भारत में यह कहा जाता है कि काले कोट में कोई न फंसे और एक नहीं न जाने कितने ऐसे मुक़दमे हैं, जिनमें व्यक्ति तो मर जाता है, परन्तु मुकदमा चलता रहता है। वह न्याय की आस लिए न जाने कितनी चौखटों पर जाता है, परन्तु उसे बहुत बार निराशा और हताशा ही हाथ लगती है। पिछले दिनों माननीय राष्ट्रपति महोदया द्रौपदी मुर्मू जी का एक वीडियो बहुत वायरल हुआ था। उस भाषण की सराहना आम लोगों ने की थी एवं सरकार का विरोध करने वाले तमाम वामपंथी लेखकों ने की थी।
क्या था उस भाषण में? उस भाषण में उन्होंने न्याय व्यवस्था के लिए तरसते उस व्यक्ति की बात की थी जो आख़िरी छोर पर बैठा है और जिसे कानूनी दांवपेच के बारे में कुछ पता ही नहीं है। जिसे यह पता ही नहीं है कि वह आखिर अपराध में बंद है? उस बेचारे के पास इतना पैसा है ही नहीं कि वह वकील तक अपने लिए नियुक्त कर सके! इस वीडियो में उनके शब्दों के माध्यम से एक ऐसी व्यथा को अनुभव किया जा सकता है, जो एक आम आदमी का दर्द है
परन्तु क्या कारण है कि महामहिम राष्ट्रपति तक को न्याय की अनुनय विनय माननीय न्यायाधीशों से करनी पड़ी? यह एक ऐसा प्रश्न है, जिसका उत्तर अब हर कोई चाहता है? अब लोग जानना चाहते हैं कि आखिर क्यों न्यायिक प्रक्रिया इतनी लम्बी होती है कि व्यक्ति मर जाता है, मुकदमें पीढियों तक चलते रहते हैं।
आखिर क्यों ऐसा हो रहा है कि महामहिम राष्ट्रपति हों या फिर आम जनता या फिर राज्यसभा के सभापति, सभी एक स्वर में न्यायपालिका को लेकर असंतोष आदि को व्यक्त कर रहे हैं? अभी जब संसद का शीतकालीन सत्र चालू हुआ तो राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड ने कहा कि वर्ष 2015 में उच्चतम न्यायालय से राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम का निरस्त होना संसदीय सम्प्रभुता के साथ एक गंभीर समझौता और जनादेश का अपमान था। श्री धनखड ने कहा कि कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका का अपने दायरे में ही रह कर कार्य करना लोकतंत्र के हित में है।
लोग क्या प्रश्न उठा रहे हैं?
इस समय लोग आखिर क्या और क्यों न्यायपालिका को लेकर इतनी बातें कर रहे हैं? दरअसल इस समय संघर्ष राष्ट्रीय नियुक्ति आयोग एवं कोलेजियम सिस्टम को लेकर है। परन्तु यह है क्या? और क्यों है विवाद?
