(यह श्री पुरुषोत्तम की पुस्तक “सूफियों द्वारा भारत का इस्लामीकरण” का हिंदी में पुनर्प्रस्तुतिकरण है। इसे तीन भाग श्रंखला के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। यह तीसरी श्रृंखला है, आप भाग 1 और 2 यहाँ पढ़ सकते हैं)
प्रस्तावना
यह अत्यधिक रूप से प्रचारित किया जाता है कि सूफीवाद अध्यात्मवाद और रहस्यवाद से भरा है और ‘हिंदू-मुस्लिम’ एकता और सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा देने का एक बहुत प्रभावी साधन हो सकता है, जबकि तथ्य इसके विपरीत है ।
अजमेर के मुइनुद्दीन चिश्ती का भारत के सूफी संतों में पवित्र और प्रतिष्ठित नाम है। उसे आमतौर पर गरीब भिखारियों के दोस्त,गरीब नवाज़ के नाम से जाना जाता है। अकबर ‘महान’ ने इस दरगाह की कई बार पैदल यात्रा की। इससे उसकी प्रतिष्ठा में काफी वृद्धि हुई।
उसे सूफी फकीरता और धर्मनिरपेक्षता के उदाहरण के रूप में पेश किया जाता है, जिसने सभी जरूरतमंद व्यक्तियों की, उनकी व्यक्तिगत आस्था की परवाह किए बिना,देखभाल की। हालांकि भारत के इस्लामीकरण में उसने जो प्रमुख भूमिका निभाई उसके बारे में बहुत कम जानकारी है,और जिसे वह आज भी,अपनी मृत्यु के 800 वर्षों के बाद भी निभा रहे हैं। हम यहाँ नीचे, सतरहवीं शताब्दी के मध्य में संकलित ‘सिया-अल-अक्तब’ से उनके जीवनचरित्र को पाठकों के सामने प्रस्तुत कर रहे हैं, जैसा कि पी.एम क्यूरी की पुस्तक “द श्राइन एंड कल्ट ऑफ मोइनुद्दीन चिश्ती ऑफ अजमेर” में उद्धृत किया गया है। (ऑक्सफोर्ड)
“मुइनुद्दीन हसन अल-हुसैनी अल-सीज़ी चिश्ती अपने चमत्कारों और तपस्या के लिए प्रसिद्ध था और पूर्णता के सभी गुणों से संपन्न था। उसकी प्रतिष्ठा काफी उच्च थी और वह एक महान चिकित्सक था। वह सच्चे वंश का सय्यद था। उसकी वंशावली में कोई संदेह नहीं है। उसने इमाम-अल-अवलिया उस्मान-हरवानी से गरीबी (फ़क़्र)और शिष्यत्व का लबादा पहना था। उसके हिंदुस्तान आने से यहाँ इस्लाम का रास्ता (तारिक) स्थापित हुआ। उसने स्पष्ट कारणों और तर्कों का खुलासा करके अविश्वास और ‘शिर्क’ के अंधेरे को नष्ट कर दिया,जो अनादि काल से वहां व्याप्त था। इसी वजह से मुइनुद्दीन को नबी-उल-हिंद (हिंद का पैगंबर यानी भारत) कहा जाता है। वह सत्तर वर्षों तक प्रार्थना से पहले प्रक्षालन के नियम का पालन करता रहा। जिस किसी पर भी उसकी कृपा दृष्टि पड़ी वह व्यक्ति तुरंत अल्लाह के पास लाया गया। जब भी कोई पापी उसकी प्रबुद्ध उपस्थिति में आया उसने तुरंत पश्चाताप किया (इस्लाम के सच्चे विश्वास को स्वीकार किया)। “
“हर बार जब उसने कुरान पढ़ना समाप्त किया तो अदृश्य दुनिया से एक आवाज आई, हे मोइनुद्दीन! तुम्हारा पाठ स्वीकार कर लिया गया है । “
