बार बार यह प्रश्न उठता है कि भारत का पक्ष या कहें हिन्दुओं का पक्ष नहीं समझा जाता है। हिन्दू पीड़ित होकर ही शोषित और उत्पीड़क ही सिद्ध किया जाता है। तो ऐसे में हिन्दुओं का पक्ष कैसे सामने आएगा, बार बार यह उभर कर आता है। क्योंकि कथित अंग्रेजी वामपंथी अकेडमिक्स जगत पूरी तरह संस्कृत विरोध पर ही आधारित है। और संस्कृत को निकृष्ट ठहराने के प्रयास में यह स्वत: ही हिन्दुओं के विरोध में खड़ा हो जाता है। आज हम ऐसी ही एक वेबसाईट पर आ रहे विषयों और लेखों के विषय में कुछ जानेंगे जो अकेड्मिक्स में विमर्श के लिए लेख देते हैं, परन्तु यह विमर्श क्या होता है, और किस दृष्टिकोण से होता है, वह देखना महत्वपूर्ण है।
www.academia.edu नामक वेबसाईट पर जो भी अकेड्मिक्स से सम्बन्धित लेख आते हैं वह भारत को, हिन्दुओं को और हिन्दुओं के इतिहास को किस प्रकार प्रस्तुत करते हैं, वह देखते हैं। इन दिनों इस वेबसाईट पर मोदी के राज्य में हिन्दुओं द्वारा कथित रूप से किए जा रहे अत्याचारों पर बहुत चर्चाएँ हो रही हैं। और इन पर चर्चा करते हैं, विदेशी लोग। विदेशी पत्रकार और लेखक, विदेशी शोधार्थी। जिन्हें हिन्दू धर्म की मूलभूत बातों का पता ही नहीं होता। जिन्हें भारत नहीं पता है। फिर भी वह लिखते हैं और कुछ ऐसे नैरेटिव हैं, जो बाहर से संचालित हैं, और जिन्हें भारत में ही एक विशेष विचारधारा से खादपानी मिलता है, और जो इस्लाम और ईसाइयत को मसीहा मानते हैं, उनका लिखा होता है।
आइये ऐसे ही कुछ लेख देखते है। एक लेख है
Hindu Extremist Movements जिसे HUMAN RIGHTS WITHOUT FRONTIERS INTERNATIONAL ने वर्ष 2009 में लिखा था। उसमें वर्ष 2008 और वर्ष 2009 में ही हिंदुत्व विचारधारा द्वारा कथित रूप से हो जबरन धर्मांतरण के विरोध में किए गए विरोध दिखाए गए हैं। इस लेख की शुरुआत भी विनायक दामोदर सावरकर के वर्ष 1923 में बताए गए हिन्दू धर्म के विचार के साथ होती है और इसमें फिर उच्चतम न्यायालय द्वारा यह निर्णय भी बताया है कि “हिन्दू को किसी एक शब्द में नहीं बाँधा जा सकता है। इसे धर्म में सीमित नहीं कर सकते हैं।”
और फिर आरएसएस का उल्लेख है और कथित संघ परिवार द्वारा किए गए विरोध का उल्लेख है। और वर्ष 2008 और 2009 में हिन्दुओं के ईसाई रिलिजन में जबरन या लालच देकर किए जा रहे धर्मांतरण के विरोध में किए गए क़दमों को “हिंसा” के रूप में परिभाषित किया गया है।
इस लेख में इस बात पर आपत्ति है कि क्यों भारत में “जबरन धर्मातरण विरोधी” क़ानून लागू है और क्यों भारतीय जनता पार्टी की सरकार है?
उसके बाद इसमें तब भारतीय जनता पार्टी के लक्ष्यों की आलोचना की गयी है, जिसमें जाहिर है जबरन धर्मांतरण विरोधी अधिनियम भी सम्मिलित है, और फिर भारतीय जनता पार्टी के नेताओं द्वारा किये गए कथित हिंसा के कार्य सम्मिलित दिखाए गए हैं।
फिर इसमें विश्व हिन्दू परिषद से लेकर बजरंग दल आदि द्वारा किए गए विरोधों को हिंसा बताया गया है। परन्तु जबरन धर्मांतरण के लिए मिशनरी क्या चालबाजियां करती हैं, यह पूरे अंतर्राष्ट्रीय विमर्श से गायब है!
