फिल्मकार विवेक रंजन अग्निहोत्री की फिल्म द कश्मीर फाइल्स एक ऐसी फिल्म बनकर उभरकर आई है, जिस फिल्म की लोग प्रतीक्षा कर रहे थे। यह भी सत्य है कि यह ऐसी फिल्म है जो संभवतया बिना किसी किन्तु परन्तु के उस वास्तविक रूप में सामने आई है, जिसमें बिना लागलपेट के, बिना “कश्मीरियत” के कश्मीरी पंडितों के जातिविध्वंस को ज्यों का त्यों उकेर दिया है।
यही कारण है कि यह फिल्म लोगों की चेतना को झकझोर रही है। यह फिल्म लोगों के सामने हिन्दू जेनोसाइड का वह काला पन्ना बिना किसी सजावट के सामने ला रही है, जिसे राजनीतिक कारणों से अभी तक दबाकर रखा गया था। कश्मीरी पंडितों की पीड़ा इतने वर्षों तक राजनीतिक इन्क्ल्युसिवनेस में दबी रही। “कश्मीरियत” के नीचे कश्मीरी पंडितों का जो रक्त बह रहा था, वह लोगों तक आ ही नहीं पा रहा था।
जो फ़िल्में बन रही थीं, वह कश्मीरी मुस्लिमों के दृष्टिकोण से बन रही थीं और फिल्मों का उद्देश्य मात्र यह प्रमाणित करना होता था कि दरअसल कश्मीरी स्थानीय मुस्लिम तो बहुत अच्छे थे, वह तो दोनों देशों के बीच राजनीतिक शत्रुता के कारण और राजनीतिक मोहरा बनाए जाने के कारण कश्मीर के साथ ऐसा हुआ। कश्मीर के पंडित तो सुरक्षित चले गए, परन्तु मुस्लिम अभी तक “हिन्दू भारत की सेना” का निशाना बन रहे हैं।
जबकि क्या ऐसा था? इस फिल्म के बाद और पहले से ही बिखरी हुई कहानियों के मध्य एक कहानी हम भी अपने पाठकों के लिए ला रहे हैं। दरअसल यह कहानी नहीं है, यह संस्मरण है, और यह संस्मरण है डॉ दिलीप कौल का, जिन्होनें स्वयं उस दर्द को, उस पीड़ा को भोगा है। जिन्होनें हिन्दुओं के उस जातिविध्वंस का सामना किया है, जिसके विषय में बोलना भी सभ्य समाज में पाप माना जाता था। हम उनकी कविताओं से भी अपने पाठकों को परिचित कराएंगे। परन्तु आज यह संस्मरण:
पूजा का जल
हिंदू मारे जा रहे थे और मैं बचे खुचे रिश्तेदारों के यहां नियमित जाकर उन्हें प्रेरित कर रहा था कि वे घर छोड़ कर न जायें। मां के मौसेरे भाई पं। माखनलाल वितस्ता नदी के उस पार रहते थे और मैं लगभग हर दिन उनके यहां जाता था। उस दिन मैं सुबह सुबह ही उनके यहां गया था।
हब्बा कदल का पुल पार करते ही दायीं ओर सोमयार का मंदिर था। वहां बी एस एफ की पिकेट लग चुकी थी। दूसरी मंज़िल पर रेत की बोरियों के पीछे मशीन गन की नली दिखाई दे रही थी। इर्द गिर्द सिपाही भी।
मैं पंडित माखनलाल के घर की गली में घुसा तो उनकी गली से ठीक पहले कुछ लड़के दिखाई दिये। मकानों की खिड़कियों बंद थीं और लड़कों के चेहरे कुछ असामान्य लग रहे थे।
