9 नवम्बर को हाल ही में भारत में उर्दू दिवस मनाया गया। उर्दू दिवस को अल्लामा इकबाल के जन्मदिवस के अवसर पर मनाया जाता है। हमने अपने दो लेखों की श्रृंखला में अल्लामा इक़बाल के पाकिस्तानी प्रेम के साथ साथ कट्टर इस्लामी चरित्र को भी बताया है। अभी अल्लामा इकबाल की ही नज़्म का एक शेर पढ़ते हैं, और फिर उर्दू दिवस पर बात करते हैं।
अल्लामा इकबाल ने अपनी नज़्म ज़ौक ओ शौक में लिखा है:
क्या नहीं और ग़ज़नवी कारगह-ए-हयात में
बैठे हैं कब से मुंतज़िर अहल-ए-हरम के सोमनाथ!
हर हिन्दू सोमनाथ और गजनवी का सम्बन्ध जनता है। गज़नवी ने सोमनाथ का मंदिर ही नहीं तोड़ा था, बल्कि हिन्दू गौरव के सबसे बड़े प्रतीक को तोड़ा था। हाल ही में तालिबान सरकार में शामिल अनस हक्कानी भी गजनवी की कब्र पर गया था और लिखा था कि
“आज मैं महान सुलतान महमूद गजनवी की कब्र पर गया था, जो दसवीं शताब्दी के महान मुस्लिम योद्धा और मुजाहिद थे। गजनवी ने गजनी से एक मजबूत मुस्लिम शासन की नींव डाली और “सोमनाथ” के बुत को तोड़ा!”
अर्थात सोमनाथ का मंदिर कोई सामान्य मंदिर नहीं था। वह इतना समृद्ध था कि गजनवी ने ही उस पर सत्रह बार आक्रमण किया था। सोमनाथ का मंदिर कोई आम मंदिर नहीं था। इस क्षेत्र का नाम प्रभास इसी लिए पड़ा था क्योंकि यहाँ पर चन्द्रदेव की प्रभा वापस आई थी, एवं चन्द्र देव की तपस्या से प्रभावित होकर स्वयं महादेव ने दर्शन दिए थे एवं वहां पर चन्द्र देव ने देव शिल्पी विश्वकर्मा से यह मंदिर बनवाया था। यह मंदिर महादेव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है।
सोमनाथ का मंदिर हिन्दुओं के वैभव, हिन्दुओं की आस्था एवं हिन्दुओं की शक्ति का प्रतीक है। महादेव को जितनी बार कोई दुष्ट तोड़ता है, वह कालांतर में नष्ट हो जाता है, परन्तु महादेव परम वैभव के साथ वहीं हैं। इकबाल के समय के भारत में तो सोमनाथ का मंदिर जीर्ण शीर्ण स्थिति में था, क्योंकि उसका पुनर्निर्माण तो स्वतंत्रता के उपरान्त सरदार पटेल के आदेशानुसार हुआ था।

अपने इस शेर में इकबाल कह रहे हैं कि
क्या नहीं और ग़ज़नवी कारगह-ए-हयात में
बैठे हैं कब से मुंतज़िर अहल-ए-हरम के सोमनाथ!
