वर्ष 1947 में विभाजन के उपरान्त अंग्रेजों के शासन से मुक्त हुआ भारत अपनी मुक्ति अर्थात आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। हर ओर तिरंगे की धूम है। तिरंगा देखकर हृदय आह्लादित भी है, क्योंकि शताब्दियों के उपरांत भारत को लगा था कि उसका तंत्र शासन में आएगा! शताब्दियों के बाद भारत को लगा कि वह अब मंदिरों में खिलखिला पाएगा। सदियों बाद भारत को लगा कि अपने पर्वों पर अपने रचे गीत गा पाएगा!
तिरंगे को सलामी देता हुआ भारत एक नई आस में था, या कहें देश का हिन्दू जनमानस एक आस में था। वह सदियों के उत्पीडन के बाद इस आस में था कि कहीं न कहीं अब उसका भी विमर्श होगा, कहीं न कहीं वह सोमनाथ विध्वंस की पीड़ा को खुलकर गा पाएगा और जागृत कर पाएगा, कहीं न कहीं वह कह पाएगा कि हमारे मन्दिरों के साथ क्या हुआ? कहीं न कहीं वह अपनी आत्मा के साथ हुए छल को दिखा पाएगा, कहीं न कहीं वह स्वतंत्रता में स्व-तंत्र ने सांस ले पाएगा!

ऐसा नहीं कि सम्पन्नता एवं समृद्धि तथा विकास नहीं हुआ है, बल्कि भारत ने विकास के क्षेत्र में अपनी विविधतापूर्ण स्थिति के चलते जो उपलब्धियां हासिल की हैं, वह आशाओं से बढ़कर हैं और अभी भी हमने कोरोना के समय में उपलब्धियों को बनाए रखा है। फिर भी कहीं न कहीं ऐसा लगता है कि कुछ कमी है, कहीं न कहीं ऐसा लगता है जैसे हम एक अधूरी जमीन पर चल रहे हैं। कहीं न कहीं हम अधूरेपन में हैं! ऐसा क्यों है? भारत में उत्पन्न स्थितियों को देखकर ये भी प्रश्न उठते हैं कि क्या हिन्दुओं के पास वास्तव में स्व-तंत्र है?
क्या वास्तव में हिन्दुओं के पास अपना विमर्श है? आइये कुछ तथ्यों पर दृष्टि डालते हैं:
मीडिया में हिन्दू-विरोधी विमर्श:
लोकतंत्र के स्तंभों में से एक मुख्य स्तम्भ है मीडिया का। और जिसका कार्य है कि जो हो रहा है, उसकी हूबहू रिपोर्टिंग करना, घटना का विवरण करना! घटना के प्रति निरपेक्ष रहते हुए उसके विषय में बताना! परन्तु भारत में ऐसा नहीं है। भारत में मीडिया का जो दृष्टिकोण है वह कहीं न कहीं हिन्दुओं के विरोध में है, वह उन घटनाओं का विवरण तो अपने दुराग्रहों से भरकर करता है जिनमें हिन्दू समाज का विघटन छिपा होता है या फिर हिन्दू धर्म के प्रति विष होता है, परन्तु वह उन घटनाओं को सामान्य घटना बनाकर प्रस्तुत करता है जिनमें हिन्दू पीड़ित होता है और कथित अल्पसंख्यक उसका उत्पीडन करने वाला होता है।
जैसे कश्मीरी पंडितों की पीड़ा कभी भी मीडिया के विमर्श में उस रूप में नहीं आ पाती है जिस प्रकार से गुजरात के दंगे आ गए! जिस प्रकार से यह अवधारणा बन गयी कि कश्मीर में जो मुस्लिम आतंकवादी होते हैं, वह मात्र इसलिए आतंकवादी बनते हैं क्योंकि हिन्दू भारत की सरकार उनके साथ अत्याचार करती है, इसलिए वह बन्दूक उठाकर आम लोगों की हत्या करते हैं। परन्तु वह हजारों हिन्दू उस विमर्श का हिस्सा आज तक नहीं बन पाए हैं जिन्हें मात्र उनके धर्म के चलते उनकी मातृभूमि से निकाल दिया गया था।
साहित्य में हिन्दू विमर्श
एक ऐसा क्षेत्र जिसमें हिन्दू अपना आश्रय खोजता था, जिसमें हिन्दू यह चाहता था कि वह भावों में खो जाएगा, उसकी पीड़ा को माध्यम मिलेगा, वह स्वतंत्रता के उपरान्त एक ऐसी धारा पर चलता चला गया जहाँ पर सोमनाथ की पीड़ा लिखने वाले कन्हैया लाल मुंशी तो साम्प्रदायिक और पिछड़े ठहरा दिए जाते हैं, जयशंकर प्रसाद पर बोलना पाप माना जाता है और गोस्वामी तुलसीदास को स्त्री विरोधी ठहराया जा सकता है तो वहीं इकबाल जैसे शायर जिन्होनें पाकिस्तान के निर्मण में सबसे बड़ी भूमिका निभाई थी, उनके नाम पर उर्दू दिवस मनाया जा रहा है।
जो इकबाल खुद को अरबी कहते हैं, उन्हें क्रांतिकारी माना जा सकता है। और फैज़ की “बस नाम रहेगा अल्लाह का” को क्रान्ति का प्रतीक मना जाता है!

