भारत में हम देखते हैं कि मुस्लिम युवकों का हिन्दू लडकियों को हर प्रकार से निशाना बनाया जाना जारी है। छत्तीसगढ़ में एक अनोखा ही मामला सामने आया था जिसमें एक सोलह साल की हिन्दू लड़की की बलात्कार के बाद साबिर अली ने केवल हत्या ही नहीं की, बल्कि आत्महत्या दिखाने के लिए लड़की के हाथ में किसी और का नाम भी लिख दिया।
छत्तीसगढ़ के सूरजपुर जिले में एक बारहवीं कक्षा में पढने वाली छात्रा के साथ बलात्कार किया गया और उसके बाद साबिर अली उर्फ़ बाबा ने उसकी हत्या भी कर दी। मीडिया के अनुसार बाबा खान ने 24 मार्च 2022 को यह देखा कि लड़की घर में अकेली है, वह मौक़ा देखकर घर के अन्दर जबरन घुसा और फिर उसने सबूत मिटाने के लिए उसकी हत्या कर दी।
परन्तु उसने चूंकि हत्या गला दबा कर की थी, तो उसे आत्महत्या का मामला दिखाना था और उसने आत्महत्या दिखाने की कोशिश में उसके हाथ पर किसी और का भी नाम लिख दिया, जिससे उस पर किसी का शक न जाए। पुलिस को उस पर संदेह हुआ और जब कड़ाई से पूछताछ हुई तो उसने अपना अपराध स्वीकार कर लिया।
यह था एक सोलह साल की लड़की की हत्या का मामला! परन्तु ऐसे मामले बाहर की मीडिया में स्थान नहीं बना पाते हैं कि कैसे कोई सोलह साल की बच्ची किसी साबिर की हवस का शिकार हो जाती है?
अभी हमने देखा था कि कैसे कर्नाटक में अपूर्वा पुराणिक पर उसके पति एजाज ने ही हमला कर दिया था। वह तो उसका भाग्य अच्छा था, या कहें उसे उस पैशाचिकता की कहानी दुनिया को बतानी थी, तो वह बच गयी और बचने के बाद उसने बताया कि उसके साथ पहले बलात्कार किया गया था, फिर उसे शादी के लिए मजबूर किया गया था! उसने अपने साथ हुई पूरी घटना का वर्णन किया था।
ऐसे एक नहीं कई मामले हैं और रोज सामने आ रहे हैं। परन्तु यह मामले भारत में ही विमर्श पैदा नहीं कर पाते हैं, क्योंकि एक बड़ा वर्ग, और वह वर्ग जो विदेशों में पेपर आदि प्रस्तुत करता है, इन पीडाओं से अनभिज्ञ होने के साथ साथ इसे बढ़ाने में भी सहायक है। क्योंकि वह पूरी समस्या और पूरे परिदृश्य को नकार देता है।
हिन्दुओं को खलनायक और पिछड़ा न केवल वाम बल्कि इस्लामी विमर्श भी बताता है। वाम और इस्लामी तो लगभग एक ही हैं, पश्चिम का ईसाई विमर्श है, उसके अनुसार भी हिन्दू पिछड़े हैं, इसलिए उनके साथ किए गए किसी अत्याचार को प्रमुखता से स्थान वहां की मीडिया में नहीं दिखता है। परन्तु यहाँ पर यह देखना अनिवार्य है कि भारत में जो लोग विश्वविद्यालयों आदि में पढ़ा रहे हैं, वह कैसा विमर्श बनाते हैं क्योंकि बाहर वही पढ़ा जाता है। कोई साबिर अली किस दृष्टि से देखा जाएगा, वह इस पर निर्भर नहीं करता है कि उसने क्या अपराध किया है, या किसी एजाज के अपराध की तीव्रता कितनी है?
