भारत में हिन्दू इस समय अपने पर्व मनाने में व्यस्त है। वह अपने देवी देवताओं के विभिन्न रूपों को स्मरण कर रहा है। सावन में महादेव का माह मनाने के बाद पितृ पक्ष और फिर उसके बाद नवरात्र, फिर दशहरा, करवाचौथ, दीपावली और छठ पूजा एवं उसके उपरांत कार्तिक पूर्णिमा आदि तक हिन्दुओं के पर्व चलते हैं। हिन्दू अपने हर पर्व एवं जीवन के हर आयाम का उत्सव मनाते हैं। यह उत्सव प्रकृति के साथ साथ, उनके देवों के साथ जुड़ा होता है। हर पर्व में भगवान की कोई न कोई कथा होती है।
एवं यह पर्व ही हैं, जो भारत के समस्त हिन्दुओं को एक छोर से दूसरे छोर तक एक डोर में बांधे रहते हैं। दीपावली पर सभी हिन्दू अपने प्रभु श्री राम की अयोध्या वापसी का उत्सव मनाते हैं। परन्तु अब एक नयी प्रवृत्ति देखने को मिल रही है। वामपंथियों की यह प्रवृत्ति अत्यंत घातक है, जो हिन्दू धर्म को तोड़ने के लिए पर्याप्त है, इसका विरोध हर हिन्दू को करना चाहिए। विरोध से पहले उसे समझना आवश्यक है।
वामपंथी लेखक या विचारक अब धर्म और संस्कृति को दो पृथक श्रेणियों में वर्गीकृत करने लगे हैं। अर्थात दुर्गापूजा “बंगाल” की संस्कृति है, इसका हिन्दू धर्म या उत्तर भारत में होने वाली पूजा से कोई सम्बन्ध नहीं है। कई वर्षों से एक ट्रेंड चलाया जा रहा है, durgapujaforall। अर्थात सभी के लिए दुर्गा पूजा। अब इसमें सभी में कौन सम्मिलित है? प्रश्न यह है और दुर्गा पूजा का रूप क्या है? दुर्गा पूजा का स्वरुप क्या है, दुर्गापूजा का उद्देश्य क्या है?
बांग्लादेश में हिन्दुओं के साथ हुई हिंसा हर हिन्दू को काफी लम्बे समय तक याद रहेगी। हिन्दुओं का पर्व किसने बिगाड़ा? किसने हिन्दुओं को उन्हीं के पर्व के दौरान मारा? किसने उन्हें जलाया? यह सभी को ज्ञात है और किस प्रकार षड्यंत्र रचकर उन्हें मारा गया, उन्हीं दुर्गा माँ की प्रतिमा को तोड़ा गया, जिनके नाम पर दुर्गा पूजा फॉर आल का ट्रेंड चलाया जा रहा था। मगर फिर भी हिन्दू धर्म से दुर्गापूजा को बाहर निकालने के षड्यंत्र सम्मिलित थे।
जो दोषी थे और जो मार रहे थे, उनके हर पाप को इस ट्रेंड ने धो दिया और उन्हें निष्पाप और निष्कलुष सा प्रमाणित कर दिया। परन्तु बांग्लादेश की स्थिति देखकर stories of Bengali Hindus नामक ट्विटर हैंडल ने ट्वीट किया कि यह ट्रेंड #DurgaPuja4All एक क्रूर मजाक से अधिक नहीं है। कई ऐसे एकाउंट्स जो इस हैशटैग को बहुत गंभीरता से चलाया, उन्होंने हमारे लोगों पर हमलों और तोड़फोड़ के सभी पापों को धो दिया है। एक भी साल ऐसा नहीं गया है, जब हमने बिना हमले के पुजो की होगी।
दुर्गापूजा जो शक्ति का उत्सव है, उसे हार्मोनी अर्थात सामंजस्य का पर्व बना दिया। पर किसके बीच सामंजस्य? किसके मध्य हार्मोनी? यह प्रश्न अनुत्तरित है! यह इसलिए अनुत्तरित है क्योंकि इस्लाम के समक्ष आत्मसमर्पण है और इन पर्वों की हिन्दू पहचान छीनने के षड्यंत्र के साथ साथ मुस्लिमों ने जो भी किया, उसे भी इतिहास के साथ साथ हिन्दुओं के मन से मिटाने का षड्यंत्र है।
जैसे बीबीसी और द प्रिंट जैसे पोर्टल हर हिन्दू त्यौहार के आते ही लेख प्रकाशित करने लगते हैं कि कैसे मुग़ल या मुस्लिम मनाते थे हिन्दू त्यौहार? या कैसे मनाते थे दीपावली? कैसे मनाते थे दशहरा? मुस्लिम सत्ता कैसे यह सब पर्व मनाती थी या उसका दृष्टिकोण क्या रहता था, इसके विषय में बहुत अधिक खोजने की आवश्यकता इसलिए नहीं है क्योंकि समय समय पर मुस्लिम इसका उदाहरण पूरे विश्व में प्रस्तुत करने लगते हैं। जैसा हाल ही में हमने बांग्लादेश में देखा।
दीपावली के आते ही उसे भी मात्र प्रकाश पर्व या फिर फेस्टिवल ऑफ लाईट कहा जाने लगा। उसे उर्दू में जश्न-ए-चिराग कहा जाने लगा। ऐसे कई उदाहरण भी सामने आए। मुस्लिम पोर्टल siasat।com पर एक लेख था “जश्न-ए-चिराग (दीपावली) भारत में मुगलों की समानता का उदाहरण था!”
