तालिबान के सत्ता में आने के बाद से ही अफगानिस्तान में औरतों के कामकाज को लेकर कई बातें हो रही थीं और उन्होंने कहा था कि वह लड़कियों की पढ़ाई पर भी रोक नहीं लगाएंगे। सबसे रोचक बात है कि तालिबान के बदले हुए रूप को लेकर भारत में फेमिनिस्ट अत्यधिक उत्साहित थीं, और बार बार यही कह रही थीं कि कम से कम वह औरतो को पढ़ाई तो करने दे रहे हैं।
पर समय के साथ अब असलियत सामने आने लगी है। तालिबान के शासन के बाद स्कूल खुल गए हैं, मगर केवल लड़कों के लिए ही स्कूल खुले हैं, और बहुत ही हैरानी की बात है कि लड़कियों के लिए स्कूल नहीं खोले गए हैं। शनिवार से अफगानिस्तान में लड़कों के लिए स्कूल खुल गए हैं, मगर शिक्षा मंत्रालय की ओर से ऐसा कोई बयान नहीं आया है कि लड़कियों के स्कूल कब से खुलेंगे! कुछ स्कूलों में कक्षा छ तक लडकियां स्कूल जाने लगी हैं, पर उससे ऊपर की कक्षाओं के लिए लड़कियों की शिक्षा पर अभी प्रश्न चिन्ह ही है क्योंकि लड़कियों के लिए हाई स्कूल की कक्षाएं बंद हैं।
मगर उससे भी हैरानी वाला और आश्चर्य में डालने वाला बयान अफगानिस्तान के मेयर की ओर से आया है। अफगानिस्तान में काबुल के मेयर ने कहा है कि “काबुल में केवल वही मुनिसिपल वर्कर काम पर आएंगी, जिनके कार्यों को आदमी नहीं भर सकते हैं।”
और औरतों के जिन कामों को आदमी कर सकते हैं, उन औरतों को काम पर तब तक आने की जरूरत नहीं है जब तक स्थितियां सामान्य नहीं हो जातीं। उन्हें तनख्वाह दी जाती रहेगी।
मौलवी हम्दुल्लाह ने स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि “पहले तो हमने उन्हें सभी पदों पर आने की अनुमति दी थी, मगर बाद में हमने यह अहसास किया कि इस्लामिक अमीरात के अनुसार अभी औरतों का काम पर आना उचित नहीं है।”
यह सुनने में बहुत ही साधारण पंक्ति है, कि जो काम आदमी नहीं कर सकते हैं, वह औरतें करेंगी। मगर यही प्रश्न है कि जब औरतें घर से बाहर ही नहीं निकल रही हैं, तो ऐसे में क्या काम है जो औरतें ही केवल कर सकती हैं? क्योंकि औरतों के कल्याण मंत्रालय में भी कार्यरत औरतों को काम पर नहीं आने दिया था। अर्थात स्वास्थ्य कर्मियों को छोड़कर अभी कोई भी महिला कर्मचारी अफगानिस्तान में संभवतया कार्य पर नहीं लौटी हैं।
फिर ऐसे में वह कौन से काम हैं, मुन्सिपिल में, जो औरतें कर सकती हैं?
यही एक प्रश्न है, जिस के विषय में कई अनुमान लगाए जा सकते हैं। मुन्सिपिल में क्या कार्य हो सकते हैं? स्पष्ट है कि साफ सफाई से ही सम्बन्धित। अर्थात सफाई कार्य करने के लिए ही औरतों को बुलाया जा रहा है क्या?
पाठकों को पकिस्तान सेना का वह विज्ञापन याद होगा, जिसमें स्वीपर/सफाई कर्मियों के लिए केवल “गैर-मुस्लिमों” को ही आवेदन करना था। इस पर काफी बवाल मचा था तो इसके पक्ष में कई यूजर आ गए थे और कहा था कि दरअसल यह कदम गैर-मुस्लिमों की रक्षा के लिए था।
क्या इसी विज्ञापन में इस प्रश्न का उत्तर है कि आखिर तालिबान ने औरतों को उन कामों के लिए बुलाया है, जो आदमी नहीं कर सकते?
