15 अगस्त को भारत और भारतवासियों 76वां स्वतंत्रता दिवस पूरे हर्षोउल्लास से मनाया। स्वतंत्रता दिवस जब भी मनाया जाता है, तब विभाजन भी स्मरण हो आता है, जो हमारे देश के इतिहास के कुछ सबसे कलुषित कालखंडों में से एक माना जाता है। यह वह समय था जब देश ने कुछ सौ वर्षों बाद एक बार फिर से मजहबी हिंसा का उन्माद देखा था। इस हिंसा में लाखों लोग काल कवलित हो गए, वहीं लाखों ऐसे थे जिन्हे ऐसी मानसिक, शारीरिक और आर्थिक चोट लगी कि वह आजीवन इसके प्रभाव से उबर नहीं पाए।
विभाजन के समय की उन हिंसक घटनाओं को हमारे प्रख्यात इतिहासकारों, वामपंथी-उदारवादी बुद्धिजीवियों और धर्मनिरपेक्ष राजनेताओं ने ना सिर्फ दबा-छुपा दिया, बल्कि वीर सावरकर और गोपाल पाठा जैसे हिंदु नायकों को खलनायक के रूप में चित्रित कर हिन्दुओं को भ्रमित कर दिया। वहीं तमस जैसे हिन्दू-विरोधी दुष्प्रचार करने वाले टीवी धारावाहिकों के माध्यम से उन भयावह घटनाओं की स्मृति को जनमानस के मन से मिटाने का पाप भी किया है।
हिन्दू समाज हमेशा से शत्रु-बोध की कमी से जूझता आया है, यह एकमात्र ऐसा समाज है जो इतिहास से कुछ भी नहीं सीखने की कसम खाये बैठा है। विभाजन एक बहुत बड़ी घटना थी जो हिन्दुओं के चेतन को जागृत कर सकती थी, लेकिन दुर्भाग्य से हिंदू समाज इतने बड़े नरसंहार के बाद भी आराम से सो गया। विभाजन के पश्चात पूर्वी पाकिस्तान में 1950 और 1964 के हिंदू विरोधी नरसंहारों को दोहराया गया था; 1971 के नरसंहार में जिसने लगभग २५ लाख हिंदू मारे गए, वहीं 1990 में कश्मीरी हिंदुओं का भी नरसंहार हुआ। वहीं स्वतंत्रता के पश्चात बांग्लादेश और पाकिस्तान में बचे हिन्दुओं का क्रमिक धार्मिक सफाया और उनका पलायन में आज तक दोहराया जा रहा है।
विभाजन के समय सबसे भयावह हिन्दुओ विरोधी दंगे बंगाल में हुए थे, जब मोहम्मद अली जिन्ना ने अपने मुस्लिम लीग कार्यकर्ताओं से पाकिस्तान के लिए अपनी मांग को को जोर शोर से उठाने और किसी भी तरह के दबाव को हटाने के लिए ‘सीधी कार्रवाई’ करने का आग्रह किया था। इस डायरेक्ट एक्शन डे कहा जाता है, जो 16 अगस्त 1946 को कलकत्ता में उन्मादी इस्लामिक भीड़ ने शुरू किया गया था। यह एक मजहबी हिंसा थी जो बंगाल की हिंदू आबादी पर इस्लाम की बर्बरता को दिखाने का एक अवसर था।
डायरेक्ट एक्शन डे इतना भयावह था कि इसे याद कर आज भी लोग काँप जाते हैं। इस घटना के प्रत्यक्षदर्शी अब बहुत ही काम बचे हैं, लेकिन उनमे से एक रवींद्रनाथ दत्ता जी (92) उस दुर्भाग्यपूर्ण और दर्दनाक दिन और उसके पश्चात अक्टूबर-नवंबर 1946 में उसके बाद हुए समान रूप से भयावह नोआखली दंगों में जैसे तैसे अपने प्राण बचा पाए थे। उन्होंने पत्रकार अभिजीत मजूमदार को एक वीडियो में अपने अनुभव साझा किये हैं, उन्होंने उस समय की भयावहताओं को याद किया उन्होंने प्रत्यक्ष देखी थी।
रवींद्रनाथ दत्ता बताते हैं कि वो जैसे तैसे इन दंगों में जीवित बचे थे, और दुर्भाग्य से वह राजा बाजार इलाके में गए, जहां का वीभत्स दृश्य देख उनकी आत्मा कांप गयी । उन्होंने राजा बाजार की गोमांस की दुकानों पर महिलाओं के नग्न शव देखे, जिन्हे कसाइयों ने हुक से लटका रखा था, जैसे जानवरों को लटकाया जाता है। वहीं शहर के विख्यात विक्टोरिया कॉलेज का दृश्य तो उन्हें आज भी नहीं भूलता, मजहबी भीड़ ने वहां की छात्राओं का बलात्कार किया, उनकी हत्या की उनके शवों को छात्रावास की खिड़कियों से बांध दिया था।
रवींद्रनाथ दत्ता इस विभीषिका को कभी नहीं भूल पाए, अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद उन्होंने डायरेक्ट एक्शन डे, नोआखली नरसंहार और 1971 के हिन्दू नरसंहार पर 12-13 पुस्तकों को स्वयं प्रकाशित करने के लिए उनके गहने तक बेच दिए। वह स्वयं प्रत्यक्षदर्शी थे, इसके अतिरिक्त उन्होंने इन सभी घटनाओं पर दुर्लभ अनुसंधान भी किया, ताकि लोगों को सत्य से परिचित करा सकें।
वह अपना दुःख व्यक्त करते हुए कहते हैं कि बंगाल में उनके कार्य को किसी का समर्थन नहीं मिला, कोई भी राजनेता, मीडिया, प्रकाशक, कार्यकर्ता या फिल्म निर्माता उनके पास नहीं आया, किसी ने भी हिन्दुओ पर हुए इस अमानवीय अत्याचार की कहानी को जनता के सामने लाने में दिलचस्पी नहीं दिखाई।
यह बड़े ही दुःख का विषय है कि आज की पीढ़ी के अधिकाँश हिन्दुओं को तो ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ पर हुई हिंसा के बारे में जानकारी भी नहीं होगी। हम आज भी सेकुलरिज्म और सर्वधर्म समभाव का गेट गाते हैं, लेकिन अपने अतीत को भूल जाते हैं। विभाजन के समय लोगों ने सोचा होगा कि शायद अब और हिंसा नहीं होगी, लेकिन उसके पश्चात भी हिंसा नहीं थमी है, और भविष्य में भी नहीं थमने वाली। हमे अपने समाज को शत्रु बोध कराना ही होगा, हमें ऐसी घटनाओं से सीखना ही होगा, तभी भविष्य में हमारा समाज सुरक्षित रह पायेगा।