और इस लेख में बिना किसी प्रमाण के यह स्थापित करने का प्रयास किया गया कि मुग़ल दीपावली मनाते थे, अर्थात प्रकाशपर्व मनाते थे। पर हिन्दुओं की दीपावली मात्र प्रकाशपर्व ही तो नहीं है, वह प्रकाशपर्व से कहीं अधिक है।
प्रकाश इसलिए है क्योंकि उस दिन प्रभु श्री राम अपने वनवास को समाप्त कर वापस अयोध्या में आए थे। क्या जश्न-ए-चिराग में प्रभु श्री राम की पूजा सम्मिलित है?
क्या इस फेस्टिव सीजन में प्रभु श्री राम की अयोध्यावापसी का हर्षोल्लास है? क्या उसमें वही पवित्रता है जो प्रभु श्री राम के चरणों का स्मरण कर प्राप्त हो रही है? यदि नहीं, तो जश्न-ए-चिराग सब कुछ हो सकता है, दीपावली नहीं।
कई एजेंडा पोर्टल्स ने इस पर्व से धार्मिकता छीनकर इसे मुगलों की ओर से हिन्दुओं पर किया गया अहसान बता दिया। बिना किसी प्रमाण के यह कहा जाने लगा कि इसे तो बाबर भी मनाया करता था? परन्तु इस बात पर मौन हैं कि इस मनाने में प्रभु श्री राम की पूजा सम्मिलित हुआ करती थी या नहीं? जैसे तीस्ता सीतलवाड़ का यह पोर्टल! मजे की बात यह है कि तीस्ता सीतलवाड़ साम्प्रदायिकता से लड़ने की बात कर रही हैं!
जबकि जश्न-ए-चिरागाँ केवल दीपावली तक ही सीमित नहीं है, वह किसी भी जश्न के अवसर को इस शब्द का नाम दे सकते हैं: जैसे पैगम्बर मुहम्मद के जन्म का मौक़ा!
दुर्गापूजा को सेक्युलर पर्व, और दीपावली से प्रभु श्री राम की पहचान छीनने का असफल प्रयास करने के बाद बुद्धिजीवी अब सामने आए हैं, एकदम नए रूप में, एकदम नए षड्यंत्र के साथ। वैसे तो पहले से चलता आ रहा होगा। परन्तु यह कुछ हर खेमे का फायदा उठाने वाले सेक्युलर या कहीं गांधीवादी साहित्यकारों द्वारा अधिक किया जा रहा है कि इसे हिन्दू धर्म से अलग कर दिया जाए!
उसके लिए यह तर्क देते हैं कि छठ के व्रत में किसी पंडित या पुजारी की आवश्यकता नहीं होती। हिन्दुओं को अपने सरल पर्व की पूजा पद्धति स्मरण होती है, इसलिए वह न ही होली, न ही नवरात्रि, न ही दीपावली, एकादशी, शरद पूर्णिमा आदि पर किसी भी मंदिर के पुरोहित की शरण लेते हैं। हाँ, कई अनुष्ठान हैं, जिनके लिए श्रम एवं उचित ज्ञान की आवश्यकता होती है, उसके लिए वह हर उस उचित स्थान पर जाते हैं, जहाँ पर उन्हें लगता है जाना चाहिए। ऐसे में कुछ कुबुद्धिजीवियों द्वारा यह प्रचारित किया जा रहा है कि छठ तो लोक पर्व है, इसे हिन्दुओं के साथ न जोड़ें, क्योंकि इससे समाज के हर वर्ग को कुछ न कुछ काम मिलता है!
