? दान क्या है? दान चेरिटी नहीं है। दान त्याग भी नहीं है। इन सब परिभाषाओं से इतर, आज शिवरात्रि के अवसर पर पढ़ते हैं कि कन्या-दान करने से पूर्व माँ कितने प्रश्न करती है एवं जब तक माँ को यह विश्वास नहीं होता कि वह उनकी स्नेह की छाँह में पली पुत्री के योग्य है भी या नहीं, वह देवों के देव महादेव को भी अपनी पुत्री नहीं सौंपती हैं।
शिव-बरात और मैना का भ्रमित होना
महादेव की बरात विलक्षण थी। जब महादेव सभी के हैं, तो सभी महादेव के हैं। एक ओर देव थे, खूब सजेधजे, बाजे गाजे के साथ पताकाएं फहराते हुए वसु आदि गन्धर्व, मणिग्रीवादि यक्ष, देवराज इंद्र, भृगु आदि मुनीश्वर, ब्रह्मा तथा भगवान विष्णु सबकी टोलियाँ अलग अलग चल रही थीं। इनमें से प्रत्येक दल के स्वामी को देखकर मैना पूछती थीं कि क्या यही शिव हैं?
नारद जी कहते “ये तो शिव के सेवक हैं!” मैंने यह सुनकर अत्यंत प्रसन्न हो जातीं और मन ही में विचार करने लगतीं कि यदि सेवक ऐसे हैं, तो इनके स्वामी शिव कितने सुन्दर होंगे। इसी क्रम में उनका ध्यान भंग हुआ, जब भगवान रुद्रदेव की परम अद्भुत सेना भी वहां आ पहुँची, जो भूत-प्रेत आदि से संयुक्त एवं नाना गुणों से संपन्न थी। इनमें किन्हीं के मुंह टेढ़े थे, तो कोई अत्यंत कुरूप दिखाई दे रहे थे, कोई बहुत ही विकराल थे तो कोई लंगड़े।
किसी के एक मुंह था, तो किसी के कई, तो किसी के कोई भी मुख नहीं था। इस प्रकार से सभी गण नाना प्रकार की वेशभूषा धारण किए थे। उन असंख्य भूत-प्रेत आदि गानों को देखकर मैना भय से व्याकुल हो गईं, उन्हीं के बीच में भगवान शंकर भी थे। वह वृषभ पर सवार थे। उनके पांच मुख थे, प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र थे और सारे अंग में विभूति लगी हुई थी। मस्तक पर जटाजूट और चंद्रमा का मुकुट, आँखें भयानक और आकृति विकराल थी। यह कैसा विकृत दृश्य है, मैं दुराग्रह में फंसकर मारी गयी- इतना कहकर मैना उसी क्षण मूर्छित हो गईं। थोड़ी देर में चेत होने पर वह क्षुब्ध होकर अत्यंत विलाप और तिरस्कार करने लगीं। उसी समय भगवान विष्णु भी वहां पधारे और उन्होंने अनेक प्रकार से मैना को समझाते हुए शिव के महत्व का वर्णन किया।
मैना ने शिव के महत्व को स्वीकार करते हुए श्री हरि से कहा “यदि भगवान शिव सुन्दर शरीर धारण कर लें तो मैं उन्हें अपनी पुत्री दे सकती हूँ।”
ब्रह्मा जी ने नारद जी से कहा कि उसी समय तुमने भगवान विष्णु की प्रेरणा से भगवान shankar के पास जाकर उन्हें स्रोतों से प्रसन्न किया। तुम्हारी बातें सुनकर शंभु ने प्रसन्नतापूर्वक अद्भुत, उत्पन्न एवं दिव्य रूप धारण कर लिया।
भगवान शिव का वह रूप कामदेव से भी अधिक सुन्दर एवं लावण्य का परम आश्रय था। वहां उपस्थित सभी पुरवासिनियाँ भगवान शंकर का मनोहर रूप देखकर सम्मोहित हो गईं। हिमालय की पत्नी मैना भी अपने जमाता की आरती उतारने के लिए हाथों में दीपकों से सजी हुई थाली लेकर आ गईं।
