भारत में मूर्तिपूजा के कारण ही गरीबी है और मूर्तिपूजा के कारण प्रभु कृपा नहीं करते हैं क्योंकि वह मूर्तिपूजा को वैश्यावृत्ति मानते हैं। ऐसा मानना है एक ईसाई उपदेशक का। ट्विटर पर एक वीडियो साझा करते हुए एक यूजर @@HlKodo ने लिखा है कि लाजारुस को यह कहते हुए सुना जा सकता है कि “बाइबिल के अनुसार विग्रह आराधना और वैश्यावृत्ति से प्रभु नाराज होते हैं और देश पर मुसीबत आती है। जब इजरायल के लोग इस तरह से मूर्ति पूजा में लिप्त थे तो प्रभु गुस्सा हुए और उन्होंने मोसेस से कहा “ मैं गुस्सा हूँ, और मुझे यह नष्ट करने दो!” मैंने यह उदाहरण दिए दिए हैं और मैं अपना पालन करने वालों को यह अनुभव कराना चाहता हूँ कि यह कितना जरूरी है कि हम देश पर प्रभु के गुस्से को आमंत्रित न करें!” यह शायद उन्होंने तमिलनाडु में मन्दिरों के विषय में कहा है
ऐसा पहले नहीं हुआ है। तमिलनाडु के यह ईसाई उपदेशक पहले भी ऐसा कर चुके हैं और उन्हें हिन्दुओं का अपमान करने के लिए बुक भी किया जा चुका है। उन्होंने यह कहा था कि मंदिरों का निर्माण शैतान ने कराया है।
मंदिरों पर आक्रमण करने का अधिकार इन मिशनरी और मुस्लिम मौलानाओं को कौन देता है? किसने इन सभी को यह अधिकार दे दिया है कि आप अपने रिलिजन का प्रचार करने के लिए हिन्दू धर्म का अपमान करें, और वह भी वह हिन्दू धर्म, जिसने सभी को आगे बढ़कर स्वीकारा है। किसे नहीं स्वीकारा? साधारण हिन्दू चर्च के सामने भी उतने ही आदर से सिर झुकाता है, जितने आदर से मंदिर के आगे। क्योंकि वह जीसस के दर्द को अनुभव करता है।
पर उसे यह नहीं पता होता है कि वह जिस जीसस के दर्द को अनुभव कर रहा है, उसी जीसस के अनुयायी उसका धर्म तोड़ने के लिए तैयार रहते हैं। उसी जीसस के अनुयायी उसी के धर्म के विषय में जहर उगलने के लिए इतना तैयार रहते हैं कि वह मूर्ति पूजा को भी सहन नहीं कर पाते हैं।
यहाँ तक कि उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद हिन्दू धर्म पर ही हमला करते हैं। हिन्दू धर्म को नीचा दिखाना इनका प्रिय कार्य बन जाता है, जैसा हमने आईएमए के ईसाई प्रमुख द्वारा देखा था।
परन्तु दक्षिण के ईसाई उपदेशक का यह कहना कितना हास्यास्पद है कि मूर्तिपूजा से प्रभु का कोप आता है तो फिर जीसस की प्रतिमाएं? क्या जीसस की प्रतिमाओं की ईसाई पूजा नहीं करते हैं?
भारत का संविधान जो धार्मिक प्रचार की स्वतंत्रता धर्मों को देता है, उसमें दूसरे धर्मों की निंदा कैसे शामिल हो गयी?
भारत के संविधान में स्पष्ट लिखा है कि व्यक्ति को अपने धर्म का पालन और प्रचार करने की स्वतंत्रता है, परन्तु इस स्वतंत्रता में दूसरे धर्म की बुराई सम्मिलित नहीं है। क्या भारत का संविधान कथित अल्पसंख्यकों को यह अधिकार देता है कि वह हिन्दुओं को काफिर या शैतान कहें या फिर इन कथित अल्पसंख्यकों ने यह परिभाषा अपने हिसाब से विकृत कर ली है।
दरअसल संविधान निर्माताओं को भी इस बात का अहसास नहीं होगा कि आगे जाकर वही अल्पसंख्यक, बहुसंख्यकों के लिए खतरा बन जाएंगे जिन अल्पसंख्यकों को वह विशेष अधिकार दे रहे हैं।
संभवतया उन्हें भी यह नहीं अहसास होगा कि संविधान की धारा 25 की मनमानी व्याख्या की जाएगी और इसी मनमानी व्याख्या के आधार पर बहुसंख्यकों का क़त्ल तक बहुत आराम से न्यायोचित हो जाएगा क्योंकि अल्पसंख्यकों को उनके धर्म के प्रचार की स्वतंत्रता है।
जो ईसाई मिशनरी आज कर रही हैं, वह इसी धारा की मनमानी व्याख्या के कारण ही कर रही हैं क्योंकि संविधान में कहीं भी यह नहीं लिखा है कि हिन्दू धर्म की बुराई करके ही आपको अपने धर्म का प्रचार करना है। धारा 25 से लेकर धारा 30 तक जो भी व्याख्या की जाती है वह हिन्दू विरोध में परिवर्तित हो जाती है।
और इसी का लाभ ऐसे पादरी, ईसाई उपदेशक एवं वह मौलवी उठाते हैं, जो अपने अपने विस्तारवादी मजहबों के प्रचार में लगे हुए हैं। तभी वह आसानी से माफी मांगकर छूट भी जाते हैं। समय आ गया है कि अब इस बात पर व्यापक चर्चा हो कि संविधान में धारा 25 से लेकर 30 तक अल्पसंख्यकों को वास्तव में क्या अधिकार हैं, अधिकारों की सीमाएं क्या हैं और किस प्रकार उनका अतिक्रमण किया जाता है और अंतत: हिन्दू धर्म की बुराई ही एकमात्र लक्ष्य होता है, जिस पर यह लाजारुस जैसे लोग आ जाते हैं।
इन मुद्दों पर विशेष बात होनी चाहिए, जिससे लोगों की आँखें खुलें और वह प्रश्न कर सकें कि हमारा धर्म न ही चर्चों के विरोध में कुछ बोलता है और न ही मस्जिदों के तो फिर आपको ही हमारे मंदिरों को तोड़ने में विजय का अनुभव क्यों होता है? यह प्रश्न तो करना ही होगा कि हम आपके जीसस की पीड़ा को समझकर उन्हें प्रणाम करते हैं, मगर आप हमारे प्रभु श्री राम को झूठा क्यों कहते हैं?”