पहले जानते हैं कि कोलेजियम व्यवस्था क्या है? क्यों कहा जा रहा है कि जजों की नियुक्ति जजों के द्वारा! कोलेजियम सिस्टम वह व्यवस्था है जिसके अंतर्गत उच्च न्यायालयों एवं उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्तियां एवं स्थानान्तरण किए जाते हैं। इसमें भारत के भारत के मुख्य न्यायाधीश समेत उच्चतम न्यायालय के कुल पांच वरिष्ठ जज शामिल होते हैं। इसी तरह उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति की अनुशंसा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एवं दो वरिष्ठ जज करते हैं।
इसी व्यवस्था को लेकर इस समय विवाद चल रहा है। यह विवाद हाल ही में और तेज हो गया है, जिसमें यह कहा जा रहा है कि इस प्रणाली में पारदर्शिता का अभाव है। केन्द्रीय क़ानून मंत्री ने संसद में भी लंबित मामलों का विषय उठाया था। उन्होंने यह भी कहा था कि कई कारणों से इतने मामले न्यायालयों में लंबित पड़े हैं। उन्होंने अपने उत्तर में जजों की नियुक्ति में देरी के लिए वर्तमान कोलेजियम व्यवस्था को ही बताया था। उन्होंने कहा था कि
“इसमें सरकार के अधिकार बहुत सीमित हैं। उन्होंने कहा, ‘इस वक्त को वेंकैसी को भरने के लिए सरकार के पास बहुत सीमिति अधिकार हैं। जो कलीजियम नाम तय करते भेजती है, उसके अलावा सरकार के पास कोई अधिकार नहीं है कि जजों के अपॉइंट के लिए नया नाम ढूंढ सके। हम बार-बार हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस और सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस को लिखित और मौखिक तौर पर कहते हैं कि जजों की वैकेंसी को भरने के लिए तुरंत नाम भेजा जाए। और नाम भेजते वक्त भी ऐसे जजों के नाम भेजे कि वह क्वॉलिटी हो और हमारे देश की विविधता के हिसाब से सभी का प्रतिनिधित्व करने वाले हों। कहीं न कहीं हमें लगता है कि हमारी सदन की भावना के मुताबिक हम काम नहीं कर पा रहे हैं। यहां से मैं कोर्ट के बारे में बहुत ज्यादा टिप्पणी नहीं करना चाहता हूं कि कभी-कभी लगता है कि कोर्ट को जो अधिकार मिले हैं उसमें सरकार हस्तक्षेप कर रही है। लेकिन संविधान के मुताबिक नियुक्ति की प्रक्रिया पर सरकार का ही अधिकार था और कोर्ट के साथ हम चर्चा करते थे। 1993 के बाद वह बदल गया। लंबित केसों को खत्म करने के लिए हम अपनी तरफ से पूरा समर्थन दे रहे हैं लेकिन नियुक्तियों को लेकर जबतक हम नई व्यवस्था खड़ा नहीं करेंगे तबतक जजों की वैकेंसी और नियुक्ति का सवाल उठता रहेगा। मुझे ये कहते हुए अच्छा नहीं लग रहा है कि देश और सदन की जो भावना रखी गई थी, उसके हिसाब से आज हमारे पास व्यवस्था नहीं बनी है।
यह तो तय है कि सरकार और न्यायपालिका के मध्य यह तनातनी शुभ नहीं है और वह भी तब जब स्वयं न्यायपालिका यह मान रही है कि यह व्यवस्था सर्वश्रेष्ठ नहीं हैं, परन्तु फिर उनका यही कहना है कि वर्तमान स्थिति में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कोलेजियम प्रणाली ही बेहतरीन है। संविधान दिवस के अवसर पर भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने भी कहा था कि “संवैधानिक लोकतंत्र में कोई भी संस्था परिपूर्ण नहीं है, लेकिन हम संविधान के मौजूदा ढांचे के भीतर काम करते हैं। मेरे सहित कॉलेजियम के सभी न्यायाधीश, हम संविधान को लागू करने वाले वफादार सैनिक हैं। जब हम खामियों की बात करते हैं, तो हमारा समाधान है- मौजूदा व्यवस्था के भीतर काम करना।’
जब भारत जैसे देश में जहाँ पर करोड़ों मामले विभिन्न न्यायालयों में लंबित हैं, जहाँ पर माननीय राष्ट्रपति महोदय भी अंतिम व्यक्ति को न्याय देने की बात करती हैं एवं हमारे न्यायाधीश भी यही कहते हैं कि वह संविधान की एवं जनता की रक्षा के लिए हैं और सरकार भी बार बार यही बात कहती है कि अंतिम व्यक्ति तक न्याय पहुंचना चाहिए, तो फिर आपस में यह रस्साकशी क्यों?
क्या यह समझा जाए कि समुद्र मथन की भांति यह व्यवस्थाओं का परस्पर मंथन चल रहा है तथा इस मंथन से जनता के लिए एक बेहतर व्यवस्था निकलकर आएगी। वहीं इन सब रस्साकशी एवं विमर्श तथा बहसों से दूर न जाने कितने लोग अभी आँखों में आस लिए जा रहे होंगे अदालत, न्याय की आस में, निर्णय की आस में!