ऐसा ही एक और लेख है
Neo-Hindu Fundamentalism Challenging the Secular and Pluralistic Indian State अर्थात नव हिन्दू कट्टरता जो एक सेक्युलर और बहुलतावादी भारतीय राज्य को चुनौती प्रस्तुत कर रही है
इस लेख को Gino Battaglia Writer and essayist, independent researcher; Clarence Terrace, Penzance TR18 2PZ, Cornwall, UK; ने लिखा है और अपने लेख के आरम्भ में उसी विचार को प्रस्तुत किया है, जो अब आकर कांग्रेस के राहुल गांधी ने संसद में कहे थे। अर्थात भारत कभी भी एक देश नहीं रहा। भारत कई राज्यों का समूह रहा। जैसे भारत कई महान धर्मों की स्थली है।
फिर इसमें लिखा है कि हिन्दू, सिख, बौद्ध, और जैन धर्म जहाँ भारत के देशज धर्म हैं तो वहीं इस समय भारत में विश्व की तीसरी सबसे बड़ी जनसँख्या है और भारत में रहने वाले ईसाई भी कई परम्परावादी हैं, जैसे साईरो मालाबार चर्च, साइरो-मलान्कारा चर्च, और मलंकारा ऑर्थोडॉक्स सीरियन चर्च, कैथोलिक चर्च आदि आदि (Syro–Malabar Church (catholic, East Syrian Rite), Syro–Malankara Church (catholic as well, West Syrian
Rite), Malankara Orthodox Syrian Church, Catholic Church (Latin Rite), and so on। Some of them (the so
called Saint Thomas Christians) might have been there since sub-apostolic age।)
फिर इसमें वही बात है जो राहुल गांधी ने कही थी, जैसे कि क्या आईडिया ऑफ इंडिया है। और नेहरू जी तो विविधता में एकता की बात करते थे, परन्तु 1920 में दामोदर सावरकर द्वारा हिंदुत्व को केवल हिन्दुओं के साथ जोड़ दिया गया।
और इस लेख में भी हिन्दी को लेकर वही बात कही गयी है जो राहुल गांधी और उनकी कांग्रेस बार बार कर रही है। ऐसा इस लेख को पढ़कर ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे राहुल गांधी का हाल ही में बजट सत्र में दिया गया भाषण हूबहू इसी लेख से अनूदित कर दिया गया हो। इसमें लिखा है कि हिन्दी संस्कृत से निकली है, और वह राष्ट्रीय पहचान के स्थान पर हिन्दू पहचान के रूप में समस्यात्मक हो गयी। संस्कृत से भरा हुआ उत्तर और द्रविड़ दक्षिण एक नहीं हो पाए और अंग्रेजी को शिक्षितों ने एक आम स्वीकृत भाषा के रूप में अपनाया।
यही बात स्थापित तो राहुल गांधी करना चाहते हैं, जो पश्चिम का वामपंथ भारत को लेकर एकेडमिक्स में स्थापित कर रहा है।
ऐसे एक नहीं कई लेख हैं, जिनमें इस्लाम में जो कई वर्ग हैं, उनकी जड़ें भी हिन्दू धर्म की वर्ण व्यवस्था में बता दी गयी हैं। जबकि यह पूरे के पूरे विमर्श पश्चिम और मुस्लिम परिभाषाओं के माध्यम से हिन्दू धर्म को देखने के आधार पर किए गए हैं। यह नहीं ज्ञात है कि वर्ण क्या है? यह उन्हें नहीं पता है कि हिंदुत्व क्या है, हिन्दू क्या है? और फिर ऐसे लेखों में बार बार आरएसएस, भाजपा, बजरंग दल को लेकर वही बातें कही गयी हैं।
ऐसे लेखों में हिन्दुओं पर होने वाले तमाम आक्रमणों को जैसे न्यायोचित ठहराया गया है, हिन्दुओं की पीड़ा से अनभिज्ञ ऐसे तमाम लेख हैं जो हिन्दुओं की पीड़ा को मानवाधिकार के दायरे से ही जैसे बाहर कर देते हैं। क्योंकि भारत में तो वह बहुसंख्यक हैं और संयुक्त राष्ट्र की अल्पसंख्यक की जो परिभाषा है वह उन वैश्विक बहुसंख्यकों को, जिनके हाथों में विमर्श निर्धारित करने का अधिकार है, भारत में अल्पसंख्यक घोषित कर देती है।
और हिन्दू जो वैश्विक स्तर पर अल्पसंख्यक हैं, और एक अल्पसंख्यक होने के नाते उनका लगभग पूरे विश्व में कहीं धार्मिक अधिकार उस प्रकार नहीं है जैसा मुस्लिम और इसाइयों का है, वह भारत में जो उनका कथित रूप से एकमात्र स्थल रह गया है वहां पर उन अपराधों के लिए दोषी ठहराए जाते हैं, जो उनका मूलभूत धार्मिक अधिकार है।
परन्तु विमर्श से हिन्दुओं का धार्मिक अधिकार गायब है, क्योंकि हिन्दू कोई धर्म तो है नहीं, जैसा उच्चतम न्यायलय ने कह दिया है, तो फिर हिन्दू होने का धार्मिक अधिकार कैसे आप मांग सकते हैं? इसीलिए वह विमर्श से गायब है!
और राहुल गांधी जैसे लोग उस अंतर्राष्ट्रीय अकेड्मिक्स के प्रोपोगंडा के हाथों के खिलौने बने हैं, जो भारत को एक राष्ट्र नहीं मानता है, जिसके लिए भारत आर्य और द्रविड़ में बंटा है!