गंगू बाई की कहानी को बड़े परदे पर लाकर छोटी छोटी बच्चियों को गंगू बाई के गेटअप में लाकर और माफिया क्वीन गंगूबाई को हमारी बेटियों के सामने जैसे आदर्श प्रस्तुत कर दिया था। न जाने कितनी ही छोटी छोटी बच्चियां सफ़ेद साड़ी में लाल बिंदी लगाकर गंगू बाई बनती हुई घूम रही थीं। अब संजय लीला भंसाली लेकर आ रहे हैं, लाहौर के तवायफों की कहानियां, हीरामंडी के माध्यम से! और वह नेटफ्लिक्स के माध्यम से ला रहे हैं।
हीरामंडी पाकिस्तान की सबसे बड़ी जिस्मफरोशी की मंडी मानी जाती थी और अभी तक वह ऐसी बदनाम गलियाँ हैं, जहाँ पर जाने से लोग बचते हैं।
नेटफ्लिक्स ने यह कहते हुए पोस्टर जारी किया है कि एक और समय, एक और युग एक और जादूई संसार संजय लीला भंसाली ला रहे हैं, और हम इसका भाग बनकर खुश हैं, हीरामंडी के जादूई संसार की एक झलक देखिये
किसी भी सभ्य समाज के लिए यह टैगलाइन ही कितनी अजीब है कि एक ऐसा संसार जहां पर “तवायफें” बेगम हुआ करती थीं।
यह भी दुर्भाग्य की बात है कि संजय लीला भंसाली इतिहास के नाम पर कोठों की हिस्ट्री बताने जा रहे हैं। कोठों की हिस्ट्री बताकर वह लड़कियों के सामने क्या प्रस्तुत करना चाहते हैं क्योंकि पश्चिम का सहज आकर्षण मुगलों के हरम के प्रति रहा ही है और हरम को पश्चिम ने हमेशा ही एक ऐसे स्थान के रूप में प्रस्तुत किया है जहां पर औरतों को आजादी थी कि वह अपने हिसाब से जीवन जी सकें और कला आदि का केंद्र हरम हुआ करते थे। मुगलों के हरम को लेकर एक बहुत ही सॉफ्ट कार्नर उनके दिल में रहा है और इसे उन्होंने अपनी पेंटिंग्स आदि में बहुत ही सुन्दर एवं कलात्मक स्थान बताया है।
यह बहुत ही अजीब मानसिकता है पश्चिम के कला जगत की कि वह लोग लगातार ही हरम का महिमामंडन करते रहे हैं। यहाँ तक कि उस अकबर को महान बताया जाता है जिसने सबसे पहली बार हरम को संस्थागत रूप ही नहीं दिया, यह भी नियम बनाया कि एक बार जो औरत हरम में जाएगी, उसकी अर्थी ही हरम से बाहर आएगी। अकबर के हरम में पांच हजार से अधिक औरतें थीं।
मगर पश्चिम और पश्चिम की सोच से प्रभावित इतिहासकारों और लेखकों के लिए मुग़ल काल तहजीब का समय था और यह तवायफें लोगों को “कला” सिखाती थीं, हरम में कलाएं विकसित की जाती थीं। ऐसा प्रतीत होता है जैसे यौन कुंठाओं से ग्रसित लोगों ने लेखकों का रूप धरकर लिखा था।
एक बहुत ही अच्छी पुस्तक हरम, द वर्ल्ड बिहाइंड द वील्स” जिसे अलेव क्रोटियर ने लिखा है। इस पुस्तक में विस्तार से पश्चिम की उस सोच को दिखाया है जो हरम को लेकर एक आकर्षण पाले हुए बैठी है। इस पुस्तक का उनका उद्देश्य था कि वह पश्चिम द्वारा हरम के महिमामंडन से परे होकर हरम की असलियत को दिखा सकें, क्योंकि उनका अपना खुद का अतीत हरम का ही था
उन्होंने लिखा कि “मुझे फेमिनिस्ट दृष्टिकोण से महिलाओं का यह रहस्यमय संसार लिखने में दस साल का समय लगा। मेरी मंशा व्यक्तिगत और सांस्कृतिक थी। मै अपने पारिवारिक इतिहास के जरिए हरम की वह दुनिया दिखाना चाहती थी, जिसे पश्चिमी कल्पना ने एक कामुक और आकर्षक सपने के रूप में बदल दिया था! मैं उन कठिनाइयों को सामने लाना चाहता थी जो पश्चिमी लेखकों और चित्रकारों द्वारा हरम में रहने वाली औरतों के सम्मोहक चित्रण से कहीं अलग थी।”
उन्होंने लिखा कि उन्हें यह भी समझना था कि पश्चिम अपनी खुद की महिलाओं को ऐसे रोमांटिक भेष में क्यों देखना चाहता था।
यही प्रश्न अब उठता है कि नेटफ्लिक्स और संजय लीला भंसाली भी क्यों तवायफों का महिमामंडन दिखा रहे हैं? और क्या लाहौर और भारत की पहचान अब तवायफें हुआ करेंगी? वह कौन सी तहजीब सिखाती थीं? क्या लाहौर का इतिहास इन तवायफों के साथ है?