“यद्यपि यह कहा गया है कि मुइनुद्दीन अपने चमत्कारों से कितना भी सोना उत्पन्न कर सकता था,यह निश्चित है कि उसके पास धन की कोई कमी नहीं थी। ऐसा कहा जाता है कि मुइनुद्दीन की रसोई में रोज इतना खाना बनता था कि पूरे शहर के सभी गरीब लोग भर पेट खा सकते थे। इसका प्रभारी सेवक प्रतिदिन फकीर के पास खर्च की रकम के लिए जाता था। वह सम्मान में हाथ जोड़कर वहाँ खड़ा रहता था। मुइनुद्दीन अपनी प्रार्थना के गलीचे के एक कोने को एक तरफ ले जाकर पर्याप्त खजाना प्रकट करता और अपने नौकर से कहता कि इस खजाने से इतना सोना ले लो कि उस दिन की रसोई का खर्चा चल सके। “
“कहा जाता है कि एक बार जब वह पैगंबर मोहम्मद की पवित्र कब्र की तीर्थ यात्रा करने गया तो एक दिन उस पवित्र मकबरे के अंदर से एक आवाज़ आई- “मुइनुद्दीन को बुलाओ। ” जब मुइनुद्दीन दरवाजे पर आया तो वहीं खड़े होकर उसने देखा कि वह उपस्थिति उससे बात कर रही है- “मुइनुद्दीन तुम मेरे विश्वास का सार/सत्व हो; लेकिन तुम्हें हिंदुस्तान जाना होगा। वहाँ अजमेर नाम का एक स्थान है जिसमें मेरा एक पुत्र (वंशज) पवित्र युद्ध के लिए गया था और शहीद हो गया है और वह स्थान फिर से काफिरों के हाथ में चला गया है। वहां तुम्हारे कदमों की कृपा से एक बार फिर इस्लाम प्रगट होगा और काफिरों को अल्लाह के खौफ से दंड मिलेगा।”
तद्नुसार मुइनुद्दीन हिंदुस्तान के अजमेर पहुंचा। वहां उसने कहा-” अल्लाह की इबादत हो, वह गौरवान्वित हों क्योंकि मैंने अपने भाई की संपत्ति पर अधिकार कर लिया है। हालांकि उस समय झील के चारों और मूर्तियों वाले कई मंदिर थे,जब ख्वाजा ने उन्हें देखा तो उसने कहा- अगर अल्लाह और उनके पैगंबर ऐसा चाहते हैं तो मुझे इन मूर्ति वाले मंदिरों को धराशाई करने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। “
फिर उसके, हिंदू देवी देवताओं और शिष्यों को वशीभूत करने की कई कहानियाँ हैं ,जो उसके वहाँ बसने का कड़ा विरोध कर रहे थे। ऐसे लोगों में राय पिथौरा(पृथ्वीराज चौहान का एक कर्मचारी) भी था। ख्वाजा ने राय पिथौरा के सामने अपनी बात रखी जिसे उसने ठुकरा दिया।
ऐसा प्रतीत होता है कि चमत्कारों से रहित कहानी बस यह है कि ख्वाजा मूर्ति पूजा और बुतपरस्ती को मिटाने और उसके स्थान पर इस्लाम स्थापित करने के लिए भारत आया था। उसने राय पिथौरा के स्थानीय गवर्नर और यहां तक कि स्वयं राय पिथौरा द्वारा भी बहुत प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। अपने खजाने की मदद से कई भोले भाले हिंदुओं को अपने विश्वास में परिवर्तित करने के बाद वह राय पिथौरा को इस्लाम में परिवर्तित होने के लिए आमंत्रित करने के लिए पर्याप्त मजबूत हो गया। उसे मनाने में विफल रहने पर ख्वाजा गजनी के पास गया या सुल्तान शिहाबुद्दीन गोरी को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया। शिहाबुद्दीन ने कई असफल आक्रमण किये। राय पिथौरा ने उसकी हर हार के बाद बिना नुकसान पहुँचाए उसे वापस जाने की अनुमति दी। अंततः उसने पृथ्वीराज चौहान को हरा दिया और उसे मार डाला । कड़े विरोध के बावजूद मुनिउद्दीन का भारत में इस्लाम के अग्रदूत के रूप में एक अनूठा स्थान है। यह विषय पूरे सियार-अल- अवलिया में दिखाई देता है। यहां मुइनुद्दीन को भारत की इस्लामी विजय का श्रेय दिया जाता है।
