इन दिनों मान्यवर पर आए विज्ञापन “कन्यामान” पर विवाद हो रहा है और स्पष्ट है कि shethepeople जैसी वेबसाइट्स भी पक्ष में आ गईं। इस विज्ञापन के विरोध में कंगना रनावत ने लिखा है, परन्तु इस विज्ञापन के पक्ष में फेमिनिस्ट वेबसाइट्स हैं। अब चूंकि एक विचार खुलकर सामने आ गया है, तो यह भी अब देखना चाहिए कि क्या फेमिनिस्ट कविताएँ ही या फेमिनिस्ट साहित्य ही तो इन सब प्रपंचों के पीछे नहीं है? जो हमारे बच्चों को कविताएँ पढाई जाती हैं, बचपन से ही, क्या यह जहर उन्हीं के माध्यम से तो उन तक नहीं पहुंचा है? और यह भी कि क्यों अब तक एक ही विचार की कविताओं को पढ़ाया जाता रहा है?
कहीं ऐसा तो नहीं कि समस्या कहीं और ही है और हमारा शोर कहीं और है? यह ध्यान देने योग्य है क्योंकि जिन्होनें यह विज्ञापन बनाया है, वह इसी शिक्षा एवं साहित्य को पढ़कर बड़े हुए हैं, जिनमें हिंदी और हिन्दुओं को सबसे पिछड़ा बताया जाता है और जिसके पिछड़ेपन के कारण ही इस्लाम और सिख सम्प्रदाय आदि हिन्दुओं को मतांतरित कर रहे हैं।
पर वह यह नहीं बताते कि जब हिन्दुओं के पिछड़ेपन के कारण वह दूसरे मत में चले गए फिर अब तक उनमें गरीबी क्यों है? अगर हिन्दुओं की कथित “कुप्रथाओं” के कारण हिन्दू मुसलमान बन गया तो अब तक उनमें चार जायज निकाह और हलाला क्यों है?
और यह साहित्य यह भी नहीं बताता कि अंतत: दहेज़ का उद्गम क्या है? वह जब हिन्दू धर्म पर स्वतंत्र होकर यह बोल पाती हैं, तो वह यह नहीं बता पाती कि इस्लाम में अभी भी “कुरआन से निकाह” की कुप्रथा है, जो पड़ोसी देश पाकिस्तान में अभी भी जारी है, या भारत में ही उस मुस्लिम समुदाय में कुछ वर्गों में मुस्लिम लड़कियों का खतना होता है, जिसमें कहा जाता है कि कोई भेदभाव या जाति नहीं है! मगर आज भी पसमांदा मुस्लिम अपने अधिकारों के लिए अशराफ से संघर्ष कर रहे हैं और बोहरा समुदाय में लड़कियों का खतना हो रहा है!

और आज भी इन दोनों ही कुप्रथाओं के कारण अभी भी कुछ लडकियां अपनी पूरी ज़िन्दगी दर्द में ही बिता देती हैं। पसमांदा मुस्लिमों की तो अभी बात की ही नहीं गयी है!
जब “मान्यवर” ईद का विज्ञापन बनाते हैं, तो क्यों यह बात नहीं उठाते कि इस ईद कसम खाते हैं कि अपने मजहब में जो कुरीतियाँ हैं, उसका विरोध करेंगे, उन्हें सुधारेंगे?
मगर वह ऐसा नहीं कहते! इसके दो कारण हैं, एक तो उन्हें यह लगता है कि सारी बुराइयों का स्रोत हिन्दू धर्म है और चूंकि सभी सुधार आन्दोलन इतिहास में हिन्दू धर्म के लिए ही हुए हैं, इसलिए इसी में सुधार किया जाना चाहिए।
इसकी जड़ कथित प्रोग्रेसिवनेस में भी मिलती है। जब से प्रगतिवाद या प्रोग्रेसिवनेस को मात्र वामपंथी प्रोग्रेसिवनेस से जोड़ा गया और प्रोग्रेसिव साहित्य का अर्थ मात्र उर्दू साहित्य हो गया, तब ऐसे वातावरण में यही कुकुरमुत्ते की तरह कविताएँ उपजनी थीं। आज आइये कुछ ऐसी ही कथित प्रगतिशील कविताओं को समझने का प्रयास करते हुए, “मान्यवर” जैसों की मानसिकता को समझने का प्रयास करते हैं और यह समझने का भी प्रयास करते हैं कि क्यों कथित पढ़ालिखा वर्ग “हिन्दू” पहचान खोकर ही प्रोग्रेसिव बनना चाहता है? जैसे कमलादास की कविताएँ, वही कमलादास जिन्होनें हिन्दू धर्म में रहते हुए लिखा:

