अफगानिस्तान इन दिनों समाचारों में हैं। समाचार यह है कि वहां पर विस्फोट हो रहे हैं। कभी कंधार में तो कभी काबुल में! और भारत द्वारा वहां पर वैश्विक सहायता के रूप में गेंहू आदि भेजे जा रहे हैं। वहां पर किन चीज़ों की खेती होती है, लोग अब यह भूल गए हैं। पर अफगानिस्तान शब्द आते ही बहुत कुछ अटकता है। बहुत कुछ गले में आकर अटक जाता है, वह है यह तथ्य कि कुछ ही वर्ष पूर्व अफगानिस्तान भारत का ही अंग था। कल ही काबुल में मस्जिद में विस्फोट हुआ है!
और जब हम ह्वेन सांग आदि यात्रियों द्वारा कंधार का वर्णन पढ़ते हैं तो और भी अधिक हुक उठती है कि दुनिया ऐसी थी ही नहीं, जैसी अब है, दुनिया ऐसी वीरान थी ही नहीं, जैसी अब हो गयी है। तो क्या कहा गया है ह्वेनसांग द्वारा कंधार के विषय में? जहाँ आज अफीम की खेती होती है, वहां पर तब कैसी जलवायु थी जब हिन्दुओं का शासन हुआ करता था?
वर्ष 1915 में प्रकाशित नोट्स ऑन द एंशीएंट ज्योग्राफी ऑफ गांधार, (अ कमेंट्री ऑन अ चैप्टर ऑफ ह्वेन सांग), ए फाउचर, अनुवाद एच हार्ग्रीव्स, सुपेरिटेनडेंट, हिन्दू एंड बुद्धिस्ट मोन्यूमेंट, नोर्दर्न सर्कल, में गांधार (कंधार) के इतिहास पर बात की गयी है। इसमें फाउचर ने गांधार क्षेत्र में हुए जलवायु परिवर्तन, हिन्दुओं की हत्याओं आदि के ऐतिहासिक सन्दर्भों पर बात की है। इसमें उन्होंने लिखा है कि जब उनके शासन में गांधार फिर से भारत का हिस्सा बना, उस समय उस संस्कृति के चिन्ह खोजना अत्यंत दुर्लभ हो गया था, जो एक समय में व्याप्त थी। अब वहां पर प्राकृत के स्थान पर पश्तु बोली जाती है, जो “पाणिनि” का जन्मस्थान था।

अर्थात एक एक चिन्ह खुरच खुरच कर मिटाए गए थे। इसमें आगे यह भी लिखा है कि जब अंग्रेजों के शासनकाल में गांधार फिर से भारत का अंग बना उस समय भी वहां पर कुछ हिन्दू शेष थे। पर वह हिन्दू कौन थे और कैसे जी रहे थे, उस विषय में लिखा है कि हिन्दू मात्र वहां पर इसलिए थे क्योंकि वहां पर जो पठान थे, वह अपने व्यापार का खाता नहीं रख पाते थे, इसलिए व्यापार का हिसाब किताब रखने के लिए हिन्दुओं को रखा हुआ था, और उन्हें बहुत ही जटिल परिस्थितियों में रखा हुआ था।
हिन्दू दुकानदारों पर बहुत अधिक कर लगाया जाता था एवं यह कहीं से नहीं कहा जा सकता है कि उनका संरक्षण किया जाता था।
जलवायु परिवर्तन के लिए “बुत-परस्तों” को ठहराते हैं उत्तरदायी
इसमें बाबर द्वारा पेशावर के हरे भरे बगीचों का उल्लेख है, जिसमें बाबर ने कहा था कि “बसंत में पेशावर के बगीचों से सुन्दर कुछ नहीं हो सकता!” फिर उससे पहले ह्वेनसांग द्वारा उस क्षेत्र की जलवायु का वर्णन करते हुए लिखा है कि ह्वेनसांग ने इस क्षेत्र में गन्नों की खेती की बात की थी, वह अब गायब हो चुकी है और साथ ही लिखा है कि पेशावर और मरदान में कई प्रकार के फूल और फल पैदा होते हैं।
जहाँ एक समय में नदियाँ उन्मुक्त होकर बहा करती थीं, अब वहां पर पानी के लिए लोग तरसते हैं! और ऐसा क्यों हुआ तो यहाँ के लोगों का कहना है कि बुतपरस्तों के कारण ऐसा हुआ है! उनका कहना है कि यह देश छोड़ते समय बुतपरस्त लोग जल के स्रोत बंद करके चले गए हैं!
गाय के कंडे जलाने वालों के गायब होने से परिवर्तित हुई जलवायु?
फिर इस रिपोर्ट में लिखा है कि “क्या हमें पूरे मध्य एशिया में हुए जलवायु परिवर्तन पर दृष्टि डालनी होगी और यह विश्वास करना होगा कि यह पूरे मध्य एशिया में बदली? यदि कोई अवलोकन करता है तो पाएगा कि मुसलमान जो लकड़ी जलाने वाले थे, उन्होंने अपनी जियारत बचाने के लिए हर जगह उन वृक्षों को जला दिया, जिनकी पूजा गाय के कंडे जलाने वाले हिन्दू करते थे, यही मेरे विचार से देश में वनों के तेजी से कटने के लिए और वृक्षों के तेजी से गायब होने में वर्तमान आद्रता की सबसे सरल और स्पष्ट व्याख्या है!