लाहौर का नाम किसके नाम पर है? कहा जाता है कि यह शहर प्रभु श्री राम के पुत्र लव के नाम पर लवपुर के नाम से बसा था, जो कालान्तर में लाहौर हो गया। जैसा कि लाहौर पर लिखी एक पुस्तक सिटी ऑफ सिन एंड स्प्लेंडर में बापसी सिधवा ने लिखा है कि “लोकप्रिय मत के अनुसार, लाहौर या लोह-अवर” की स्थापना लव या लोह, ने की थी जो प्रभु श्री राम के पुत्र थे। मगर जो लाहौर हम आज जानते हैं, वह मुगल शासकों की देन है!
यदि नेटफ्लिक्स या संजय लीला भंसाली को तहजीब सिखाने वालों की चिंता है तो यह भी चिंता की ही जानी चाहिए कि लवपुर का नाम लाहौर कैसे हो गया और कैसे एक सुसंस्कृत नगर में तवायफें बताने लगीं कि तहजीब क्या हैं?
इसी पर एक और पुस्तक लिखी गयी है “द डांसिंग गर्ल्स ऑफ लाहौर”। और इसे लिखा है लुईस ब्राउन ने!
उसमें क्या लिखा है, उस पर गौर करना चाहिए और देखना चाहिए कि कैसे और कब लवपुरी देखते देखते लाहौर हो गया। वही लवपुरी, जिसे प्रभुश्री राम के पुत्र लव ने बसाया था। हम साझे इतिहास से कब अलग हो गए और कब लवपुर टूटकर लाहौर हो गया, हम ठगे से रह गए। हम अभी तक ठगे ही खड़े हैं, तभी कोई भी आता है और कुछ भी लिखकर चला जाता है। हम उसे इतिहास मान बैठते हैं। हम चेतना की धूल झाड़ते हैं और कहते हैं, कौन पीछे देखे?
अब जब नेटफ्लिक्स और संजय लीला भंसाली पीछे मुड़कर देख रहे हैं तो वह भी वहीं पर जाकर ठिठक गए हैं जहाँ पर हिन्दू घृणा तो है ही साथ ही देह और यौन कुंठाओं का ऐसा संसार है, जो हमारी बेटियों को भी वहीं तक सीमित कर देगा!
लव के द्वारा बसाए हुए नगर की पहचान एक समय में आकर हीरामंडी हो गयी थी। हीरामंडी, जहाँ पर तवायफें बसा करती थीं और हैं। लुईस ब्राउन ने इस किताब में साझे हिन्दुस्तान की कहानी लिखने की कोशिश की है। मगर वह जब लाहौर का इतिहास देखते हैं तो मुग़ल काल से ही शुरू करते हैं। हाँ वह इतना जरूर लिखते हैं, कि पाकिस्तान की संस्कृति में दो महान सभ्यताओं का मिश्रण है, उत्तर भारत के महान हिन्दुओं और मुस्लिम आक्रमणकारियों का।
खैर, जब वह इन औरतों के दुःख की दास्तान लिख रहे हैं, अर्थात कंजर समुदाय की औरतों की, क्योंकि जाति तो इस्लाम में होती नहीं, तो वह घूम फिर कर हिन्दुओं को ही दोषी ठहराते नजर आते हैं। वह हर पेशे को जन्म के साथ जोड़ते हैं। कि कुम्हार का बेटा कुम्हार, लोहार का बेटा लोहार, या सुनार का बेटा सुनार, और इसी तरह वैश्या की बेटी वैश्या!
