कहते हैं कि चेतना की स्मृति की पीड़ा असीम होती है और जब वह उभर कर आती है तो बहा ले जाती है सब कुछ। वह कुछ छोडती नहीं है। वह इतिहास के उन सभी आयामों को सामने लाने के लिए मचल उठती है, जिन्हें न जाने कब से दबाकर रखा गया था। और फिर असहजता सामने आती है, फिर सामने आती है वह वास्तविकताएं, जिन्हें सुनना कोई पसंद नहीं करता! पर कहना भी आवश्यक है, जिससे सदियों की पीड़ा का अंत हो!
भारत में मुस्लिम शासकों द्वारा कितने मंदिर तोड़े गए, इसका कोई हिसाब है ही नहीं। इसका हिसाब सीताराम गोयल ने अपनी पुस्तक में दिया ही है और मुस्लिमों ने आखिर हिन्दू मंदिर क्यों तोड़े, इसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण अनवर शेख ने Why Muslims Destroy Hindu Temples? में किया है!
उन्होंने लिखा है कि हमला करने वाले अरब एवं पश्चिमी एशिया के मुस्लिम आक्रमणकारियों ने जब भारत पर आक्रमण किये तो उनके भीतर एक असंतोष और कुंठा उत्पन्न हुई क्योंकि वह मंदिर और समृद्धि को देख नहीं पाए, वह अपने से बेहतर सभ्यता को सहन नहीं कर पाए और उन्होंने अपनी सर्वोच्चता स्थापित करने के लिए मंदिरों को केवल तुडवाया ही नहीं, बल्कि उन पर मस्जिदें भी बना दीं!”
फिर वह लिखते हैं कि जब मुस्लिम आक्रमणकारियों ने आक्रमण किया था तो भारत की समृद्धि की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। और जैसे ही मुस्लिम आक्रमणकारी भारत में आए वैसे ही उन्होंने हिन्दुओं के मंदिरों को ही तोड़ना आरम्भ नहीं किया, बल्कि उन्होंने हिन्दू धर्म की वीरता को भी क्षतिग्रस्त किया, और उन्होंने यह कई सांस्कृतिक एवं धार्मिक परम्पराओं पर रोक लगाकर किया, उन्होंने हिन्दू संस्कृति और सभ्यता को सघन होने से रोक दिया, उन्होंने हिन्दू कला के विकास को रोका, उन्होंने हिन्दुओं के विचारों और काम करने पर रोक लगाई, सांस्कृतिक गर्व का खंडन किया और उन्होंने एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जाने वाली कला और सांस्कृतिक परम्पराओं को रोक दिया।
दुसरे शब्दों में हम कहें तो हिन्दुओं का हर प्रकार से शोषण और दोहन किया गया।
और फिर वह लिखते हैं कि मुगलों ने हिन्दुओं की ज्ञान परम्परा को दूषित किया और हिन्दू समाज के नैतिक आधार का भी उल्लंघन किया। हिन्दुओं का मनोवैज्ञानिक दमन किया गया और उन्हें मनोवैज्ञानिक क्षति हुई।
यह बात पूर्णतया सत्य है कि हिन्दुओं को मनोवैज्ञानिक क्षति हुई और आज यह पीड़ा और तब बढ़ जाती है जब इस मनोवैज्ञानिक दमन और शोषण को “गंगा-जमुनी” तहजीब कहा जाता है! गंगा भी हिन्दुओं की और यमुना भी हिन्दुओं की, फिर उसमें आक्रमणकारियों की तहजीब क्यों लानी! और अब जब सदियों के दमन के बाद भी चेतना ने हार नहीं मानी और उठ खड़ी हुई तो लोग पूछते हैं कि इतना विष क्यों है?
यह विष उन्हें इसलिए लग रहा है क्योंकि आज तक हिन्दू कुतुबमीनार में टूटी हुई गणेश प्रतिमाओं को देखकर मात्र रोकर रह जाते थे, अब प्रश्न पूछे जा रहे हैं कि यदि यह कुतुबुद्दीन एबक ने बनाई तो फिर हिन्दू प्रतिमाएं क्यों हैं?
अढाई दिन का झोपड़ा, जिसे यह कहा जाता है कि ढाई दिनों में बनवाया, उसमें हिन्दू मंदिरों के प्रतीक क्यों हैं? परन्तु इसके उत्तर नहीं मिलते हैं।
काशी के जिस मंदिर के विध्वंस के विषय में मासिर-ए-आलमगीरी में लिखा है कि बनारस में ब्राह्मण काफ़िर अपने विद्यालयों में अपनी झूठी किताबें पढ़ाते हैं और जिसका असर हिन्दुओं के साथ साथ मुसलमानों पर भी पड़ रहा है। आलमगीर जो इस्लाम को ही फैलाना चाहते थे, उन्होंने सभी प्रान्तों के सूबेदारों को आदेश दिए कि काफिरों के सभी विद्यालय और मंदिर तोड़ दिए जाएं और इन काफिरों की पूजा और पढाई पर रोक लगाई जाए!