विरोध को शांत करने और जोगी अजय पाल को इस्लाम में धर्मांतरित करने के बाद मुइनुद्दीन उन के मंदिर में रहने लगा जिसे बाद में उसकी दरगाह में परिवर्तित कर दिया गया। सियार-अल-अकताब में इसके सबूत हैं। मुइनुद्दीन की दरगाह के बुलंद दरवाज़े में जाहिर तौर पर एक हिंदू मंदिर से तराशे गए पत्थरों को समाविष्ट किया गया है। परंपरा कहती है कि तहखाने के अंदर एक मंदिर में महादेव की एक छवि है जिस पर एक ब्राह्मण द्वारा प्रतिदिन चंदन का लेप लगाया जाता है। मंदिर अभी भी एक हिंदू परिवार को चंदन का पेस्ट तैयार करने के लिए नियुक्त करता है जिसे अब मुइनुद्दीन की कब्र पर लगाया जाता है। कम से कम यह उनके अनुयायियों के लिए एक उपयोगी व्याख्या के रूप में कार्य करता है कि क्यों मुइनुद्दीन, जिसे कहीं और एक शक्तिशाली प्रचारक(इस्लाम के धर्म प्रचारक) के रूप में चित्रित किया गया है,को हिंदुओं के पवित्र भूमि पर दफनाया गया है ।
‘सियार-अल-अरिफिन’ संतो के इस राजकुमार, गरीबों की शरणस्थली और हिंदू मुस्लिम एकता के अग्रदूत के जीवन कार्य को सारांशित करता है। “उनके (मुइनुद्दीन) हिंदुस्तान आने से यहां ‘इस्लाम का रास्ता’ स्थापित हुआ। उसने अविश्वास के अंधेरे को नष्ट कर दिया। उसके आने से इस देश में अविश्वास का अंधेरा इस्लाम के प्रकाश से प्रकाशित हुआ। ” अमीर खुर्द में दो छंद शामिल हैं जो मुइनुद्दीन के भारत आने से पहले और बाद में, भारत की विपरीत स्थिति के बारे में है। उसके अनुसार पहले, भारत में सभी धर्म और कानून के आदेशों से अनभिज्ञ थे ।
“सभी अल्लाह और उसके पैगंबर से अनजान थे। काबा को किसी ने नहीं देखा था। किसी ने अल्लाह की महानता के बारे में नहीं सुना था। ” भारत में मुइनुद्दीन के आने के बाद, “उसकी तलवार के कारण, मूर्ति और मंदिरों के बजाय इस अविश्वास की भूमि में, मस्जिद मिंबर और मेहराब हैं। ” जिस भूमि में मूर्ति पूजकों की बातें सुनी गई वहां अब अल्लाह-अकबर की आवाज है। “
फिर भी भारत के लगभग हर प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति ने हिंदुओं के इस हत्यारे और उनके मंदिरों को नष्ट करने वाले की मजार पर स्वयं को नम्न किया है। हाल ही में सुषमा स्वराज, सांसद, ने संसद में खुलासा किया कि नास्तिक होने का दावा करने वाले रेल मंत्री श्री रामविलास पासवान जी भी इस मजार पर आशीर्वाद लेने गए थे। क्या यह अज्ञानता है ? अंधविश्वास है ? या राजनीतिक दिखावा है ?कौन कह सकता है ?
