कश्मीरी रामयण ‘रामावतारचरित’ में कैकेयी-दशरथ प्रसंग अपनी पूर्ण संवेदनशीलता के साथ वर्णित हुआ है।बचनबद्धता के प्रश्न को लेकर दशरथ और कैकेयी के बीच जो परिसंवाद होता है, उसमें एक पिता हृदय की शोकाकुल/वात्सल्य युक्त भाव अभिव्यक्तियों को मूर्त्तता प्राप्त हुई है–
युथुय बूज़िथ राज़ु बुथकिन्य पथर प्यव
त्युथुय पुथ साहिब ज़ोनुख सपुन शव,
अमा करुम ख्यमा सोज़न नु राम वनवास
मरअ तस रौस वन्य करतम तम्युक पास
यि केंछा छुम ति सोरूय दिम ब तस
मे छुम अख रामजुव, छुम त्युतुय बस। (पृ० ७७)
मेरा तो बस एक राम ही सबकुछ है, बस एक राम जी!) ‘रामावतारचरित’ में वर्णित कथानुसार राम के राज्याभिषेक की खबर जब राजा इन्द्र के पास पहुंची तो उसने सरस्वती को बुलवाया और उसी रात उसे (अयोध्या पुरी) भेजा। उसने (इन्द्र ने आगे) कहा: तू जा और कैकेयी का मन फेर जिससे वह रामचंद्र को वन भिजवा दे। बस, इतना ही कहना था कि कैकेयी का मन डोल (फिर) गया और वह राजा से अपना मंतव्य कहने के लिए तैयार हो गई। कहते हैं, जब रात को राजा कैकेयी के पास गये तो उसने (कैकेयी ने) कहा-सुनिए, आज तक मैंने (आप से) कुछ भी नहीं मांगा, यदि अब मैं कुछ माँगू तो देने की इच्छा से (अनायास ही) वह मुझे मिलना चाहिए। (इस पर) उसने (राजा ने) कहा-जा, दे दिया-अब माँग।
हाथों में हाथ लेकर (राजा ने आगे) कहा, यदि तू जान तक माँगेगी तो मैं वह भी स्वयं पेश करूँगा। (भला) ऐसी कौन-सी चीज़ है जो तू माँगेगी और मेरे पास होते हुए भी तुझे न दूँ। तू मुँह के बल भी कहीं चलने को कहे तो मैं चला जाऊंगा। जब कैकेयी ने देखा कि राजा त्रिया-जाल में पूर्णतया फंस चुका है तो उसने उसकी (राजा की) ऐसी दुर्गति की जो दुश्मन भी नहीं कर सकता था। कहते हैं, कैकेयी उसकी (राजा की) बहुत ही लाडली रानी थी और उसने कहा-रामचंद्र का राजा होना मेरे लिए दाह (जलन) समान हो रहा है। आपने कसम खाई है ना, अब वायदे का पालन अवश्य होना चाहिए। भरत राजा हो तथा राम को वनवास मिले। कहते है, देखिए, कैकेयी को वायदे की पूर्ति के लिए यह क्या सूझी जिसे सुनते ही राजा अपनी जान व वस्त्रों को चाक(फाड़ते) करते हुए गिर पडा़। वे मुंह के बल नीचे गिर पड़े और सभी को लगा जैसे वे शव हो गये हों (मर गये हों)।
वे खूब रोए और कैकेयी से कहने लगे कि यह तूने क्या कहा जो मेरा जिगर चीर डाला और मेरा अन्तस् अग्निमय कर दिया? तुझे तो रामचन्द्रजी की खूब चाह थी, यह तूने क्या किया और क्या कहा-अब कौन-सा चारा(उपाय) हो सकता है? यह तुमसे किसने कहा (सिखाया) कि जीते जी (अपने भर्त्ता )को जला डाल तथा पतों में अमृत लगाकर मूल को नष्ट कर डाल। यह तुमसे किसने कहा कि तू (मेरी) दो आँखों में तीर चला, (खैर) तेरा इसमें कोई कसूर नहीं है-यह मुझे मेरे पाप का फल मिला है।(मैं याचना कर रहा हॅू) मुझे क्षमा कर।राम को वनवास न दिला-उसके बिना तो मै मर जाऊंगा,जरा मेरा पास (लिहाज़) कर। मेरे पास जो कुछ भी है, वह मैं सब भरत को दे दूंगा-मेरे तो, बस,राम ही सब कुछ हैं, बस, वही सब कुछ हैं।