दुष्यंत की ग़ज़लें कहीं जबरन गुम करा दी जाती हैं और उन्हें विमर्श से गायब ही कर दिया जाता है। हिन्दू महिला रचनाकार जिनकी हिन्दू दृष्टि थी, जैसे सुभद्रा कुमारी चौहान, उन्हें विमर्श से एकदम बाहर कर दिया गया है और उनके स्थान पर ऐसा स्त्री विमर्श आया है जिसमें हिन्दुओं के प्रति घृणा ही घृणा है!

ऐसा प्रतीत होता है जैसे किसी विधर्मी द्वारा लिखा गया साहित्य पढ़ा जा रहा है।
स्त्री विमर्श:
यह सबसे महत्वपूर्ण है क्योंकि जब भी स्त्रियों की बात की जाती है तो यह कहा जाता है कि स्त्रियों का अपना इतिहास नहीं था और वैदिक काल से लेकर अब तक स्त्रियों को पुरुषों के अधीन रहना होता था और महिलाएं पुरुषों की गुलाम थीं, जिनका जीवन विवाह के बाद समाप्त हो जाता था। और उन्हें काम करने की अनुमति नहीं थी, उनका जीवन पूरा घर में ही गुजर जाता था, पति के न रहने पर जला दिया जाता था और एक एक पुरुष कई विवाह कर सकता था।

और उन तमाम स्त्रियों की उपलब्धियों को विमर्श में लाया ही नहीं गया है और यह कहा गया कि पुरुष शोषक थे, जबकि जिन्होनें उत्पीडन किया जैसे अंग्रेज और मुग़ल, वह इनके लिए सुधारक बने रहे! हिन्दू स्त्रियों की उपलब्धियां पूरी तरह से विमर्श से बाहर हैं, और यदि कोई स्त्री विमर्श में आई थी तो उसकी हिन्दू पहचान को या तो मिटाकर या फिर डाय्ल्युट करके! यहाँ तक कि उनकी साड़ी जैसे परिधानों को साम्प्रदायिक ठहराया जा रहा है!
धार्मिक विमर्श:
यह भी एक ऐसा विमर्श है, जिसमें से हिन्दू गायब है। हिन्दुओं के मंदिर उसके अधिकार में नहीं है, हिन्दुओं को अपने पर्व भी मनाने की पूर्ण स्वतंत्रता नहीं है। कोई भी गैर सरकारी संगठन कभी भी हिन्दू आस्था पर प्रहार करते हुए न्यायालय में जाकर अपने अनुसार निर्णय ला सकता है। जिसमें दही हांडी की ऊंचाई और दीपावली पर पटाखों पर प्रतिबन्ध मुख्य घटनाएं हैं। बच्चों के मन से हर पर्व का आकर्षण समाप्त किया जा रहा है और हिन्दू समुदाय पर स्वतंत्रता के बड़ा आघात किया जा रहा है।

उसके रीतिरिवाजों को पिछड़ा, स्त्री विरोधी बताया जाता है यहाँ तक विवाह से सम्बंधित प्रथाओं पर कोई भी कुछ लिख सकता है और कोई भी कैसा विज्ञापन बना सकता है, उसके पर्वों को स्त्री विरोधी ठहराया जाता है। रक्षाबन्धन से लेकर करवाचौथ पर न जाने कैसी औरतें बैठकर विमर्श करती हैं, और लोग हँसते हैं।
यह तो मात्र एक छोटा विश्लेषण है, परन्तु भारत में हिन्दुओं की जो हत्याएं सर तन से जुदा वाले गैंग द्वारा की जा रही हैं, उन्हें भी एक वर्ग सही सा ठहरा रहा है! कन्हैया लाल की ह्त्या से जो सिलसिला आरम्भ हुआ है, वह अभी तक रुका नहीं है, परन्तु हिन्दुओं के प्राणों का इस देश में इतना भी महत्व नहीं कि वह बढ़ती हत्याओं पर संसद में विमर्श करवा सके या फिर सड़क पर आन्दोलन करा सके!
पालघर में साधुओं की लिंचिंग पर भी एक सन्नाटा है!
यह कहना अतिश्योक्ति न होगा कि स्वतंत्रता के 75वें वर्ष में भी हिन्दू स्व-तंत्र एवं स्व-विमर्श की तलाश में है!