उदयपुर में जिहादी आतंक की जो घटना हुई है, उसने आम हिन्दुओं को तो हिलाकर रख ही दिया है, साथ ही उन कथित मुस्लिम समर्थक हिन्दू बुद्धिजीवियों के समक्ष एक प्रश्न खड़ा कर दिया है कि आखिर वह इस घटना की प्रतिक्रिया कैसे दें? क्योंकि यदि जिहादी हमला कहेंगे तो उनके मुस्लिम समर्थक नाराज हो जाएंगे और यदि वह जिहादी घटना नहीं कहेंगे तो उनकी किताबें खरीदने वाला हिन्दू पाठक क्या कहेगा?
पहले की तरह अब समय नहीं रहा है, कि आप चुप रह जाएं! क्योंकि आपकी बेसिरपैर की हिन्दुओं को कोसने वाली हिन्दू-विरोधी पुस्तकों को पढ़कर ही आपका पाठक यह अनुमान लगाता है कि आप कट्टर मुस्लिम हिंसा पर भी उसी प्रकार बोलेंगे जैसे आप गुजरात पर अभी तक बोलते हैं। जैसे आप गुजरात के लिए नरेन्द्र मोदी को दोषी ठहराते हैं, वैसे ही आप गहलोत या फिर अन्य किसी गैर भाजपा नेता को दोषी ठहराएंगे, जिस राज्य में यह हिंसा हुई है। परन्तु उसे निराशा हाथ लगती है, क्योंकि आप उसमें भी हिन्दुओं को दोषी ठहराते हुए उस राज्य में विपक्षी भाजपा पर या फिर हिन्दुओं पर आरोप लगा देते हैं।
फिर भी उदयपुर की घटना आपके गले नहीं निगली जा रही है! इस घटना की जितनी तेज प्रतिक्रिया हुई है, उसने आपको भी हिलाकर रख दिया है और अब कथित बुद्धिजीवी वर्ग, जो अब तक इन जिहादी तत्वों को यह कहकर सहलाता रहता था कि भारत के मुस्लिम ऐसे नहीं होते, वह सन्नाटे में है कि अंतत: प्रतिक्रिया कैसे दें? आम जनता ने देखा कि जब ज्ञानवापी में महादेव प्रकट हुए, और जैसे ही एक बड़ा वर्ग उन्हें फुव्वारा कहते हुए अश्लीलता की हर सीमा पार कर गया, आप उस समय अपने मुंह पर दही जमाए बैठे रहे, जैसे आपको बहुसंख्यक समुदाय से कोई मतलब है ही नहीं!
आपके लिए बहुसंख्यक हिन्दू समाज मात्र इसलिए है कि वह आपकी उस पूरे नेटवर्क से प्रभवित होकर किताबें खरीद लें, जो आपने अब तक कांग्रेसी राज्य में बनाया था, और उसके बाद भी वह विद्यमान है! आपके लिए बहुसंख्यक समाज आपकी किताबों को खरीदने वाला ग्राहक है और कुछ नहीं!
तो जब तक महादेव के बहाने आप सब मिलकर भावनाएं आहत कर रहे थे, तब तक सब ठीक था। सभी ने देखा कि प्रोफ़ेसर रतनलाल के मामले को लेकर आप सबने क्या किया था? कथित बुद्धिजीवी वर्ग यह नहीं कह सका कि रतनलाल ने गलत किया! बल्कि उनके खिलाफ जब एफआईआर हुई और जब उन्हें हिरासत में लिया गया, तो उनके पक्ष में आ गया।
ऐसे ही सबा नकवी के पक्ष में कथित बुद्धिजीवी औरतें आ गईं, आईडब्ल्यूपीसी आ गया। जुबैर के विषय में तो कहना ही क्या? प्रेस क्लब ऑफ इंडिया तक आ गया! शेष आईस्टैंड विद जुबैर तो था ही ट्रेंड!

तो क्या बहुसंख्यक समाज देख नहीं रहा था कि आप कैसे खुलेआम जिहादी तत्वों को समर्थन दे रहे थे? कैसे आप हिन्दू विरोधी तत्वों को समर्थन दे रहे थे?
क्या किसी ने भी एक बार भी यह खुलकर कहा कि हम सबा नकवी और जुबैर की कथित पत्रकारिता के समर्थक हैं, परन्तु हम भड़काऊ पोस्ट का समर्थन नहीं करते?
