कश्मीर फाइल्स ज़ी5 पर रिलीज़ हो गयी है। और अब यह अवसर है कि इस फिल्म को उन बच्चों को दिखाया जाए, जो नैरेटिव वार को नहीं समझते हैं। इस फिल्म की सबसे बड़ी सफलता यही है कि इसने नैरेटिव जैसे शब्द को जन-मानस की चेतना तक पहुंचाया है। लोग अब बात करने लगे हैं, प्रश्न करने लगे हैं कि नैरेटिव आखिर क्या है? वह नैरेटिव समझने का प्रयास करने लगे हैं।
द कश्मीर फाइल्स को देखने से यह ज्ञात होता है कि हो सकता है कि टेक्निकली यह फिल्म उतनी मजबूत न हो, परन्तु भावनात्मक रूप से यह फिल्म हिन्दुओं के लिए अत्यंत आवश्यक थी। यह फिल्म हिन्दुओं के लिए इसलिए आवश्यक थी जिससे वह उस हिंसा को अपनी आँखों से देख सकें जो उनकी चेतना में समाचारों के माध्यम से तो थी, परन्तु उन्होंने कभी उस हिंसा में झांकने का प्रयास नहीं किया था।
जो पीढ़ी इस समय अपनी साठ और सत्तर की उम्र में है, उनके सामने यह समाचार आते होंगे, तो ऐसे में उन्होंने अपनी आने वाली पीढ़ी को क्या बताया? क्या उन्होंने कभी यह बताया कि हिन्दुओं के साथ कश्मीर में यह हो रहा है, या फिर हिन्दुओं के साथ पंजाब में यह हो रहा है? नहीं! उन्होंने नहीं बताया! उनके सामने नैरेटिव जो रखे गए वह ऐसे विकृत और टूटे फूटे थे कि किसी ने भी उस नैरेटिव के आगे जाकर सत्य जानने की इच्छा भी प्रकट नहीं की!
जब कश्मीर से जीनोसाइड के शिकार हिन्दू शेष भारत में आए, तो उनकी पीड़ा के अंश धीरे धीरे आ रहे थे, फिर भी हिन्दुओं के एक बड़े हिस्से तक उनकी पीड़ा नहीं पहुँची। हाँ, जब उनके बच्चे “कृष्णा” की तरह कॉलेज में पहुंचे तो उनके सामने कश्मीर आया। उनके सामने उनके किसी प्रोफ़ेसर की दृष्टि से वह कश्मीर आया जिसमें हिन्दू भारत सबसे बड़ा खलनायक था। जिसमें हिन्दू भारत की सेना सबसे बड़ी खलनायक थी।

उनके सामने वह नैरेटिव आया जो “फना, मिशन कश्मीर, फिजा” आदि फिल्मों ने बनाया था। कहाँ थे इनमें कश्मीरी पंडित? कहाँ थी हिन्दू पीड़ा? जो उनके सामने कहानियाँ आईं वह सभी हिन्दू साम्प्रदायिकता की आईं, इनमें किसी अग्निशेखर, किसी दिलीपकौल, किसी गिरिजाटिक्कू या फिर किसी भी शीलाकौल टिक्कू, पंडित टीका लाल टपलू की किसी भी पीड़ा का और संघर्ष का उल्लेख नहीं था। साहित्य में हिन्दू चरमपंथ और ब्राह्मण विरोध इतना था कि कश्मीरी पंडितों की पीड़ा उस के नीचे कहाँ जाकर दबी, पता ही नहीं चला।

एक लंबा दौर उस नैरेटिव का चला, जो वाम और इस्लाम चलाना चाहते थे। उन्होंने हिन्दुओं को ही हिन्दुओं के विरुद्ध खड़ा कर दिया, यहाँ तक कि जैसा फिल्म में दिखाया गया है कि उन्होंने कश्मीरी पंडितों के जीनोसाइड के पीड़ित कृष्णा को ही उसके दर्द के सामने खड़ा कर दिया। नकारने का नैरेटिव बनाया गया। हिन्दुओं की पीड़ा जैसे कुछ है ही नहीं, यह स्थापित कर दिया गया।
“अल्पसंख्यक का अर्थ मुस्लिम है” यही आवाज रह गयी, ऐसे में जब फिल्म में पुष्कर नाथ कहते हैं कि “माइनोरिटी वह नहीं, माइनोरिटी हम हैं!” तब एक छन्न से नैरेटिव टूटता है। अभी तक जो साहित्य और अकेडमिक्स ने हमारे मस्तिष्क में विष भरा था कि मुस्लिम ही अल्पसंख्यक हैं, उन अकेड्मिक्स का यह झूठ इस फिल्म में अनुपम खेर का एक वाक्य तोडता है कि “वहां पर माइनोरिटी हम हैं!”
