एक बार फिर से छद्म विवाद अपने चरम पर है और दूसरे शाहीन बाग़ की लगभग तैयारी है। और लगभग हर राजनीतिक दल एक बार फिर से भाजपा को घेरने के बहाने मजहबी तुष्टिकरण के उस मुहाने पर आकर खड़ा हो गया है, जहाँ पर वह पूरे विश्व में हास्य का विषय बनता जा रहा है, जहाँ पूरे विश्व में मुस्लिम लड़कियां अपनी शिक्षा के लिए लड़ाई लड़ रही हैं तो वहीं भारत में वह वर्ग जो हिन्दू लड़कियों को उनकी आस्था का पालन करने पर कोसते हैं, वही अब इन लड़कियों के पक्ष में खड़े हैं।

खैर, यह इनकी दोगलीपंती है, जो समय समय पर दिखती रहती है, परन्तु आइये देखते हैं कि कल जिस विषय पर शोर मचना चाहिए था, उस विषय में मीडिया और कथित संवेदनशील लेखक मौन बैठे हैं, उन्हें उन लोगों के प्राणों के जाने की चिंता नहीं है, जो इस्लामी कट्टरपंथ का शिकार हो रहे हैं।
वामपंथियों द्वारा यह झूठा विमर्श बनाया गया कि बहुसंख्यक कट्टरता अधिक प्रभावित करती है। परन्तु बहुसंख्यक की परिभाषा भी इन्हें ज्ञात नहीं है, कथित रूप से अल्पसंख्यक समुदाय ने पहले ही बहुसंख्यक हिन्दुओं को मारकर, और अंग्रेजों को डरा धमका कर इस पवित्र भूमि का विभाजन कर दिया है परन्तु फिर भी वह अल्पसंख्यक है। अल्पसंख्यक की इनकी परिभाषा पर ध्यान दिया जाए तो अंग्रेज भी अल्पसंख्यक ही थे, परन्तु फिर भी उन्होंने भारत का शोषण क्या, फिर अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक क्या है?
यहाँ तक कि संविधान में भी अल्पसंख्यक की कोई भी परिभाषा नहीं दी गयी है, संयुक्त राष्ट्र एक परिभाषा तो तय करता है, परन्तु उसके दायरे में मुस्लिम अल्पसंख्यक की परिभाषा से बाहर हैं।, उस परिभाषा के अनुसार जो समुदाय इतना दबा कुचला हो कि उसका राजनीतिक प्रभाव शून्य हो उसे ही अल्पसंख्यक कहा जाएगा
संयुक्त राष्ट्र ने अल्पसंख्यकों की परिभाषा दी है कि ऐसा समुदाय जिसका सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक रूप से कोई प्रभाव न हो और जिसकी आबादी नगण्य हो, उसे अल्पसंख्यक कहा जाएगा।
क्या भारत में मुस्लिमों की स्थिति ऐसी है? क्या भारत में उनका राजनीतिक प्रभाव नहीं है? बल्कि उन्हीं का है! आज से कुछ वर्ष पहले तक इफ्तार की दावतें राजनीतिक विमर्श के साथ साथ शक्ति प्रदर्शन का भी हिस्सा हुआ करती थीं। अंग्रेजों के जाने के बाद से ही अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का जो नंगा नाच भारत के बहुसंख्यक हिन्दुओं ने देखा है, वह दुनिया के किसी भी देश के बहुसंख्यक ने नहीं देखा होगा।
आज स्थिति यह है कि कर्नाटक में कुछ लड़कियों के एकदम से उभरे हिजाब विवाद के दायरे में इसी कथित अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा की जा रही हत्याएं दबाई जा रही हैं। यह कहाँ से अल्पसंख्यक है? जब वह झारखंड में घेरकर एक सत्रह साल के बच्चे की हत्या केवल इसलिए कर देते हैं क्योंकि वह अपने धर्म की आस्था का पर्व मनाने के लिए घर से निकला था।
झारखंड के हजारीबाग में एक सत्रह साल के बच्चे रूपेश पांडे की हत्या असलम और उसके जिहादी गैंग ने कर दी। उसी समय जब मीडिया के कट्टर इस्लामी कुप्रगातिशील पत्रकार हिजाब के पक्ष में दलीलें पेश कर रहे थे, उसी समय जब तालिबान इन कथित “शेरनियों” के पक्ष में दलीलें पेश कर रहा था और प्रगतिशील फेमिनिस्ट तालिबानी समर्थन पाकर इठला रहे थे, उसी समय झारखंड में एक माँ अपने बेटे के लिए न्याय की मांग कर रही थी, जिसे उस तालिबानी कट्टरता ने मार डाला था, जो तालिबानी सोच इन फेमिनिस्ट के समर्थन में आ गयी है!