बहुतायत में धर्मांतरण
सैयद आदम बन्नूरी (डी 1643) के खानकाह में रोज एक हजार लोग आते हैं। वह खानकाह में खाना खाते हैं। इस फकीर की राह पर चलने वाले हजारों लोग हैं। तज़कीरा-ए-अदमिया में कहा गया है कि 1642 में लाहौर की उसकी यात्रा के दौरान, दस हजार लोगों ने उसके परिचारकगण के दल का गठन किया था। सैयद बन्नूरी की अभूतपूर्व लोकप्रियता को देखकर सम्राट शाहजहां इतना आशंकित हो गया कि उसने उसे भारत से बाहर भेजने की योजना बनाई। उसने उसे एक बड़ी धनराशि भेजी और सुझाव दिया कि जब पैसे अधिक हो जाएं तो एक मुसलमान के लिए हज यात्रा अनिवार्य हो जाती है। उसे इस कर्तव्य का निर्वहन करने के लिए हेजाज़ की ओर बढ़ने में कोई समय बर्बाद नहीं करना चाहिए। फकीर उसके बाद भारत से चला गया।
हजरत मुजादीद के प्रसिद्ध बेटे और आध्यात्मिक प्रतिनिधि ख्वाजा मोहम्मद मासूम (डी 1668) के नौ लाख शिष्य थे जिन्होंने बाई-अत और उनके सामने पश्चाताप किया। उनमें से 7000 उसके खलीफा बन गए।
सर सैयद अहमद खान के ‘असर-उल-सनदीद’ में शाह गुलाम अली के बारे में ये कहा गया है कि उसके खानकाह में पाँच सौ से कम निराश्रित व्यक्ति नहीं रहते थे। उन सभी के लिये उसके द्वारा खाने और पहनने की व्यवस्था की जाती थी।
उन्नीसवीं शताब्दी के प्रसिद्ध, दिव्य और आध्यात्मिक नेता सैयद अहमद शहीद के धर्म प्रचारक दौरों के दौरान, हज के लिए अरब जाते समय और उसकी कलकत्ता यात्रा के दौरान भी लोकप्रिय उत्साह के अभूतपूर्व दृश्य देखे गए। सैयद साहब के मार्ग पर पड़ने वाले कई नगरों में कुछ ही ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने उन्हें बाई-अत न पेश की हो और उनके सामने पश्चाताप न किया हो। इलाहाबाद,मिर्जापुर,वाराणसी,गाजीपुर अजीमाबाद (पटना) और कोलकाता में विशेष रूप से उनके शिष्यों की संख्या लाखों में रही होगी।
सीमा यह थी कि वाराणसी में सदर अस्पताल के मरीजों ने उन्हें एक याचिका भेजी कि चूंकि वे बाहर निकलने में असमर्थ हैं इसलिए वे चाहते हैं कि वे अस्पताल में उनसे मिलने की कृपा करें ताकि वे बाई-अत ले सकें। उनके दो महीने के कोलकाता प्रवास के दौरान प्रतिदिन लगभग हजार लोग उनके शिष्य बन गए। सुबह से देर रात तक जहां वह रहते वहाँ स्त्री पुरुषों की कतार लगी रहती थी। सैयद साहब के पास अपनी निजी जरूरतों को पूरा करने के लिए शायद ही कोई समय बचा हो । जब सभी को व्यक्तिगत रूप से शपथ दिलाना असंभव हो गया तो उम्मीदवारों के लिए एक बड़े घर में इकट्ठा होने की व्यवस्था की गई जहां सैयद साहब जाते और उन्हें धर्मसंघ में दीक्षित करते। जब वे वहां जाते तो 7-8 पगड़ियाँ जमीन पर बिछा दी जातीं और उम्मीदवारों को उन्हें अलग-अलग जगहों पर पकड़ने के लिए कहा जाता जबकि उनमें से एक सिरा खुद सैयद साहब के पास होता। फिर उन्हें धर्म के मूल सिद्धांतों की शिक्षा दी जाती और अजान की तरह ऊँची आवाज़ में शपथ पढ़ी जाती जिसे शिष्य दोहराते और इस तरह अनुष्ठान पूरा होता। यह हर दिन सत्रह या अठारह बार किया जाता।
कश्मीर का इस्लामीकरण
