जालंधर में बहौदिनपुर गाँव में रहने वाले 92 वर्षीय सरवन सिंह और उनके भतीजे मोहन सिंह उर्फ़ अफजल खालिक की कहानी और तस्वीर यह बताने के लिए पर्याप्त है कि आखिर भारत और हिन्दू क्या हैं?
वह विभाजन का दौर था, और आज जब भारत वर्ष आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, उस समय भारत में विभाजन का दंश झेल चुके लोगों के दिल उसी दर्द और पीड़ा से भरे हैं, जो उन्होंने इतने वर्ष पहले झेली थी। वह पीड़ा क्या थी और जो कुछ लोग सीमा के उस पार ही रह गए थे, उनकी स्थिति क्या है और उनकी स्थिति के बहाने यह देखा जाए कि जो सीमा पार करके वहां नहीं गए, उनकी स्थिति भारत में कैसी है।
कहानी है जालंधर के 92 वर्षीय सरवन सिंह की, परन्तु यह कहानी उन मूल्यों और सहजीवन के सिद्धांत की है, जो भारत ने अपना रखे है और जो पड़ोसी मुल्क से गायब हैं।
क्या है कहानी?
75 वर्ष बाद जालंधर के 92 वर्षीय सरवन सिंह अपने 75 वर्षीय भतीजे से मिलकर भावुक हो गए। वह 75 वर्ष पहले विभाजन की विभीषिका के पीड़ित थे। उनका 6 वर्ष का भतीजा 1947 में विभाजन के फलस्वरूप हुए दंगों में परिवार से अलग हो गया था और उनके परिवार के 22 लोग उन दंगों में मारे गए थे।
परन्तु एक सबसे बड़ा अंतर है। यही अंतर है जो भारत को विशेष बनाता है। मोहन सिंह अब अफजल खालिक हो गया है। विभाजन के दौरान जो साम्प्रदायिक दंगे हुए थे उनमें मुस्लिम दंगाइयों से बचने के लिए महिलाओं ने कुँए में कूदकर अपनी जान दे दी थी, जिससे उनका शील बच सके और इस प्रकार 22 लोगों की हत्या उस दिन हुई थी। ऐसे में पता नहीं कैसे मोहन अपनी जान बचाने में सफल हुआ था।
और उसका पालन पोषण एक मुस्लिम परिवार ने किया, जिसने उसे इस्लाम में मतांतरित किया।
मोहन अफजल खालिक हो गया, और उसकी पहचान पूरी तरह से बदल गयी। ऐसे न जाने कितने मोहन न जाने कितने नामों से रह रहे होंगे या फिर न जाने कितने लोग तो परिवार से बिछड़ कर अंतिम सांस भी ले चुके होंगे! फिर भी 75 वर्षों के बाद हुई इस भेंट ने न जाने कितने दर्दों को ताजा कर दिया होगा, परिवार के उन लोगों की यादें भी ताजा हो गयी होंगी जिन्होनें उस कुँए में कूद कर प्राण त्याग दिए थे।
भारत में जो मुस्लिम थे, वह मुस्लिम ही रहे, बल्कि उनकी जनसँख्या में वृद्धि ही हो रही है, और ऐसा सहज मामला नहीं सुनने में आता कि दंगे में छूटे किसी मुस्लिम या सिख बच्चे को हिन्दू बनाया गया हो, या पूरी तरह से पहचान बदल दी गयी हो।
परन्तु पाकिस्तान में मोहन का पूरी तरह से परिवर्तन होकर अफजल हो जाता है, और विडंबना यह है कि यही पाकिस्तान भारत को कई मामलों पर उपदेश देता है जिसमें अल्पसंख्यक कल्याण भी एक मामला है।
वह बार-बार भारत में रह रहे मुस्लिमों का पैरोकार बनते हुए यह कहता है कि भारत में अल्पसंख्यकों अर्थात मुस्लिमों के साथ अत्याचार हो रहे हैं, परन्तु वह यह नहीं बताने का प्रयास कर पाता है कि वहां पर क्या हो रहा है और कैसे एक मोहन को अफजल बनने पर बाध्य कर देता है।
अमेरिकी व्लॉगर के बलात्कार के बाद से भी आलोचना के केंद्र में हैं पाकिस्तान
पाकिस्तान के प्रति पश्चिम का बहुत ही सॉफ्ट दृष्टिकोण रहा है और यह बात वहां पर जाकर वीडियो बनाने वाले विदेशी व्लॉगर्स की पोस्ट आदि से पता चलता रहता है। परन्तु हाल ही में जबसे एक अमेरिकी व्लॉगर के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना सामने आई है, तब से यह प्रश्न पश्चिम में ही उठने लगे हैं कि क्या पाकिस्तान की छवि को जानबूझकर सकारात्मक दिखाया जाता है?
एक यूएस थिंक टैंक विल्सन सेंटर में दक्षिण एशिया के लिए वरिष्ठ एसोसिएट मिशेल कुगेलमन ने वाइस वर्ल्ड न्यूज़ को बताया कि “विदेशी व्लॉगर अक्सर एक सकारात्मक छवि पाकिस्तान की बनाते हैं कि पाकिस्तान में यात्रा करना कितना सरल है, जबकि सच्चाई कुछ और ही होती है। यह उन लोगों के लिए खतरा पैदा करता है, जो पाकिस्तान से अपरिचित होते हैं और इसी छलावे में पाकिस्तान जाते हैं!”
वाइस के अनुसार कई विदेशी व्लॉगर हैं, जिन्हें पाकिस्तान की इकोसिस्टम की ओर से काफी फायदा पहुंचाया जाता है और वह अक्सर पाकिस्तान की प्रोपोगैंडा मशीन का हिस्सा बन जाते हैं। पाकिस्तान में टूर्स चलाने वाली एलेक्स रेनोल्ड्स का कहना है कि कुछ सोलो ट्रेवलर्स अपने followers को यह कहते हुए भ्रमित करते हैं कि वह अकेले यात्रा कर रहे हैं, वह यह नहीं बताते कि या तो वह टीम के साथ हैं या फिर उन्हें पाकिस्तान की सरकार ने ही स्पोंसर किया है और इससे राजनीतिक दलों को भी फायदा होता है!”
यह दो मामले यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि भारत के पड़ोसी देश में किस प्रकार का खेल रचा जाता है, एक ऐसी भेंट जो शर्म का विषय होनी चाहिए थी, जिसमे यह प्रश्न खुलकर पूछा जाना चाहिए था कि आखिर मोहन बदलकर अफजल क्यों हो गया और आखिर पाकिस्तान में जहां पर एक प्रान्त में रेप इमरजेंसी लगाई हुई है, वहां पर एक विदेशी महिला का बलात्कार भी कैसे सहजता की बात हो गयी?
परन्तु दुर्भाग्य की बात यही है कि पश्चिमी मीडिया और पश्चिमी अकादमिक जगत भी यह प्रश्न पाकिस्तान से नहीं पूछता है!