अर्थात अब और गज़नवी क्या नहीं हैं? क्योंकि अहले हरम (जहाँ पर पहले बुत हुआ करते थे, और अब उन्हें तोड़कर पवित्र कर दिया है) के सोमनाथ अपने तोड़े जाने के इंतज़ार में हैं।
यह देखना अत्यंत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि जो अल्लामा इकबार बार बार अलगाववादी मानसिकता को प्रदर्शित करते हैं, और हिन्दुओं के प्रति सबसे अधिक दुर्भावना रखते हैं, जो उनके भगवान के विषय में यह लिखते हैं कि अब तो यह पुराने हो गए हैं और ब्राह्मणों ने बैर रखना बुतों से सीखा है।
उनकी नज्मों से इतर मुस्लिम लीग के अधिवेशन में उनके अलगाववादी विचार पढ़े जाने चाहिए। यह इकबाल ही थे, जिन्होनें भारत के टुकड़े करने और पाकिस्तान बनाने का विचार उठाया था। 29 दिसंबर 1930 को मुस्लिम लीग के अधिवेशन में उन्होंने भारत के भीतर एक मुस्लिम भारत बनाने की मांग का समर्थन किया था और पंजाब, उत्तरी-पश्चिमी फ्रंटियर क्षेत्र, सिंध, बलूचिस्तान को मिलाकर राज्य बनाने की बात की थी, जिसमें या तो ब्रिटिश राज्य के भीतर या ब्रिटिश राज्य के बिना सेल्फ-गवर्नेंस होगी। अर्थात मुस्लिमों का शासन होगा।
इकबाल ने इस भाषण में इस्लाम को राज्य बताया है। उन्होंने इस भाषण में कहा था कि मुस्लिम नेताओं और राजनेताओं को इस बात से भ्रमित नहीं होना चाहिए कि तुर्की और पर्शिया या फिर और मुस्लिम देश तो राष्ट्रीय हितों के आधार पर आगे बढ़ रहे हैं। भारत के मुसलमान अलग हैं। भारत से बाहर के जो भी इस्लामिक देश हैं, वह व्यावहारिक रूप से पूर्णतया मुसलमाना ही हैं। कुरआन की भाषा में वहां के अल्पसंख्यक “किताब के लोग’हैं। मुस्लिमों और ‘किताब के लोगों’ के बीच कोई भी सामाजिक अवरोध नहीं है। एक यहूदी या ईसाई के बच्चे के छूने से किसी भी मुस्लिम का खाना खराबा नहीं होता है और इस्लाम का कानून उन्हें परस्पर शादी की अनुमति देता है। फिर वह आगे कहते हैं कि कुरआन में लिखा है कि ‘ए, किताब के लोगों, हम उस शब्द पर एक साथ आते हैं, जो हमें परस्पर जोड़ता है।”

अर्थात उन्होंने हिन्दुओं के साथ रहने से इंकार कर दिया था। हिन्दुओं के प्रति उनकी घृणा उनकी नज्मों में दिखती है। जैसा हमने पहले भी चर्चा की है। इकबाल द्वारा मुस्लिम लीग में जो भाषण दिया गया था, उसका विश्लेषण करने पर यह ज्ञात हो जाता है कि वह किस हद तक कट्टर मुसलमान थे और इसके साथ ही वह इस यह भी कहने वाले थे कि हिन्दुओं के साथ नहीं रहा जा सकता है।
परन्तु फिर भी यह बात नहीं समझ आती है कि भारत में आज तक उर्दू दिवस इकबाल के नाम पर क्यों मनाया जा रहा है, जो पाकिस्तान के बौद्धिक निर्माता थे और पाकिस्तान ने हाल ही में उनकी याद में “इकबाल डे” मनाकर उनका शुक्रिया व्यक्त किया था।
अर्थात एक ओर तो कथित बौद्धिक यह बार बार कहते हैं कि उर्दू भारतीय भाषा है, अर्थात भारत की भूमि से उसने अपना रूप पाया है, परन्तु फिर भी दूसरी ओर उस व्यक्ति के नाम पर उर्दू दिवस मनाते हैं, जिसने भारत को बांटने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ऐसे में जब हमारी नई पीढ़ी जब उर्दू दिवस मनाती है तो वह ऐसे व्यक्ति को स्मरण करती है, अच्छा मानती है, जिसने देश के विभाजन की नींव डाली और वह सभी लोग जिन्होनें वास्तव में देश के लिए बलिदान दिए थे, वह अचानक से ही दोषी बन जाते हैं, खलनायक बन जाते हैं।
ऐसे में एक प्रश्न यह उठता है कि क्या आधिकारिक स्तर पर, सरकारी स्तर पर हम स्वयं ही अपनी आने वाली पीढी में हिन्दुओं से घृणा करने वालों, भारत विभाजन करने वालों के प्रति प्रेम और आदर नहीं भर रहे हैं? जब सरकारी स्तर पर इकबाल जैसों को महान बताया जाएगा तो ऐसे में नई पीढ़ी हिन्दुओं और देश से कैसे जुड़ पाएगी?
हालांकि वर्ष 2013 में यह मांग उठी थी कि उर्दू दिवस को इकबाल के जन्मदिवस के अवसर पर नहीं मनाया जाए क्योंकि यह उर्दू को एक साम्प्रदायिक रंग दे रहा है। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि प्रोफेसर्स की भी यह मांग अनसुनी ही रह गयी।