कश्मीर, तलवार और सूफियों द्वारा इस्लामीकरण का एक विशिष्ट उदाहरण है। कश्मीर का इस्लामीकरण करने के लिए बल प्रयोग करने वाले सुल्तानों में सबसे कुख्यात सिकंदर-बत- शिकन(आइकॉनोक्लास्ट) है। इस सुल्तान के बारे में(1389-1431) कल्हण अपनी राजतरंगिनी में कहते हैं- “सुल्तान अपनी गद्दी के सारे कामों को भूल कर दिन-रात मूर्तियों को नष्ट करने में आनंद लेता था। उसने मार्तंड,विष्णु, ईशान,चक्रवर्ती और त्रिपुरेश्वर की मूर्तियों को नष्ट कर दिया। कोई जंगल, गांव, कस्बा या शहर नहीं बचा जहां तुरुष्क और उसके मंत्रियों ने किसी मंदिर को नष्ट ना किया हो। “
लेकिन कश्मीर के इस्लामीकरण का असली श्रेय सूफियों को जाता है। सिकंदर एक गुजरता हुआ दौर था जो केवल 42 साल जीवित रहा। सूफियों द्वारा धर्मांतरण एक सतत प्रक्रिया थी जो लगभग अप्रत्यक्ष थी और जो सदियों तक चली। सिकंदर द्वारा धर्म परिवर्तन घोर आतंक से हुआ था। लेकिन सूफियों ने ऐसी स्थितियां निर्मित कि जहां हिंदू स्वेच्छा से उनके पास आए और धर्मांतरित हो गये।
हिंदू कश्मीर को मुस्लिम कश्मीर में परिवर्तित करने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले सूफियों में शेख नूरुद्दीन जो “ऋषि नूर’ के नाम से भी जाना जाता है एक प्रतिष्ठित नाम है ।
चरार ए शरीफ को जलाना
10-11 मई,1995 की रात को उसके मकबरे को जो “चरार-ए- शरीफ के नाम से जाना जाता था, मुस्लिम आतंकवादियों द्वारा जला दिया गया। भारतीय प्रेस ने हमेशा की तरह इसे “सूफी फकीर नूरुद्दीन नूरानी की पवित्र दरगाह”(इंडिया टुडे), “धर्मनिरपेक्षता का प्रतीक, सांस्कृतिक पहचान का सबसे मूल्यवान प्रतीक” (फ्रंटलाइन),”ऋषियों का निवास” (द इकोनामिक टाइम्स),सांस्कृतिक पहचान के इस कथित धर्मनिरपेक्ष प्रतीक के पूर्व जीवन के बारे में जाने बिना उसका इस प्रकार से महिमामंडन किया। कम्युनिस्ट नेता इंद्रजीत गुप्ता ने उसे “सांप्रदायिक एकता का प्रतीक” बताया। एक वरिष्ठ कम्युनिस्ट नेता होने के नाते उन्हें रूस को अस्थिर करने वाले इन सूफी संतों की भूमिका के बारे में पता होना चाहिए। सोवियत इस्लाम के विशेषज्ञ माने जाने वाले बेनिंगसेन कहते हैं -“ये सूफी नियोग सोवियत शासन के सबसे अड़ियल और खतरनाक विरोधियों में से हैं क्योंकि वे यूएसएसआर के मुस्लिम क्षेत्रों में, नाभिक मुस्लिम क्षेत्रों में सांप्रदायिक और यहां तक कि राष्ट्रीय आंदोलनों के लिए,एकमात्र प्रामाणिक सोवियत विरोधी जन संगठन आंदोलन है।
काकेशस में सूफी नियोगों ने, 1928 के बाद गायब होने से पहले,रूसी शासन के लिए अधिकांश मुस्लिम प्रतिरोध का आयोजन किया था। वे द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कम राजनीतिक रूप में सामने आए, और वे रहस्यमय गतिविधियों पर अपनी ऊर्जा केंद्रित कर रहे थे। यह बहुत अवधि के लिए यथोचित अवस्था रही जब इस्लाम काफिरों के खिलाफ एक और दौर के लिए अपनी ताकतों/सेना की क्षतिपूर्ति कर रहा था।
सूफी गतिविधियों का अंतिम परिणाम यूएसएसआर का टूटना,मध्य एशियाई मुस्लिम राज्यों को मुक्त करना था, जो विद्रोह यूएसएसआर के एक मुसलिम शासित राज्य अज़रबैजान से शुरू हुआ। शेख नूरुद्दीन को अली हमदानी ने नियोग में दीक्षित किया था। इसलिए शेख नूरुद्दीन को जानने के लिए उसके पीर सैयद अली हमदानी को जानना जरूरी है।
जैसा कि नाम से पता चलता है अली हमदानी पश्चिम ईरान के हमदान से था। काफिर भारत के इस्लामीकरण में योगदान देने के लिए सैयद अली हमदानी ने अपने एक शिष्य सैय्यद तज़ुद्दीन को कश्मीर की स्थिति जानने के लिए वहाँ भेजा। सैय्यद तज़ुद्दीन का तत्कालीन सुल्तान शहाबुद्दीन (1354-1373)ने बहुत गर्मजोशी से स्वागत किया। सुल्तान ने उसे श्रीनगर से नौ मील उत्तर-पश्चिम में अपना खानकाह बनाने की सुविधा दी। इसे अब शहाबुद्दीनपुरा के नाम से जाना जाता है ।
