हिंदी का कथित प्रगतिशील साहित्य वैसे तो हमेशा ही गलत कारणों से चर्चा में रहता है क्योंकि जनता के लिए लिखने वाले और लोक के लिए समर्पित लेखकों को वह लेखक आगे नहीं आने देते जिनके या तो अपने गुट होते हैं या अपने एजेंडे! जो एजेंडा चलाने वाले कवि और लेखक हैं, वह केवल भाजपा और हिन्दू विरोध के चलते महान क्रांतिकारी घोषित हो जाते हैं।
ऐसी कई कविताएँ लिखी जाती हैं, जिनमें हिन्दुओं के घावों पर नमक छिडका जाता है और फिर महानता के कसीदे कसे जाते हैं। दरअसल वह अपनी पहचान से नफरत करने वाली कविताएँ होती हैं। ऐसी ही एक कविता कुछ दिनों पहले स्वरा भास्कर ने पढ़ी थी कहीं, मुसलमान, जिसे देवी प्रसाद मिश्र ने लिखा था। और बहुत ही चतुराई से आक्रमणकारी और आततायी मुसलमानों को पीड़ित दिखा दिया। और लिखा कि
“वह घोड़ों के साथ सोते थे और
चट्टानों पर वीर्य बिखेर देते थे,
वह निर्माण के लिए बेचैन थे”
देवी प्रसाद मिश्रा यह तो सही लिखते हैं कि वह वीर्य बिखेर देते थे, मगर वह चट्टानों पर वीर्य नहीं बिखेरते थे, वह वीर्य बिखेरते थे हिन्दुओं की उन मासूम लड़कियों पर जिन्हें वह जिंदा पकड़ लेते थे। वैसे तो हिन्दू लडकियां उन लड़कियों की तरह खुद को आग के हवाले करना पसंद करती थीं, जैसे आज यजीदी लडकियां जलाने लगी थीं अपना चेहरा!
सच कहा गया है कविता में कि वह चट्टानों पर वीर्य बिखेर देते थे!
फिर वह लिखते हैं कि
वह न होते तो लखनऊ न होता,
आधा इलाहाबाद न होता!
मेहराबें न होतीं, गुम्बद न होता,
आदाब न होता!
यह बहुत रोचक है कि वह न होते तो लखनऊ न होता! सच में लखनऊ न होता! वह लखनपुर होता, राम के आज्ञाकारी भाई लक्ष्मण का बसाया हुआ। और जो पहले आप, पहले आप की तहजीब का जो दम भरा जाता है वह केवल इसीलिए क्योंकि लक्ष्मण ने उस नगर की नींव डाली थी और वह अपने भैया एवं अपने बड़ों से पीछे चलते थे और उन्हें आगे करने का मौक़ा देते थे इसलिए पहले आप, बहुत पहले से लखनपुर की संस्कृति में बसा हुआ था। लखनऊ का इतिहास लिखने वाले इतिहासकार योगेश प्रवीण ने अपनी पुस्तक में यह स्पष्ट लिखा है कि लखनऊ जनपद में बहुत प्राचीन काल से पुरोहितों के संकल्प पाठ में लखनऊ कभी नहीं पढ़ा जाता है, लक्ष्मणपुरी ही बोला जाता है। क्या यही कारण था कि जब योगेश जी गये, तभी कई कथित प्रगतिशील लोगों को पता चला कि ऐसे एक इतिहासकार भी थे?
और प्रगतिशील और कुंठित और अपनी जड़ों से घृणा करने वाले कवियों को देवी प्रसाद मिश्र पता है, मगर लखनपुर का इतिहास लिखने वाले योगेश प्रवीण नहीं।
देवी प्रसाद मिश्र भारतीय मुसलमानों की पहचान इमरान खान के साथ जोड़ देते हैं और लिखते हैं कि
इमरान खान को देखकर वह खुश होते थे,
वे खुश होते थे और खुश होकर डरते थे।
और मुसलमानों की तारीफ करते हुए, उनका कथित दर्द बताते हुए उन्होंने खूब लिखा है, पर यह नहीं लिखा कि अगर उनका ही शासन 1857 तक रहा, जैसा वह खुद कहते हैं कि अगर मुसलमान न होते तो 1857 न होता, तो मुसलमान गरीब कैसे रहे?