ऐसा तो हर पर्व के साथ है। होली, दीपावली, नवरात्रि हर पर्व पर समाज के हर वर्ग को कार्य मिलता है। हिन्दुओं की अर्थव्यवस्था इन्हीं धार्मिक उत्सवों एवं मेलों और हाटों पर भी आधारित हुआ करती थी। कुछ दिनों से ही यह नाटक आरम्भ हो गया है। और अब छठ पर्व को स्त्रियों के मध्य ही विभाजन के लिए प्रयोग किया जाने का कुटिल षड्यंत्र आरम्भ हुआ है।
यह कहा जाने लगा है कि छठ पर्व प्रकृति का पर्व है, सामंजस्य का पर्व है, इसे हिन्दू और मुस्लिम में विभाजित न किया जाए। परन्तु यदि इस वर्ग से यह पूछा जाए कि क्या कोई मुस्लिम उन मन्त्रों को पढ़ेगा और सूर्य भगवान को “भगवान” मानकर प्रणाम करते हुए व्रत करता है या करती है, तो उसकी तस्वीर दिखा दें, वह यह नहीं दिखा पाते हैं।
परन्तु अपने शातिर क़दमों से बार बार हिन्दुओं के पर्वों से हिन्दू पहचान और हिन्दू धर्म छीनते जा रहे हैं, या कम से कम षड्यंत्र तो कर ही रहे हैं। परन्तु उनके षड्यंत्र का उत्तर कई हिन्दू दे रहे हैं, जो यह कह रहे हैं कि उनके क्षेत्र में मुस्लिम छठ का व्रत नहीं रहते हैं। इस बात का उत्तर भी छठ पर्व मनाने वाले कई पंडित देते हैं कि छठ में पंडित या पुरोहित की आवश्यकता नहीं होती है ।
पंडित भावनाथ झा ने अपने ब्लॉग में इस विषय में लिखा है कि संस्कृत में वेद तथा पुराण से संकलित मन्त्र हैं। मगध में ङी ऐसी पद्धति है, मिथिला में तो बहुत पुराना विधान है। म.म. रुद्रधर ने प्रतीहारषष्ठीपूजाविधिः के नाम इसकी पुरानी विधि दी है। वर्षकृत्य में यह विधि उपलब्ध है। सच्चाई यह है कि छठ-पर्व में पण्डित/पुरोहित पर्याप्त संख्या में मिलते नहीं हैं। जो हैं वे बड़े-बड़े लोगों के द्वारा अपने घाट पर बुला लिये जाते हैं। ये बड़े-बड़े लोग पर्याप्त दक्षिणा देकर विधानपूर्वक पूजा कराते हैं, प्रातःकाल कथा सुनते हैं। पण्डित/पुरोहित को आकृष्ट करने के लिए साम-दाम-दण्ड-भेद सबका प्रयोग तक कर बैठते हैं।
जबकि बिहार के साहित्यकारों का एक बड़ा वर्ग इस झूठ को फैला रहा है कि चूंकि इसमें पंडित और पुरोहितों का हस्तक्षेप नहीं है और साथ ही यह प्रकृति पर्व है, इसलिए इसे हिन्दू न माना जाए जबकि छठ में सूर्य के मन्त्र स्वयं को विशुद्ध हिन्दू पर्व प्रमाणित कर रहे हैं!
वामपंथियों द्वारा हिन्दू आस्था पर किया गया यह आक्रमण अब तक का सबसे भयानक आक्रमण है क्योंकि यह सॉफ्ट है और यह कथित हार्मोनी के पैकेज में है, कि पर्व हार्मोनी के लिए होते हैं! यह सत्य है कि हिन्दुओं के पर्व हार्मोनी अर्थात सामंजस्य के लिए होते हैं, पर अधर्म का नाश करने के बाद। जैसे दुर्गापूजा! माँ दुर्गा द्वारा महिषासुर वध करने के बाद, हम उत्सव मनाते हैं। दशहरा हम इसलिए मनाते हैं जिससे विवाहिता स्त्री पर कुदृष्टि डालने वाले रावण वध को स्मरण कर सकें, नरक चौदस इसलिए क्योंकि कृष्ण जी द्वारा नरकासुर वध को स्मरण कर सकें!
एवं दीपावली इसलिए क्योंकि हम धर्म (रिलिजन नहीं) के उजास के दीपक जला सकें क्योंकि जीवंत धर्म प्रभु श्री राम अब पापी रावण का वध करके लौट रहे हैं!
हमारे पर्व वामपंथियों की झूठी कायरतापूर्ण एवं हिन्दू-विरोधी हार्मोनी के टूल नहीं हैं, जो हिन्दुओं का ही अंतत: विनाश करने के लिए गढ़ी गयी है।