कल गूगल ने फातिमा शेख का जन्मदिन मनाते हुए अपना डूडल समर्पित किया और कहा कि उन्होंने भारत की प्रथम शिक्षिका सावित्री बाई फुले के साथ मिलकर बालिकाओं के लिए शिक्षा के प्रचार प्रसार में योगदान किया था।
भारत जैसे देश में यह कहा जाना एकदम से खटक जाता है कि उन्नीसवीं शताब्दी में प्रथम शिक्षिका? यह प्रश्न मथता है कि आखिर ऐसा कैसे हो सकता है? यदि स्त्रियों के लिए शिक्षा नहीं थीं तो भारत में रानियों का इतना समृद्ध इतिहास क्यों हैं? जब रानियों ने अपनी वीरता से बड़े से बड़े आतताइयों के दांत खट्टे कर दिए, या फिर महिला संतों ने अपनी रचनाओं से भाव विभोर कर दिया।
जिस देश में वेदों में ही ऐसी कई स्त्रियों के उल्लेख हैं जिन्होनें अध्ययन किया, जिन्होंने यज्ञ किये। जिस देश में वैदिक युग में छात्राओं के दो वर्ग हुआ करते थे। सधोवधू एवं ब्रह्मवादिनी। जो कन्या विवाह तक अध्ययन किया करती थी उन्हें सधोवधु कहा जाता था एवं जो जीवन पर्यंत अध्ययन में लीन रहा करती थीं, बिना विवाह के, उन्हें ब्रह्मवादिनी कहा जाता था।
इतना ही नहीं बाद में मौर्य काल में भी कौटिल्य द्वारा रचित अर्थशास्त्र में भी स्त्रियों के तमाम अधिकार वर्णित हैं। कामकाजी स्त्रियाँ भी हैं। अर्थात एक समृद्ध संस्कृति की झलक प्राप्त होती है, फिर एक ओर तो यह नारा लगाया जाता है कि हिन्दू सभ्यता इतनी प्राचीन है, उतनी प्राचीन है और फिर यह भी कह दिया जाता है कि प्रथम शिक्षिका उन्नीसवीं शताब्दी में ही मिलती हैं। सावित्री बाई फुले का अपना एक संघर्ष था, परन्तु यह कहा जाना कि उन्होंने ही हिन्दू समाज की बालिकाओं के लिए अध्ययन के मार्ग खोले, हिन्दू विदुषियों के साथ किया गया सबसे बड़ा छल है।
क्या यह समझा जाए कि उन्नीसवीं शताब्दी में ही हिन्दू लड़कियों के हाथों में पुस्तक आई? यदि ऐसा है तो फिर किस लीलावती के नाम पर गणित के क्षेत्र में लीलावती पुरुस्कार प्रदान किए जाते हैं? यदि हमारी स्त्रियों के हाथों में उन्नीसवीं शताब्दी में ही कलम आई है तो हम मीराबाई के भजन कैसे सुनते हैं? यदि हमारी स्त्रियों को अक्षर ज्ञान उन्नीसवी शताब्दी में ही मिला है तो वेदों में ऋषिकाओं ने क्या लिखा है?
यदि हमारी स्त्रियों के पास अक्षर ज्ञान नहीं था तो मध्यकाल में असंख्य कवियत्रियाँ कहाँ से प्राप्त होती हैं, जो भिन्न भिन्न भक्तिधाराओं में रचना कर रही थीं?
बढ़ते बाहरी एवं मुस्लिम आक्रमणों के कारण कुरीतियाँ आईं थीं, पर उनके कारण एक समृद्ध धरोहर को नहीं बिसराया जा सकता और हिन्दू स्त्रियों की उपलब्धियों को अनदेखा नहीं किया जा सकता!
भारत में जब से मुस्लिमों के आक्रमण आरम्भ हुए, तभी से हिन्दू लड़कियों पर तमाम प्रकार के प्रतिबन्ध लगने लगे। इसलिए नहीं कि हिन्दू समाज पिछड़ा था, बल्कि इसलिए क्योंकि जो आततायी आ रहे थे उनके लिए काफ़िर लड़कियां उनकी दौलत थीं। इसलिए लड़कियों की रक्षा के लिए ही तमाम तरह के प्रतिबन्ध उन पर लगा दिए गए थे। उस समय हिन्दू समाज एक साथ कई मोर्चों पर संघर्ष कर रहा था, एक ओर अपनी समृद्ध विरासत की रक्षा तो करनी ही थी, जो मंदिरों से लेकर स्त्रियों के रूप उपस्थित थी तो साथ ही आने वाली पीढ़ी के लिए उन्हें सुरक्षित भी रखना भी था।
उन्हें अपने अस्तित्व की लड़ाई भी लड़नी पड़ रही थी। एक समाज जो अपने साथ हो रहे हर प्रकार के संहार से लड़ रहा था, फिर चाहे वह सांस्कृतिक हो या शारीरिक!