वैसे देवी प्रसाद मिश्र को और अध्ययन की जरूरत होगी क्योंकि 1857 में यह सही है कि बहादुर शाह जफ़र को नेता चुना गया था, मगर उन्हें हिन्दू शासकों ने ही अपना नेता चुना था, बिना मजहब की परवाह किए बगैर! हालांकि कुछ इतिहासकारों ने कहा है कि उन्हें जबरन ही इसमें घसीट लिया गया था।
खैर, फिर वह आकर धमकी जैसी दे देते हैं कि
सावधान!
सिन्धु के दक्षिण में,
सैकड़ों सालों की नागरिकता के बाद,
मिट्टी के ढेले नहीं थे वे,
*****************
वह सभ्यता का अनिवार्य नियम थे,
मुस्लमान थे, अफवाह नहीं थे!
मुस्लिमों से प्रेम और हिन्दुओं के प्रति अतीव घृणा की इस कविता के बाद स्पष्ट है कि उन्हें महान कवि ठहरा ही दिया गया है, मगर ताजा मामला उनकी स्मार्ट सिटी कविता में एक शब्द पर है। जिस पर बवाल मचा हुआ है।
उनकी एक कविता है स्मार्ट सिटी, जिसमें अंतिम पंक्तियाँ हैं:
एक ऐसा शहर तो चाहिए ही कि जहाँ मर्दाना कमज़ोरी के इलाज की एक भी दुकान न हो कि
जिसकी किसी भी सड़क पर खिलौने मिलें ही
स्त्रियों के सेक्स टॉय की कम से कम एक दुकान तो
होनी ही चाहिए स्मार्ट सिटी में।
यह कविता पूरी की पूरी ही कुंठा से भरी हुई है, परन्तु अंतिम पंक्ति में कवि केवल सेक्स टॉय की कल्पना पर ही क्यों टिक गया है? यह पंक्ति आम पाठक को कुंठा से भरी हुई लग सकती है, मगर जो कवि मुसलमानों के वीर्य को चट्टानों पर बिखेर कर सृजन करा सकता है, वह औरतों के लिए सेक्स टॉय की कल्पना कर सकते हैं।
हालांकि एक कवयित्री के अनुसार अंतिम पंक्तियाँ पितृ सत्ता पर प्रहार हैं, और कुछ लेखकों का कहना है कि स्त्रियों को भी वह दुर्लभ काम-सुख मिले, जो पुरुष कभी भी ले सकते हैं।
दरअसल यह जो छद्म प्रगतिशीलता है, वह और कुछ नहीं है बस हमारी स्त्रियों को विकृत काम की ऐसी दुनिया में धकेलना है, जिसमें वहीं यौन कुंठा है, जिसे ऐसे लोग जीते हैं। प्रगतिशीलता की परिभाषा कुछ लोगों ने मात्र मुस्लिम आतताइयों से प्रेम, हिन्दुओं से घृणा और हिन्दू स्त्रियों को विकृत काम की तरफ धकेलना कर दिया है, और सबसे दुर्भाग्य की बात है कि ऐसे जड़ रहित, लोक से रहित कथित कवियों को उन लोगों द्वारा महान बताकर हमारे बच्चों के सामने प्रस्तुत किया जाता है, जिनके हाथ में बौद्धिक सत्ता है।
और हमारे बच्चे जिनके लिए नायक और नायिकाएं होनी चाहिए मीराबाई चानू, पीटी उषा, मिल्खा सिंह, नीरज चोपड़ा आदि, वह इन सेक्स टॉय की भूमिका निभाने वाली अभिनेत्रियों को आदर्श मान बैठते हैं, जिन अभिनेत्रियों के पास अपनी स्वयं की बुद्धि भी नहीं होती है, और जिनके परिवार वाले इस्लाम या पाकिस्तान के खुले आम समर्थक होते हैं। यह छद्म प्रगतिशीलता हमारी बच्चियों और आने वाली पीढ़ी को अपने लोक और धर्म से काटकर मुसलमान बनाने की सॉफ्ट प्रक्रिया का नाम है!
क्या आप को यह लेख उपयोगी लगा? हम एक गैर-लाभ (non-profit) संस्था हैं। एक दान करें और हमारी पत्रकारिता के लिए अपना योगदान दें।
हिन्दुपोस्ट अब Telegram पर भी उपलब्ध है. हिन्दू समाज से सम्बंधित श्रेष्ठतम लेखों और समाचार समावेशन के लिए Telegram पर हिन्दुपोस्ट से जुड़ें .