पाकिस्तान के पास तो अभी भी यह सौभाग्य है कि कुछ गैर मुस्लिम पाकिस्तान में हैं और वह अभी भी मोची, बढ़ई और सफाई कर्मचारी जैसे पदों के लिए गैर मुस्लिमों से आवेदन मांग सकता है, क्योंकि ऐसे छोटे काम शायद आदमी नहीं करेंगे, तो क्या यह मान लिया जाए कि ऐसे ही छोटे कामों के लिए औरतों को काम पर वापस बुलाया है?
तालिबान की प्रेस कांफ्रेंस पर उदारता पर प्रधानमंत्री मोदी को कोसने वाले पत्रकार यह प्रश्न नहीं कर पा रहे हैं कि आखिर जब लडकियां बाहर ही नहीं निकल रही हैं तो ऐसे मुन्सिपिल के ऐसे कौन से काम हैं, जो मुस्लिम आदमी नहीं कर सकते हैं और जिसके लिए हर हाल में औरतों को बाहर आना ही होगा?
मगर हाँ, जो मुस्लिम लोग इस आदेश के खिलाफ बोल रहे हैं, उनकी लिंचिंग जरूर कर रहे हैं। हाल ही में आरएसएस और तालिबान की समानता करने वाले जावेद अख्तर ने इस बात का विरोध किया, तो उन्हें गाली देने के लिए मुस्लिम कट्टरपंथी आ गए। उन्होंने लिखा था कि अलज़जीरा के अनुसार काबुल के मेयर ने सभी महिला कर्मियों को घर पर रहने का आदेश दिया है। और मैं मुस्लिम संस्थाओं से अपेक्षा करता हूँ कि वह मजहब के नाम पर किए जा रहे इस कदम का विरोध करें!
वहीं एक यूजर ने तो जावेद अख्तर को बूढ़ा सठियाया बोल दिया और लिखा कि काबुल और अफगानिस्तान के मामलों के तीन तलाक का क्या काम? जावेद अख्तर भक्तों को खुश करने के लिए बोल रहे हैं!
परन्तु बार बार यही प्रश्न आ रहा है कि क्या अफगानिस्तान में सफाई आदि के लिए किसी हिन्दू या ईसाई के न होने के कारण ही औरतों को केवल सफाई के ही कामों की अनुमति दी है? यदि नहीं तो ऐसे कौन से काम हैं, जो आदमी नहीं कर सकते हैं, पर औरतें कर सकती हैं? दुर्भाग्य की बात यह है कि बुर्के में ही सही कॉलेज आने देने की आज़ादी पर खुश होने वाला कट्टर इस्लाम को पसंद करने वाला फेमिनिज्म इस प्रश्न को नहीं उठा रहा है!
यद्यपि इन सब प्रश्नों का स्थान भारत में नहीं होना चाहिए, जहाँ पर स्त्रियाँ अब सेना में भी उच्च पदों पर हैं, न्यायपालिका आदि हर क्षेत्र में स्त्रियाँ अपनी सफलता के झंडे गाढ़ रही हैं, परन्तु कुछ कथित लिबरल, जो उदारवाद का चोला ओढ़े कट्टर इस्लामी हैं, कुछ फेमिनिस्ट जो इस्लाम के कट्टर मर्दों में अपना मसीहा खोजती हैं, उन्हें इस्लाम की कट्टरता के नाम पर मुस्लिम औरतों के साथ किया जा रहा अन्याय दिखाई नहीं देता! जब साथ देने की बारी आती है तो वह कट्टर मुस्लिम आदमियों के पक्ष में जाकर खड़ी हो जाती हैं, बजाय मुस्लिम औरतों के!