कश्मीर में धर्मांतरण की संभावनाओं के बारे में एक अनुकूल विवरण प्राप्त करने के बाद हमदानी 1381 ईस्वी में सात सौ शिष्यों के एक दल के साथ वहां पहुंचा। मीर सैयद अली हमदानी में मजहब के प्रचार का उत्साह भरा हुआ था। इसने मंदिर विध्वंस और कई कश्मीरियों के जबरन धर्मांतरण का रूप ले लिया।
पहला धर्म परिवर्तन जो उसने करवाया वह श्रीनगर के काली मंदिर के ब्राह्मण पुजारी का था। तत्कालीन सुल्तान कुतुबुद्दीन ने हमदानी के प्रोत्साहन पर मंदिर को ध्वस्त कर दिया और उस स्थान पर हमदानी को अपना खानकाह बनाने की अनुमति दे दी। पूरे कश्मीर में फैले हमदानी के सात सौ शिष्यों ने अलग-अलग जगहों पर अपने खानकाहों का निर्माण किया और उन्हें हिंदुओं को इस्लाम में धर्मांतरित करने का केंद्र बनाया। इस काम में मुस्लिम सुल्तानों ने उन्हें गुप्त रूप से और खुले तौर पर खुलकर मदद की।
हमदानी तीन साल कश्मीर में रहा जिसके बाद मक्का जाते समय उसकी मौत हो गई। नूरुद्दीन,सैय्यद अली हमदानी के सिलसिले का था। हमदानी और उसके शिष्यों द्वारा मंदिरों के विध्वंस और खानकाहों के निर्माण ने सूफियों के खिलाफ हिंदू जनता में एक तरह की प्रतिक्रिया पैदा कर दी थी। इसलिए शेख नूरुद्दीन ने एक अलग रास्ता निकाला। उन दिनों लाल दीदीया या लाल देद नाम की एक शिव भक्त महिला भक्ति गीत गाते हुए कश्मीर में घूम रही थी । उसने कश्मीरी लोगों से बहुत प्रसिद्धि,प्यार और सम्मान अर्जित किया था। शेख नूरुद्दीन ने स्वयं को एक ऐसे ही भिक्षु के रूप में पेश किया। ब्राह्मण कश्मीर में ऋषि, हिंदू संतो के लिए माना जाने वाला सर्वोच्च पद था जो भगवान के साथ समागम के अंतिम चरण में पहुंच गए थे। इस हिंदू मानस का लाभ उठाने के लिए नूरुद्दीन ने स्वयं को और अपने शिष्यों को ऋषि के रूप का पहनावा दिया। पुराने जमाने के ऋषि बाघ की धारीदार खाल पहनते थे। सूफियों के इस संप्रदाय ने धारीदार ऊनी कपड़े से बने पोशाक को अपनाया।
नूरुद्दीन के प्रमुख शिष्य बामुद्दीन, जैनुद्दीन और लतीफुद्दीनथे। ये तीनों जन्म से ब्राह्मण थे लेकिन शेख नूरुद्दीन ने उनका धर्म परिवर्तन कराया था। ब्राह्मण हिंदू समाज के प्राकृतिक शिक्षक थे और उनका समाज में बहुत सम्मान था। एक परिवर्तित ब्राह्मण इसलिए अपने पूर्ववर्ती हिंदू अनुयायियों को इस्लाम में परिवर्तित करने के लिए एक बहुत बड़ी ताकत था, जिसे एक दैवीय धार्मिक निष्ठा के रूप में प्रस्तुत किया गया था। हिंदू कश्मीर को आज के मुस्लिम कश्मीर में परिवर्तित करने का श्रेय सिकंदर-बुत-शिकन जैसे सुल्तानों और हमदानी और ऋषि नूरुद्दीन जैसे सूफियों द्वारा समान रूप से साझा किया जाता है,जिसकी समाधि को आतंकवादियों ने धर्मनिरपेक्ष भारत की सरकार को शर्मिंदा करने के लिए जला दिया था और जिसे भारत सरकार ने, मुख्य रूप से हिंदुओं से, राजस्व के रूप में एकत्रित किए गए करोड़ों रुपए की लागत से बहाल करने का वचन दिया था।
(यह इस 3 भाग श्रृंखला का अंतिम भाग है)
अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद- रागिनी विवेक कुमार