अर्थात इस दस्तावेज के अनुसार जब तक गाय के गोबर के कंडे जलाने वाले लोग विद्यमान थे, उस समय यहाँ की हरियाली की प्रशंसा ह्वेनसांग और बाबर तक ने की है, फिर जैसे जैसे गाय पूजने वाले हिन्दू गायब होने लगे, जलवायु में भी शुष्कता आती गयी।
पुरुषपुर अर्थात पेशावर के विषय में ह्वेनसांग के हवाले से लिखा है कि शहर के बाहर पीपल के पेड़ हैं जो 100 फीट या अधिक की लम्बाई के हैं।
यह तो थी उस समय की बात, परन्तु अभी क्या स्थिति है? भारत में तो इस समय मांस निर्यात में नए रिकॉर्ड बनाए जा रहे हैं। 29 अप्रेल 2022 को बीफमार्केट सेन्ट्रल की रिपोर्ट के अनुसार बीफ निर्यात करने में भारत का स्थान चौथे पायदान पर है!

गाय के कंडे जलाने वालों के विलुप्त होने से मात्र जलवायु ही गर्म नहीं हुई है, बल्कि बाग़ नष्ट हो गए, हरियाली नष्ट हो गयी है और जहाँ पर पाणिनि का जन्म हुआ था, जहां की हरियाली का वर्णन रामायण में भी है,
सिन्धोरूभयत: पार्श्वे देश: परशोभमन:।
तं च रक्षन्ति गन्धर्वा: सायुधा युद्धकोविदा
एवं साथ ही जब भरत प्रभु श्री राम की आज्ञा से उस क्षेत्र को जीतते हैं तो वहां के नगरों के नाम अपने पुत्रों तक्ष एवं पुष्कल के नाम पर रखते हैं।
तक्षं तक्षशिलायां तु पुष्कल पुष्कलावते,
गंधर्वदेशे रुचिरे गान्धार विषये च स: (वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड एकोत्तरशततम सर्ग)
परन्तु अब गांधार क्षेत्र अर्थात पेशावर से लेकर कंधार तक किसलिए जाना जाता है, हर किसी को ज्ञात है। जहाँ एक समय में हरे वनों का साम्राज्य था, जो गाय के कंडे जलाने वालों के अस्तित्व के आधार पर था, वहां अब बंदूकें और विस्फोट है क्योंकि प्रकृति पूजकों को तो “बुतपरस्त” मानकर मार दिया गया है!
ऐसे सभी रिपोर्ट और दस्तावेज हिन्दुओं को अपनी परम्पराओं पर गर्व करने और विश्वास करने के लिए प्रेरित करते हैं, तो क्या यही कारण है कि ऐसे दस्तावेजों की चर्चा सबसे कम होती है? ताकि विकास के मानक मांस निर्यात आदि माने जाएं और हिन्दू विश्वास पिछड़े माने जाएं? विकास का हिन्दू दृष्टिकोण और कथित आधुनिक दृष्टिकोण क्या इन पर चर्चा नहीं होनी चाहिए?