(राजा ने अपनी ओर से) जी-जान अर्पण कर (बहुत अनुनय-विनय कर) धीरे-धीरे उससे (कैकेयी से) कहा-तूने मेरा जिगर छलनी कर दिया और दिल के टुकड़े कर दिये। तू ऐसा षड्यंत्र न रच, इससे (तुझे) क्या लाभ (नफा़) होगा? (यह बात) केवल मैंने (अभी तक) सुनी है, कोई दूसरा इसे अब न सुने। (इस पर) कैकेयी ने कहा- यदि आप मेरी बात नहीं सुनेंगे तो मैं आत्मदाह कर लूँगी तथा नगर-भर में आपके व्रत-पालन की पोल खोल दूँगी। शत्रुघ्न और भरत ननिहाल गये हुए हैं, उनको मैंने बुलावा भेजा है, वे आ रहे होंगे। (आखिर) यह बात बाहर गई (फैल गई) और रहस्य का उद्घाटन हो नया। रामचन्द्रजी रोते हुए आये, राजा को प्रणाम किया और कहा: मुझे रुखसत कीजिए, सिंहासन पर आप स्वयं बैठ जाइए और वे (रामचन्द्र जी) मोतियों के दानों के समान आँसू बहाने लगे। राजा ने (बहुत) कहा-(मेरे लाल!) तुझ पर बलिहारी जाऊं, तू सिंहासन पर बैठ।
किन्तु उन्होंने उत्तर दिया-शाप (वचन) को बदलने की मुझमें ताकत नहीं है। रुखसत लेकर उन्होंने वनवास का भेष धारण कर लिया तथा अपने साथ लक्ष्मण को लेकर जंगल की ओर चल पडे। (भाई के प्रति ऐसा अनाचार होते देख) लक्ष्मण गरजने लगा जिससे आकाश कांप गया। रामचन्द्रजी ने समझाया: शांत हो,मैं तुम्हें अध्यात्म का उपदेश देता हूँ, उसे कानों से (ध्यान से) सुन। उसे सुनकर माघ मास की भांति(जमे हुए) तुम्हारे चैतन्य का समस्त कालुष्य श्रावण की धूप द्वारा स्वच्छ हो जाएगा तथा पुण्य उत्पन्न होकर तेरे पापों का नाश हो जाएगा। तू मन में विचार कर तथा इस सब को ईश्वर-इच्छा जान तथा चंचल न बन। यदि तू राज्य ही भोगना चाहता है तो (मेरे साथ) बाहर चल।
लंका के मायावी वैभव को देखकर तू अपने-आप संतृप्त हो जायेगा। (हम यहाँ से न निकले तो) कल उस (रावण) का नाश कौन करेगा तथा वह किसके द्वारा मारा जाएगा? वह अकेला नहीं, उसके साथ और भी कितने मारे जायेंगे। कहते हैं यमराज भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता है, किन्तु (इस दुनिया में) मरना सबको है, कोई बच नहीं सकता। जिसने मृत्यु को याद रखा उसका जी-जान संवर गया। जिसने द्वैत-भावना को त्याग दिया वह (दुबारा) जन्म न लेगा (मुक्त हो जाएगा) और इस द्वैत-भावना का परित्याग नारायण (भगवान्) की अनुकंपा द्वारा ही संभव है।
द्वैत-भावना को त्यागने से (अभिप्राय है) माया को जला डालना तथा शत्रु को भी मित्र समझना व अहंकार को छोड देना। दूसरा, ईष्वर को माता-पिता समझना। तीसरा, गुरू और पिता के शब्दों (आदेशों) को अंगीकार करना। चैथा, सत्य के मार्ग को ढूँढना और पांचवा, अपने आप को भूलकर भगवान् में खो जाना।