मैंने माखनलाल जी के घर का दरवाज़ा खटखटाया। उनके बड़े बेटे ने खिड़की से देखा कि मैं हूं और दरवाज़ा खोल दिया। मैं अंदर गया और दरवाज़ा बंद हुआ ही था कि तीन गोलियां चलने की आवाज़ आई और फिर औरतें और मर्द बेतहाशा चिल्लाने लगे।माखनलाल जी के छोटे बेटे ने तुरंत दरवाजा बंद खर दिया और एक बड़े से लट्ठ को दरवाजे के साथ अटका कर ज़मीन के साथ दबा दिया। वह बदहवास था, ” बस बस! अब हम यहां से चले जायेंगे।” वह मुझे जवाब सा दे रहा था क्योंकि मैं लगातार कहता आ रहा था कि कश्मीर छोड़कर नहीं जाना है।
मैं और बड़ा बेटा तुरंत सबसे ऊपर वाली मंज़िल पर पहुंचे और वहां से देखा कि सामने ही एक घर से एक चादर पर एक आदमी को लिटा कर चार कुछ आदमी ले जा रहे थे। आदमी के सफेद कुर्ते पर खून के तीन दाग बड़े होते जा रहे थे। बड़ा बेटा नीचे भागा, ” बालकृष्ण तुतू मार डाले गये। माखनलाल जी ने तुरंत मुझे रवाना कर दिया, “घर जाओ, बेवजह घूमा मत करो इधर उधर।”
कुछ देर बाद मैं निकला। वहां पहुंचा जहां वे लड़के दिखे थे। निश्चित रूप से वे ही हत्यारे थे। सड़क पर बहुत कम लोग चल रहे थे। हब्बा कदल पर पहुंच कर कुछ बेहतर महसूस हुआ क्योंकि वहां अनेक लोग सब्ज़ी विक्रेताओं से सब्ज़ी ख़रीद रहे थे। मैं अभी अभी उस मोहल्ले से आया था जहां से पीढियों के घरों को छोड़कर हिंदू भागने वाले थे।अजीब सी असहायता और अकेलापन महसूस हुआ।
पास ही मेरी ननिहाल थी। मामाजी रोज़ दो घंटों तक विस्तृत पूजा करते थे। अद्भुत ज्योतिषी थे और अपनी मृत्यु की भविष्यवाणी भी कर गये थे। रोज़ पूजा समाप्त करके सोमयार मंदिर के घाट पर पूजा का जल वितस्ता नदी में प्रवाहित करने के लिए जाते थे। आतंकवाद के दिनों में भी। सोमयार मंदिर की पिकेट पर तैनात सैनिक हर रोज़ उन्हें देखते थे।
एक दिन वे पूजा का जल प्रवाहित करने के लिये जा रहे थे तो बी एस एफ की उस पिकेट का प्रमुख अफसर उनके साथ घाट तक गया। बातचीत शुरू हुई।
“रोज़ आते हैं जल प्रवाहित करने के लिये?”
“जी।”
“कब से?”
“पता नहीं! उमर हो गयी अब तो! बचपन से ही वितस्ता माता में प्रवाहित कर रहे हैं पूजा का जल।”
अधिकारी ने प्रणाम किया,”अच्छी बात है। पर आप ही , केवल आप ही आते हैं यहां सुबह सवेरे!”
मामाजी देखते रहे।
अधिकारी बोलता रहा।”आपकी कृपा होगी मुझपर। मेरी विनती है कि कल से यह जल घर के पौधों में डाला करें।”
मामाजी ने बताया था कि अधिकारी उनके चरण छूकर ऊपर चला गया था। उसके बाद वे ऊपर आये थे। अधिकारी ऐसे खड़ा था जैसे कुछ हुआ ही नहीं था।
अगले दिन से मामाजी पूजा का जल पौधों में डालने लगे।
1 जुलाई 1991 के मामाजी की भी हत्या कर दी गयी।
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एक फिल्म उन घटनाओं को दिखा ही नहीं सकती जो कश्मीर में हुआ, और सैकड़ों फ़िल्में सैकड़ों वर्षों से हिन्दुओं के जातिविध्वंस को नहीं दिखा सकतीं, परन्तु फिर भी यह आरम्भ है, आरंभ है कि पीड़ा को स्वर मिला, आरम्भ है कि पीड़ा को पहचान मिली! पीड़ा की यह यात्रा और पीड़ा की यह चुभन बनी रहे, ताकि हम और जानने के लिए प्रेरित होते रहें!