वह इस आधार पर देखा जाएगा कि उसके समुदाय के विषय में भारत में प्रोफ़ेसर आदि ने क्या लिखा है? क्या लव जिहाद जैसी अवधारणाएं, जिनसे वास्तव में हिन्दू समाज पीड़ित है और वह अपनी बेटियों को बचाने का प्रयास कर रहा है, वह भारत में ही पढ़ाने वाले अध्यापकों की दृष्टि में एक झूठा प्रोपोगैंडा है, एक समुदाय के विरुद्ध!
वर्ष 2019 में एक पुस्तक/रिपोर्ट प्रकाशित होती है Islamophobia in India, Stoking Bigotry! अब यह महत्वपूर्ण नहीं है कि इसे लिखा किसने है? महत्वपूर्ण यह है कि यह किन सन्दर्भों के आधार पर लिखी गयी है? महत्वपूर्ण यह है कि वह लोग कौन हैं जो विदेशों में बैठे कट्टर इस्लामी अकेडमिक लोगों के पास यह झूठ फैलाते हैं कि भारत में इस सरकार के आने के बाद इस्लामोफोबिया बढ़ रहा है? इसे लिखा है Hatem Bazian, पॉल थोम्प्सन, रहोदा इतावुई ने! और इस रिपोर्ट पर बाबरी ढांचा की तस्वीर है।
इसमें Hatem Bazian ने भारत के हिन्दुओं पर भारत के ही लोगों के विचारों के आधार पर आक्षेप लगाए हैं। इसमें लव जिहाद वाले अध्याय में वह दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास की एसोसिएट प्रोफेसर चारु गुप्ता की एक रिपोर्ट Allegories of love Jihad का उल्लेख करते हैं।
इसमें चारु गुप्ता ने लव जिहाद को कहा है लव के खिलाफ एक जिहाद!
और इसमें उन्होंने लिखा है कि लव जिहाद और कुछ नहीं है बल्कि मुस्लिमों के खिलाफ घृणा फैलाने वाला हिंदुत्व का टूल है। इसमें उन्होंने पांचजन्य द्वारा लव जिहाद विशेषांक का वर्णन किया है, और साथ ही यह भी पूरी तरह से प्रमाणित करने का प्रयास किया गया है कि लव जिहाद जैसी बातें केवल भारतीय जनता पार्टी को चुनाव जिताने की कवायदें हैं।
Hatem Bazian ने इस पूरी तरह से एकतरफा रिपोर्ट में भारत की चारू गुप्ता, इशिता भाटिया, मोहन राव आदि की रिपोर्ट और लेखों का सहारा लिया है।
प्रश्न यह है कि इन सभी के लिए वह हिन्दू लडकियाँ पीड़ा का केंद्र क्यों नहीं बन पाती हैं? क्यों वह लोग हिन्दू लड़कियों की पीड़ा को समझने में नाकाम रहते हैं? क्यों वह ऐसी एकतरफा रिपोर्ट बनाते हैं, जिनके कारण हिन्दुओं को, जो वास्तव में पूरे विश्व में अल्पसंख्यक हैं, अपने ही देश में खलनायक बनकर रह जाते हैं!
क्या भारत के अकेड्मिक्स का यह उत्तरदायित्व नहीं है कि वह दोनों ही पक्ष बताएं? जब वह मजहबी पहचान के चलते मुस्लिमों के लिए बात कर सकते हैं? तो मजहब के आधार पर ही वह कहीं न कहीं लव जिहाद जैसा अपराध करते हैं, इसे विमर्श का विषय मानने में भी समस्या क्यों है? इतना नकार का विमर्श क्यों है?
क्योंकि लगभग हर ऐसे मामले में धर्म परिवर्तन तो होता ही है, क्या हिन्दुओं की vविलुप्त होती धार्मिक पहचान हमारे एकेडमिक्स के लिए महत्वपूर्ण नहीं है? या फिर वह स्वयं ही इस विध्वंस में उनके साथ हैं? या फिर वह स्वयं ही हिन्दुओं को कहीं न कहीं कठघरे में खड़े करने के पक्ष में हैं?
नहीं तो इन घटनाओं पर पसरा हुआ अकादमिक मौन, कहीं से भी लाभदायक तो नहीं हैं!