और फिर दर्द समझ में आता है, कि किसी इस्लामिक प्रदेश में माइनोरिटी का अर्थ क्या होता है? जब उन्हें राशन भी काफ़िर होने के कारण नहीं मिलता है, और जब बीस से पच्चीस कश्मीरी पंडितों को मारने वाला आतंकवादी सरकार द्वारा निमंत्रित किया जाता है, तो इसे प्रशासनिक जिहाद कहा जाता है। और फिर हमारी समझ में आता है कि एक विष जब प्रशासन में घुलता है, तो वह हिन्दुओं के साथ क्या क्या कर सकता है?
यह फिल्म दरअसल जैसे जैसे आगे बढ़ती है, तो वह मात्र कश्मीर और उस काल खंड तक ही सीमित नहीं रहती है, बल्कि वह उससे भी कही पहले मुगलकाल और मुस्लिमों के आक्रमण के समय में पहुँचती है। और फिर वह समझाती है कि जब शासन और प्रशासन पूरा ही आपका हो, तो आपके साथ आखिर क्या क्या हो सकता है और आप कितने अकेले हैं? आपका समुदाय कितना अकेला है?
शिव को मस्जिद के लिए सहमति जताने पर विवश करना” इस दृश्य की चर्चा सबसे कम हुई है। यह वही सहमति है जिसे लिब्रल्स कोट करते रहते हैं कि “कश्मीरी हिन्दू तो बहुत प्यार से रहते हैं इधर!” शिव का तेजी से अपनी धार्मिक पह्चान छिपाना, यह अपने आप में व्यथा से भरने वाला दृश्य था। यही बलात सहमति है, जिसकी दुहाई लिब्रल्स बार-बार देते हैं।
जब राधिका मेनन यह कहती है कि हम कश्मीर को ऐसे नहीं छोड़ सकते। हम नैरेटिव वार में हैं। उसकी कुटिल मुस्कान में आपको समझ आता है कि वास्तव में नैरेटिव क्या होता है और हिन्दुओं के पास दरअसल कोई नैरेटिव है ही नहीं! नैरेटिव की सबसे बड़ी सफलता यही है कि ह्युमेनिज्म के नाम पर आतंकियों के पक्ष में जाकर खड़े हो जाना और पीड़ितों को ही उनकी पीड़ा के लिए दोषी बना देना!
एक और दृश्य है जो नैरेटिव तोड़ता है! परन्तु वह नैरेटिव कुछ उत्साही हिन्दुओं का है, जिसमें वह यह कहते हैं कि कश्मीरी पंडित लड़े क्यों नहीं? कायरों की तरह वापस क्यों आ गए? जब कृष्णा अपने दादाजी अर्थात पुष्कर नाथ से कहता है कि “क्या मैं भी कायर बन जाऊं?” तो वह उस पीड़ा को ताजा कर देता है जो एक पूरी की पूरी पीढ़ी ने अपने किसी न किसी प्रियजन की निर्जीव देह देखकर भोगी थी। कृष्णा को जड़ों से काट दिया है, पहले स्थितियों ने और फिर उसकी पढ़ाई ने!
वह पढ़ाई जिससे यह आस रहती है कि वह सत्य का साथ देगी, वह पढ़ाई झूठ की गोद में बैठकर ऐसा नैरेटिव बनाती है कि जिसमें से लाखों कश्मीरी पंडितों की पीड़ा के साथ साथ कश्मीर की हिन्दू पहचान विलुप्त हो जाती है और रह जाता है तो मात्र इस्लामीकरण! नैरेटिव के इस युद्ध में यह फिल्म एक आरम्भ है, यही कारण है कि इस फिल्म का अब तक विरोध हो रहा है!
नैरेटिव की शक्ति देखनी हो तो देखिये कि गिरिजा टिक्कू को आरे से काटा जाना एक अफवाह बन जाता है और स्कूल में यूनिफॉर्म का पालन करने के लिए हिजाब का विरोध एक ऐसा मुद्दा बन जाता है, जिसके कारण तमाम तरह की आजादी बाधित होती है, जिसमें तमाम तरह के अधिकार छीन लिए जाते हैं!
Buddha in a traffic jam भी बहुत अच्छी थी इन मायनों में परंतु जनता तक नहीं पहुंच सकी थी परंतु इस बार सोशल मीडिया ने एक आंदोलन का रूप दे ये फ़िल्म जनता तक पहुंचा ही दी।
लेख वाकई बहुत अच्छा है सदैव की भाँति 👌👌👌