भारत का इतिहास लिखने वाले भी अजीब रहे हैं, गुलामी मानसिकता से भरपूर। भारत का मध्यकाल उनके लिए मात्र मुग़ल काल ही रहा तो वहीं हिन्दू नायकों को भुलाया जाता रहा। ऐसा कुचक्र रचा गया कि मुग़ल तो महान पर महान बनते रहे और हिन्दू शासक कहीं गायब होते रहे। जिन हिन्दू राजाओं ने संघर्ष किया, वह इतिहास से विलुप्त हो गए, या फिर रहे तो उन्हें जानते बूझते पराजित दिखाया गया।
जैसे महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी आदि! आज जब हम चेतना के उस द्वार पर खड़े हैं, जहाँ पर हमारी स्मृति बार बार टकराकर यही कहती है कि हम यह नहीं थे, जो हमें बना दिया गया! हम वह नहीं हैं जो हमें पुस्तकों में प्रदर्शित किया जा रहा है, फिर जब हमारे नायकों की जयंती आती है तो हमारी चेतना कुछ ऐसा खोजने का प्रयास करती है जो पन्नों में तो है, परन्तु विमर्श में नहीं!
आज ऐसे ही एक नायक की जयंती है, जिनके स्मरण मात्र से ही अंग-अंग में साहस का संचार हो जाता है। आज जयंती है महाराणा प्रताप की, जिन्होनें उस अकबर की सेना को हल्दी घाटी में पीछे हटने के लिए विवश कर दिया था, जिसे इतिहासकारों ने सबसे महान बताया है। जिसकी महानता के किस्से गढ़े गए और जिसे ऐसा व्यक्ति बताया गया, जिसकी समानता और सहिष्णुता की नीति ही भारत में आगे चलकर शासकों का आधार बनी।
परन्तु सत्य वह नहीं था, सत्य वह था, जिसे छिपा लिया गया था। सत्य वह था जिसे कहा नहीं गया। सत्य वह था चेतना में था।
महाराणा प्रताप ने अपनी मातृभूमि की रक्षा की शपथ ली थी और यह सोच रखा था कि वह मुगलों के समक्ष शस्त्र नहीं डालेंगे। देह का क्या है, एक न एक दिन नष्ट हो ही जाएगी परन्तु मानसम्मान, और आने वाली पीढ़ियों के हाथों में क्या कायरता सौंप कर जाएंगे? वह बार बार दोहराते होंगे! अकबर का विजय रथ निरंकुश होकर आगे बढ़ रहा था, वह चलता जाता और लोग मरते जाते।
रक्त से सने जनेऊ के ढेर लगते जाते, सिरों की मीनारें बनती जातीं! वैसे भी हेमू का वध करके ही उसने गाजी की उपाधि धारण की थी। ऐसे में मेवाड़ के शासक महाराणा प्रताप के लिए यह बहुत आवश्यक था कि वह अकबर को दूर रखें। अकबर से लोहा लेते रहें। वह लोहा लेते रहे, अपनी अंतिम सांस तक!
हल्दी घाटी का युद्ध ऐसा युद्ध है जिसमें मुग़ल सेना की पराजय हुई, परन्तु कहा यह गया कि राजपूतों को अपने कदम वापस लेने पड़े। परन्तु जो सबसे महत्वपूर्ण है, और जिसे विसेंट स्मिथ ने अपनी पुस्तक अकबर द ग्रेट मुगल में लिखा है, उसे पढ़ना आवशक है और उसे समझना आवश्यक है!
विसेंट स्मिथ लिखते हैं कि
“यह युद्ध जून 1576 में खमनौर के गाँव के निकट हुआ। उस समय बदाऊंनी, जो अकबर के दरबार में इमाम था, उसने इस पाक जंग में जाने के लिए विशेष छुट्टी ली थी और उसने आसफ खान के अनुयायी के रूप में भाग लिया था। युद्ध में उसका वर्णन एकदम सटीक है। उसने गर्मी के बावजूद जंग का लुत्फ़ उठाया।
एक ऐसा क्षण आया जब इस युद्ध में यह समझ नहीं आया कि दोस्त और दुश्मन राजपूतों को कैसे पहचाना जाए क्योंकि वह कहीं अपने ही खेमे के राजपूतों को न मार दे तो उससे कहा गया कि “कोई फर्क नहीं पड़ता कि किस ओर के राजपूत मारे जा रहे हैं; जो भी मारे जाएं यह इस्लाम के लिए फायदा है!”
अर्थात हिन्दुओं को ही एक दूसरे से लड़वा कर उनकी ही भूमि पर उन्हें मारा गया।
यह युद्ध बहुत भयानक था। दोनों ही ओर राजपूत लड़ रहे थे और साथ ही लड़ रहे थे अकबर की ओर से वह रहीम, जो हिन्दुओं के आराध्यों के लिए दोहे लिखते थे और फिर जाकर हिन्दुओं को ही मारने के लिए युद्ध का हिस्सा बने थे। इस युद्ध में लगभग पांच हजार राजपूत महाराणा प्रताप की सेना के वीरगति को प्राप्त हुए और महाराणा प्रताप घायल होकर वहां से चले गए!
क्योंकि उन्हें अपने मेवाड़ को मुक्त कराना था। इतिहास में मुगल सेना को विजयी घोषित कर दिया, जबकि सत्यता विसेंट स्मिथ भी लिखते हैं कि मुगल सेना पराजय की कगार पर पहुँच गयी थी।
महाराणा प्रताप ने बाद में मेवाड़ के लगभग सभी क्षेत्रों को मुगल सेना से मुक्त कर लिया था। और बाद में अकबर का ही साहस उनसे टकराने का नहीं हुआ क्योंकि वह शेष राज्यों में विद्रोह को दबाने में लगा हुआ था।
पूरे मुग़ल काल में हर कथित बादशाह के शासनकाल में हिन्दुओं ने संघर्ष किया है और नायकों से भरा हुआ है इतिहास, परन्तु गुलाम और वाम मानसिकता ने हमें सदा पराजित ही दिखाया है, समय आ गया है इतिहास को अपनी चेतना से लिखने का, क्योंकि श्रुति अमर रहती है, श्रुति चेतना में रहती है और चेतना का इतिहास सबसे महत्वपूर्ण होता है!