*(शिवपुराण-कथासार- गीताप्रेस)
अत्यंत सुन्दर रूप को देखकर चकित रह जाना
जब मैना ने देखा कि जो उनके सम्मुख हैं वह तो ऐसे हैं जिनके सौन्दर्य का कहीं भी वर्णन नहीं हो सकता है। जो करोड़ों सूर्यों के समान तेजस्वी था, जिसके सर्वांग सुन्दर थे, जो विचित्र वस्त्रधारी था और जो शरीर नाना प्रकार के आभूषणों से विभूषित था। वह अत्यंत प्रसन्न, सुन्दर हास्य से सुशोभित, ललित लावण्य से परिपूर्ण, मनोहर, गौरवर्ण, द्युतिमान एवं चंद्रलेखा से अलंकृत था। विष्णु आदि सम्पूर्ण देवता बड़े ही प्रेम से भगवान शिव की सेवा कर रहे थे। सूर्यदेव ने छत्र लगा रखा था, चंद्रदेव मस्तक का मुकुट बनकर उनकी शोभा बढ़ा रहे थे।
उनका वाहन भी अनेक प्रकार के आभूषणों से सुसज्जित था।
उनके ऐसे रूप को देखकर अब मैना रानी चकित रह गयी हैं, फिर वह कहती हैं कि महेश्वर मेरी पुत्री बहुत धन्य है जिसने बड़ा भारी तप किया और जिसके तप के कारण आप इस घर में पधारे। मैंने पहले जो आप शिव तत्व की अक्षम्य निंदा की है, उसे मेरी शिवा के स्वामी शिव, आप क्षमा करें और पूर्णतया प्रसन्न हो जाएं!
और उसके उपरान्त ही विवाह की तमाम रस्में हुईं, तथा जब कन्यादान का क्षण आया तो कन्या के पिता ने देवों के देव महादेव से उनके कुल, गोत्र आदि के विषय में प्रश्न किया।
पिता को कुल एवं गोत्र की भी चिंता है:
वह एक पिता हैं, कन्यादान ऐसे ही नहीं किया जाता। पुन: नारद ने कहा कि जिनके एक दिन करोड़ों ब्रह्माओं का लय होता है, आप उनसे गोत्र पूछ रहे हैं? इनका कोई रूप नहीं है, यह निराकार हैं, यह प्रकृति से परे निर्गुण हैं, यह नाद हैं! शिव ही नाद है और नाद ही शिव हैं।
जब नारद ने उनके सम्मुख शिव का ऐसा वर्णन किया तो हिमालय प्रसन्न हुए और उन्हें संतोष हुआ। तथा कन्या के मातापिता दोनों की ही शंकाओं का समाधान होने के उपरान्त ही कन्यादान हुआ।
कन्यादान का अर्थ कन्या को त्यागना नहीं होता!
इस अद्भुत विवाह के माध्यम से कन्यादान की महत्ता एवं यह बात स्पष्ट होती है कि हिन्दू धर्म में कन्यादान क्या है? कन्यादान तब तक कोई भी मातापिता नहीं करते हैं, जब तक वह इस बात से संतुष्ट न हो जाएं कि वर पूर्णतया उनकी पुत्री के योग्य है या नहीं। फिर चाहे वह महादेव ही क्यों न हों, कन्या के मातापिता तो कन्यादान से पूर्व हर परीक्षा लेंगे ही लेंगे!
वर की बरात में हर कोई उनके अनुकूल है या नहीं, वर का कुल गोत्र उनकी पुत्री के सम्मान के अनुसार है या नहीं!
दान को चैरिटी मानने वाले लोगों के लिए महाशिवरात्रि का अवसर है कि वह विवाह को जानें, वह कन्यादान को जानें, वह शिव को जानें!
नहीं तो अधकचरी सोच, हिन्दुओं को बदनाम करने वाली अवधारणा पर ही चलती रहेगी!
हिन्दूपोस्ट के सभी पाठकों को महाशिवरात्रि की शुभकामनाएँ