नहीं किसी ने नहीं कहा! हाँ, जब प्रयागराज जल चुका और जब उसके अपराधी को शासन के अनुसार दंड देने का समय आया तो फिर से पहुँच गए आई स्टैंड विध आफरीन का बोर्ड उठाए!
ऐसे में आपकी पक्षधरता पूर्णतया स्पष्ट हो गयी थी। हिन्दी के कथित क्रांतिकारी साहित्यकारों की आत्महीनता बहुत है। यह पढ़ते कम है और भारत के विषय में तो और भी कम। बस एजेंडा ही चलाते रहते हैं।
अल्पसंख्यक का नारा देते हैं, परन्तु अल्पसंख्यक की परिभाषा पता नहीं:
यदि संख्या से अल्पसंख्यक निर्धारण हो तो अंग्रेज भारत में अल्पसंख्यक थे, फिर भी उन्होंने बहुसंख्यक हिन्दुओं को हर प्रकार से प्रताड़ित किया।
हिंसक और कबीलाई मुस्लिम आक्रमणकारी भी अल्पसंख्यक ही थे!
अल्पसंख्यक की परिभाषा न ही संयुक्त राष्ट्र संघ में निर्धारित है और न ही भारतीय संविधान में। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29, 30, 350A तथा 350B में ‘अल्पसंख्यक’ शब्द का प्रयोग किया गया है लेकिन इसकी परिभाषा कहीं नहीं दी गई है।
और हाल ही में उच्चतम न्यायालय में यह भी मुकदमा चल रहा है कि प्रदेशों के आधार पर धार्मिक अल्पसंख्यक का निर्धारण किया जाना चाहिए। आखिर फिर कौन है अल्पसंख्यक, जिनके अधिकारों के हनन के विरोध में हिंदी साहित्यकार पन्ने रंगते रहते हैं और मजे की बात यही है कि उनके लिए बाबर जिसने हिंदुस्तान पर बेइन्तहा जुल्म किए थे, उसका नाम इतना पवित्र हो गया कि उन्होंने कथित बहुसंख्यकों की शताब्दियों की पीड़ा को भी भुला दिया।
1990 के दशक में कश्मीर में कश्मीरी पंडित वहां के बहुसंख्यकों द्वारा प्रताड़ित ही नहीं हो रहे थे, बल्कि अत्याचार की हर सीमा पार की जा रही थी, उस समय यहाँ मैदान का लेखक समुदाय कथित हिन्दू कट्टरता के उभरने की प्रतीक्षा में था, जिससे हिन्दुओं को खलनायक ठहरा सके!
अब लीपापोती की जा रही है
अब उन्हें बुरा लग रहा है कि किसी भी हिंसक घटना के होने पर कथित बुद्धिजीवियों को ही क्यों कोसा जाता है? फेसबुक पर यह अत्यंत मासूम प्रश्न बनकर उभर रहा है? और वह लोग कह रहे हैं कि हम तो अल्पसंख्यकों के पक्ष में बोलते हैं और साथ ही जो जुल्म करना है उसका विरोध करते हैं? नई नई फेमिनिस्ट लेखिकाएं पूछ रही हैं कि जब भी देश में कोई धर्म से सम्बन्धित अप्रिय घटना होती है उसका ठीकरा सबसे पहले सेक्युलरों के सिर फोड़कर खुद को बड़ा धार्मिक हितैषी घोषित कर दिया जाता है?
अब फेसबुक पर लम्बी लम्बी पोस्ट साम्प्रदायिकता के विरुद्ध पोस्ट की जा रही हैं, ट्विटर पर विनोद कापड़ी से लेकर साइमा तक यह कह रहे हैं कि उदयपुर में जो हुआ, वह गलत है, आदि आदि! परन्तु क्या इसी के लिए इन्होनें नहीं भड़काया था? क्या नुपुर शर्मा के उस एडिटेड वीडियो के माध्यम से “सर तन से जुदा” के नारों को मौन समर्थन नहीं था?
प्रश्न इस देश के कथित बुद्धिजीवियों से बहुत हैं! परन्तु उनके उत्तर उतने ही शून्य हैं, जितनी उनकी वैचारिकी!