उसी मंदिर के विध्वंस पर झूठी कहानी पढ़ाई जाती है कि औरंगजेब एक बार बंगाल जाते समय बनारस में टिका तो उसने देखा कि कच्छ की रानी का अपमान वहां के पंडितों ने किया और जहाँ किया वह स्थान शिवलिंग के नीचे था। इसलिए क्रोध में आकर उसने उस मंदिर को तुड़वा दिया।
पर इस झूठ का खंडन करना विष फैलाना है और इस झूठ के सहारे मंदिरों को पाप का स्थल बताते हुए तुड़वाने की भूमिका तैयार करना सहिष्णुता है, प्रगतिशीलता है।
चर्च और मदरसे में होने वाले यौन शोषणों पर मुंह सिलना प्रगतिशीलता है और जिन मंदिरों को मुसलमानों ने भारत में अपने प्रवेश के बाद से ही तोड़ने के लिए तय कर रखा है, उन्हें पाप का स्थल बताना है! यह कहाँ का न्याय है!
परन्तु यह झूठ तो पंडित नेहरू भी फैलाते हुए पकडे गए थे। उन्होंने अपनी पुस्तक में लिखा कि महमूद गजनवी केवल एक योद्धा था, जो भारत में युद्ध जीतने के लिए आया था, और उसने जो भी मंदिर तोड़े, उनमें केवल युद्ध ही कारण था, उसका मजहब नहीं!
उन्होंने लिखा है कि महमूद गजनवी ने अपने मजहब का नाम केवल अपनी विजयों के लिए प्रयोग किया। और भारत उसके लिए एक ऐसा स्थान था जहाँ से वह अपने शहर में बहुत सा खजाना ले जा सकता था।
इतना ही नहीं वह यह तथ्य भी छिपा गए कि महमूद गजनवी ने मथुरा के मंदिरों में आग लगाई थी। HINDU TEMPLES, WHAT HAPPENED TO THEM ? में सीता राम गोयल लिखते हैं कि पंडित नेहरू प्रोफ़ेसर हबीब से भी कहीं आगे निकल गए हैं। प्रोफ़ेसर हबीब ने यह लिखा है कि कैसे महमूद गजनवी ने मथुरा के मंदिर जलाने के आदेश दे दिए थे और वह भी उनके स्थापत्य की प्रशंसा करने के बाद। मगर जवाहर लाल नेहरू ने यह वर्णन किया कि कैसे महमूद गजनवी ने यह बताया कि महमूद गजनवी ने मथुरा के मंदिरों की प्रशंसा की। मगर वह यह छिपा गए कि उसने उन मंदिरों को नष्ट किया था। और इस प्रकार वह व्यक्ति जो हिन्दू मंदिरों को नष्ट करने वाला था, उसे स्थापत्य का सबसे बड़ा प्रशंसक बनाकर प्रस्तुत कर दिया गया।
और यह विवरण डिस्कवरी ऑफ इंडिया में भी पृष्ठ 235 पर उपस्थित है, जिसमें पंडित जवाहर लाल नेहरू यह लिख रहे हैं कि महमूद गजनवी दिल्ली के पास मथुरा शहर के मंदिरों से बहुत प्रभावित था। इस विषय में वह लिखते हैं कि मथुरा में हज़ारों मूर्तियाँ और मन्दिर थे और इन्हें बनाने में लाखों दीनार खर्च हुए होंगे, ऐसा कोई भी निर्माण पिछले दो सौ सालों में नहीं हुआ होगा।”
मगर पंडित जवाहर लाल नेहरू बहुत ही सफाई से यह छिपा ले जाते हैं कि महमूद ने उसके बाद सभी मंदिरों में आग लगा दी थी।
और इतना ही नहीं जिस महमूद गजनवी ने सोमनाथ का मंदिर तोड़कर अपमानित किया था, उसे उन्होंने अपने देश में सांस्कृतिक गतिविधियों का संचालन करने वाला बता दिया था और उन्होंने महमूद गजनवी की प्रशंसा करते हुए कहा था कि चूंकि युद्ध के बीच महमूद गजनवी को अपने शहर में सांस्कृतिक गतिविधियों को करने का शौक था, यही कारण है कि कई ख्यात व्यक्ति उसकी सेवा में थे।
अब समस्या यह है कि लोग उस सत्य को बाहर ला रहे हैं और कह रहे हैं कि यह तो हिन्दुओं के मंदिर थे, और मुसलमानों ने तोड़े हैं, और यह भी सत्य है कि मस्जिद किसी भी विवादास्पद स्थान पर नहीं बन सकती है, तो ऐसे में कोई भी मस्जिद हिन्दुओं के टूटे मंदिरों पर कैसे बन सकती है?
यह चेतना का पुन: प्रस्फुटन काल है जिसमें टूटे मंदिरों का कम से कम इतिहास सबके सामने तो लाएंगे, तभी काशी से लेकर मथुरा, भोजशाला और यहाँ तक कि ताजमहल में भी खुदाई या कमरे जो बंद हैं, उन्हें सबके सामने लाने की बातें होने लगी हैं। लोकतंत्र पारदर्शिता का ही नाम है तो हिन्दुओं के साथ यह अन्याय क्यों?