यह इतिहास में दर्ज है कि कैसे हजारों की संख्या में हिन्दू लड़कियों का यौन शोषण किया गया, उन्हें बाजार में बेचा गया और कैसे मुस्लिमों के हाथों में जाने से बेहतर हजारों हिन्दू महिलाओं ने स्वयं को समाप्त करना चुना।
तो ऐसे वातावारण का सामना करने के बाद भी अपनी समृद्ध धरोहरों को किसी भांति सुरक्षित करते हुए समाज को आगे आकर यह तमगा मिला कि उसकी प्रथम शिक्षिका सावित्री बाई फुले और फातिमा शेख हैं? यह कैसा अन्याय है?
क्या वास्तव में उस समय भी कोई स्त्री कथित आधुनिक शिक्षित नहीं थी?
अब यह प्रश्न उठता है कि क्या वास्तव में उस समय भी कोई ऐसी स्त्री नहीं थी जो शिक्षा प्रदान करती थी? तो इन प्रश्नों के उत्तर भी हमें अंग्रेजों द्वारा ही प्राप्त होते हैं। विलियम वार्ड द्वारा लिखी गयी पुस्तक A View Of The History Literature And Mythology Of The Hindoos Including A Minute Description Of Their Manners And Customs And Translations From Their Principal Works In Four Volumes Vol। Iv (चौथे संस्करण) में एक बंगाली महिला का विवरण प्राप्त होता है। हुति विद्यालंकार! जिनका जन्म बंगाल में हुआ था और जिनके पिता और पति दोनों ही कुलीन ब्राह्मण थे। हुति के पिता ने उन्हें शिक्षा प्रदान की, परन्तु उनके पति का देहांत हो गया। वह बनारस चली गईं और वहां पर जाकर उन्होंने दोबारा से अध्ययन आरम्भ किया तथा कानून की पुस्तकों और अन्य शास्त्रों की शिक्षा लेने के बाद उन्होंने वहां पर बच्चों को पढ़ाना आरंभ कर दिया।

वह और भी बंगाली शिक्षित महिलाओं की बात लिखते हैं। जिनमें नशीपुर के ब्राह्मण जशोमंत राय की पत्नी बांग्ला में हिसाब किताब रखती थीं तो वहीं दिवंगत राजा नवकृष्ण कलकत्तावासी की पत्नियां पढ़ना जानती थीं।
यह पुस्तक वर्ष 1820 में लिखी गयी थी, और सावित्री बाई फुले का जन्म ही 1831 में हुआ था। अर्थात सावित्री बाई फुले से पहले भी स्त्री पढ़ाती थीं, और उनसे कई वर्ष पहले से स्त्री भारत में शिक्षा के क्षेत्र में योगदान करती आ रही थीं।
क्या ऐसे उदाहरण हमारी नई पीढी के हृदय में अंग्रेजी को उद्धारक और भारतीय भाषाओं को पिछड़ा, संस्कृत को साम्प्रदायिक और सबसे बढ़कर हिन्दू धर्म को अत्याचारी तो नहीं बता रहे हैं?
और फिर हम प्रश्न करते हैं कि नई पीढ़ी हिन्दू धर्म से विमुख क्यों है?
भारत की समृद्ध स्त्री शिक्षा एवं ज्ञान की धरोहर तथा परम्परा को अनदेखा करके यह कहा जाना कि सावित्री बाई फुले और फातिमा शेख प्रथम शिक्षिकाएं हैं, एक प्रज्ञा संपन्न सभ्यता के साथ किया जा रहा छल तो है ही, यह इतिहास के साथ भी छल है और हिन्दू स्त्रियों की उपलब्धियों के साथ अन्याय है!
Even, Devi Ahilaya Bai Holkar is also responsible much a head , including Savitri Bai Phule for uplifting of civil administration in Nation.