माँ सरस्वती के विसर्जन में जाना क्या उस अल्पसंख्यक समुदाय को रास नहीं आया, जो मात्र हिजाब पहनाने के लिए पागल हुआ जा रहा है? उस समुदाय की शबाना आजमी आदि के लिए इतना समय है कि वह हिजाब को कथित अल्पसंख्यकों पर अत्याचार बता सकें, परन्तु एक सत्रह साल के बच्चे को पीट पीट कर मारडाला जाता है, यह नहीं दिखाई देता।
उससे पहले कृष्ण भरवाड को गुजरात में जिस प्रकार मारा गया और इस कथित अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा बहुसंख्यक समाज पर किए जा रहे अत्याचारों पर बहस शुरू हुई, उसे मीडिया ने और इस कथित अल्पसंख्यक के ठेकेदारों ने दूसरी ओर मोड़ दिया।
इस लिंचिंग की संसद में चर्चा हुई, और झारखण्ड में हो रही मोबलिंचिंग की घटनाओं पर भी बात हुई,
परन्तु ऐसा क्या है, जो हिजाब को एक ऐसे युवक की हत्या पर प्राथमिकता देता है, जो अपने मातापिता का एकमात्र बेटा था, उसके बड़े भाई की तीन साल पहले सर्पदंश से मृत्यु हो गयी थी, और परिवार बहुत निर्धन है, उसे मात्र न्याय चाहिए। परन्तु उसे न्याय कौन देगा?
क्या उसे वह कुबुद्धिजीवी न्याय देंगे, जिनके लिए हिजाब पहनना अधिक जरूरी है और जिनके लिए तालिबान का समर्थन अधिक महत्वपूर्ण है, क्या उसे वह राजनेता न्याय देंगे जो उस कथित अल्पसंख्यक के पक्ष में खड़े हैं, जो अपनी किताब के अनुसार बहुसंख्यक को समाप्त करना अपना मजहबी अधिकार समझता है?
प्रश्न यही है कि क्या हिजाब का अधिकार एक सत्रह साल की निर्जीव देह से भी भारी है? क्या एक सत्रह साल के हिन्दू लड़के की माँ या परिवार के कोई अधिकार नहीं है? क्या उनका यह अधिकार नही है कि वह यह अपेक्षा भी कर सकें कि मीडिया में उनके बेटे की देह से निकलता हुआ खून भी समाचार बनेगा?
क्या वह रूपेश पाण्डेय होने के कारण त्याज्य है? प्रश्न उठता है! फिर भी यह प्रश्न इसलिए बेकार है क्योंकि यदि किसी अन्य जाति का पीड़ित भी कथित अल्पसंख्यक के हाथों हिंसा का शिकार होता है तो भी मीडिया और यह लोग इतने ही शांत रहते हैं!
मुरादाबाद में एक हिन्दू ट्रक चालक की मुस्लिम प्रेमिका के भाइयों ने हत्या कर दी थी
मुरादाबाद में एक मामला सामने आया है, जिसमें एक ट्रक चालक की हत्या केवल इस बात पर कर दी गयी क्योंकि मोनू ने नसीम और वसीम की बहन से प्यार करने की हिमाकत कर दी थी और इसकी तो एक ही सजा है और वह है मौत! नसीम और वसीम ने मोनू को मारडाला। परन्तु चूंकि इसमें मुस्लिम लड़की और हिन्दू लड़का शामिल है, इसलिए यह मामला कथित बुद्धिजीवियों की रडार से बाहर है!
इस विषय में आरोपियों को गिरफ्तार भी किया जा चुका है, परन्तु मीडिया और कथित बुद्धिजीवी वर्ग बात ही नहीं करना चाहता है:
*पार्टनर आपकी politics क्या है? अब यह प्रश्न बार बार उठेगा क्योंकि अब उनका कथित अल्पसंख्यक तुष्टिकरण सीमा पार करते हुए कट्टर इस्लामी और तालिबानी हो गया है! वह जाकर तालिबानियों के साथ खड़ी हो गयी हैं और स्पष्ट रूप से हिन्दुओं की हत्या पर जश्न मना रही हैं, उनकी इस घृणा का विरोध करना अब अनिवार्य हो गया है!