उन्होंने समझाया- साड़ी पहनो, लड़की बनो, बीबी बनो,
सीखो कसीदा, रसोई करो, नौकरों को लगाओ डांट-फटकार,
सबसे मिल जुल कर रहो, अपने किरदार में रहो।
समूहों में बांटने वालों ने कहा,
ओह, मत बैठो दीवारों पर, झांको नहीं खिड़कियों के परदों से घर के अंदर।
एमी बनो या कमला,
उससे भी अच्छा कि बनो माधवीकुट्टी।
वक्त आ गया है कि चुन लो कोई नाम, अपना किरदार,
बहाने बनाना बंद करो,
बंद करो पागल दिखने की कोशिश, चुड़ैल मत बनो,
प्यार में धोखा खाकर इतना न रोओ जार बेजार कि सहम जाएं लोग।“
मगर जब उन्होंने सुरैया बनकर इस्लाम अपना लिया, तब कुछ भी नहीं लिखा। जबकि हिन्दू धर्म ने उन्हें कभी भी घूँघट के लिए विवश नहीं किया, उनकी उन्मुक्त तस्वीरें और शब्द रहे, और इस्लाम में जाते ही वह बुर्के में आ गईं।
ऐसी ही एक और कविता है, हिंदी कविता के क्षेत्र में एक बहुत ही प्रख्यात नाम गगन गिल, उन्होंने पिता के लिए लिखा:
पिता ने कहा
मैंने तुझे अभी तक
विदा नहीं किया
तू मेरे भीतर है
शोक की जगह पर
क्या लड़की शोक है? हमारे धर्म में तो नहीं! हमारे धर्म में तो भूमि से प्राप्त सीता को पाकर भी जनक प्रफुल्लित हैं। परन्तु उस प्रफुल्लित जनक के स्थान पर गगनगिल द्वारा लिखे गए शोकग्रस्त पिता ही बच्चों के सामने आएँगे, तो बच्चे कैसे जानेंगे कि पिता शब्द का अर्थ क्या होता है?
जब कमलादास एक हिन्दू स्त्री की पहचान को संकुचित और सीमित कर देंगी और वही कमलादास हमारे कॉलेज और स्कूल में स्त्री मुक्ति का प्रखर स्वर बनकर पढ़ाई जाएँगी तो “कन्यामान” जैसे ही विज्ञापन आएँगे! हम और अपेक्षा भी कुछ नहीं कर सकते!
ऐसे ही उन स्त्रियों के विषय में बच्चों के सम्मुख उदाहरण कम रखे गए हैं, जिन्होनें हिन्दू धर्म में बने रहते हुए ही संघर्ष किया, बल्कि उन स्त्रियों को महत्व दिया, जिन्होनें हिन्दू धर्म छोड़ दिया और ईसाई बनकर कथित हिन्दू धर्म में सुधार किए जैसे पंडिता रमा बाई!
कक्षा 7 की एनसीईआरटी की संस्कृत विषय में “पंडिता” रमाबाई पर अध्याय है, जिसमें लिखा है कि उस समय स्त्रियों को संस्कृत पढ़ने का अधिकार नहीं था! परन्तु उससे कुछ ही वर्ष पूर्व झांसी की रानी लक्ष्मीबाई एवं रानी अवंतिबाई लोधी अंग्रेजों को 1857 में अपने पराक्रम और युद्ध कौशल से हैरान कर चुकी थीं। अंग्रेजों एवं मुगलों से सामना करने वाली हिन्दू स्त्रियाँ न ही बच्चों को साहित्य में पढ़ाई गईं और न ही इतिहास में, पढ़ाया क्या गया कि पंडिता रमाबाई को हिन्दू धर्म में स्वतंत्रता नहीं थी और वह ईसाइयों में स्त्री विषयक विचारों से प्रभावित थी।

और यह बात बताई जा रही है कक्षा 7 के बच्चे को जिसकी उम्र लगभग 12 वर्ष होगी, और बारह वर्ष से ही वह यह पढ़ते हुए बड़ा हो रहा है कि ब्रह्मसमाज से होती हुई रमाबाई ईसाई बन गईं, इसलिए कमी हिन्दू धर्म में ही होगी।
और इसके बाद जब वह उस ईसाई रिलिजन में दी गयी औरतों की आज़ादी से प्रभावित हो जाएगा तो वह कभी भी चर्च की संस्थागत कुरीतियों और पाबंदियों को नहीं देख पाएगा जिसमें ननों को कविता लिखने तक की आज़ादी नहीं है, मगर वह “दान” को “डोनेट” समझकर “कन्यादान” को “गर्लडोनेट” समझ कर हिन्दू धर्म पर टिप्पणी करेगा!
इसलिए जितना दोषी “मान्यवर” है, “आलियाभट्ट” हैं उतने ही दोषी वह कथित अमीर वर्ग भी है जो प्रगतिशीलता का प्रमाणपत्र उस रिलीजन से लेना चाहता है जिसमें काफी समय तक यह माना ही नहीं जाता था कि औरतों में soul भी होती और जिस रिलिजन में औरत को मर्द का गुलाम माना गया है।
और हमारी पाठ्यपुस्तकें और साहित्य दोनों ही उस रिलिजन के गुलाम हैं, जिसकी गुलामी वह हिन्दू धर्म पर थोपते हैं!
जैसे एनसीईआरटी की कक्षा दस की यह कविता:

कई लोग उत्तरदायी हैं, जिन्होंने हमारे युवाओं के मस्तिष्क में यह विष भरा है और उसमें शिक्षा एवं साहित्य मुख्य हैं!