और उन्होंने मंदिरों के साथ वैश्यावृत्ति जोड़ दी। इसके साथ ही यह जस्टिफाई करते हैं कि उत्तर भारत में मंदिरों में अब वैश्यावृत्ति नहीं होती, अर्थात देवदासी नहीं हैं क्योंकि सैकड़ों वर्षों के मुस्लिम शासन ने या तो मंदिरों का प्रशासन अपने हाथों में ले लिया था या फिर उन्हें तोड़ दिया था। उत्तर भारत में मुगलकालीन एक भी मंदिर नहीं है।
मगर लाहौर में अभी तक हीरामंडी है
इस तरह लुईस ब्राउन मंदिरों के विध्वंस को सही ठहरा रहे हैं, मगर वह एक बात का उत्तर इस किताब में नहीं लिखते हैं कि यदि मंदिरों से ही वैश्यावृत्ति या कहें देवदासी से ही वैश्यावृत्ति थी, या हिन्दुओं में ही इतनी बुरी हालत थी तो इस्लाम में मतांतरित होते ही इन्हें गृहणियों का दर्जा मिल जाना चाहिए था, या फिर इनमें इल्म आ जाना चाहिए था। यह कहते हैं कि इस्लाम हालांकि जाति व्यवस्था नहीं मानता मगर दक्षिण एशिया में जब इस्लाम आया तो उसमें जाति प्रथा आ गयी और जो निचले जाति के हिन्दू आए, वह वहीं रहे।
जब वह कहते हैं कि मंदिरों में देवदासी के कारण वैश्यावृत्ति थी, तो उत्तर भारत में तो यह खत्म हो जानी चाहिए थी, ख़ास तौर पर जहाँ जहाँ भी मंदिर तोड़े, इस हिसाब से तो पाकिस्तान में तो यह होनी ही नहीं चाहिए। मगर इस किताब में वह यह कहते हैं कि पाकिस्तान में यदि आप अमीर और रसूखदार हैं तो आप न केवल जितनी मनचाही औरतों बल्कि आदमियों के साथ रिश्ते रख सकते हैं। मगर वहां तो मंदिर नहीं हैं।
वह मुगलों की अय्याशियों को चाशनी में लपेटते हैं और कहते हैं कि सेन्ट्रल एशिया से आए मुगलों ने इस्लामिक जगत से अपनी प्रथाएं लीं जिनमें सरदारों और बादशाहों की सेवा के लिए औरतें ज़नाना में रहती थीं, बादशाहों का पूरा नियंत्रण अपनी बीवियों और रखैलों पर होता था। शाही लोगों के लिए नाच गाना होता था और खूबसूरत नाचने वाली लड़कियां बादशाहों के बड़े हरम का हिस्सा बन जाती थीं, अकबर के हरम में पांच हज़ार औरतें थीं और कहा जाता है कि औरंगजेब के पास इससे भी ज्यादा!
पश्चिम के लेखकों में इस कदर हिन्दुफोबिया है कि वह हर अच्छी चीज़ को पश्चिम और मुगलों की देन और हर बुरी चीज़ को हिन्दुओं की देन बताते हैं। यदि मन्दिरों में देवदासी से ही स्त्रियों को वैश्या बनाया जाता था, तो आज इस्लामिक देशों में वेश्याएं नहीं होतीं, हीरामंडी नहीं होती!
मगर हिन्दूफोबिया से ग्रसित हो चुकी आँखें कुछ नहीं देखतीं हैं।
यदि हिन्दू ही सभी बुराइयों की जड़ है तो वाकई आज हीरामंडी होनी ही नहीं चाहिए थी, मगर वह है, तमाम कहानियों के साथ है, तमाम दर्द के साथ है!
पीछे झांकिए, जिस भूमि की पहचान लव और राम होने थे, वह आज न केवल पाकिस्तान की सबसे बड़ी देह की मंडी के नाम से जाना जाता है अपितु आज भी उसी हिन्दू को दोषी ठहराया जाता है, जो मुट्ठी भर शेष हैं।
और दुर्भाग्य की बात यही है कि अब यह स्थापित किए जाने का प्रयास किया जाएगा कि दरअसल तवायफें तो तहजीब सिखाती थीं, परन्तु कौन सी तहजीब सिखाती थीं यह तो प्रश्न अनुत्तरित रह जाएगा या फिर वह पश्चिम के कुछ लोगों की उसी विकृत सोच को सामने ला रहा है जो अलेव क्रोटियर ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि पश्चिम बुर्के और हिजाब को रोमांटिसाइज़ करता है।
वह लिखती हैं कि पश्चिम में हरम का अर्थ है “खुशियों का घर”, पश्चिम की सोच ने हरम को खुशियों का घर बताया और फिर हरम में हो रहे शोषण को “प्यार” की संज्ञा दी और उस पीड़ा से उपजी हुई कुंठा को कला की!
और उसी यौन कुंठित सोच से ग्रसित होकर ही संजय लीला भंसाली और नेटफ्लिक्स लिख रहे हैं “हीरामंडी की तवायफों को बेगम!”