1951 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि एक धार्मिक संस्था का प्रशासन एक धर्मनिरपेक्ष प्राधिकरण में निहित नहीं हो सकता। फिर भी चर्च और मस्जिदों के विपरीत हिंदू मंदिर और दान देने वाली संस्थाएं धर्मनिरपेक्ष भारतीय राज्य द्वारा प्रशासित किए जाते हैं।
यह लेख दो भाग की शृंखला है जो राज्य के इस हस्तक्षेप के प्रक्षेप पथ को बीते समय के ईस्ट इंडिया कंपनी से जोड़ती है और हिंदू समाज पर इसके कुप्रभाव की पड़ताल करती है, जिसमें राजनेताओं और तथाकथित धर्मनिरपेक्षवादियों द्वारा कोविड-19 के राहत और पुनर्वास के लिए हिंदू मंदिरों के सोने का मोनेटाइजेशन किए जाने की दुस्साहसिक मांग भी शामिल है।
इसवस्यम इदं सर्वं (परमात्मा के दर्शन से संपूर्ण विश्व व्याप्त है)
– ईस्वस्य उपनिशद
मैं मदुरई शहर में रहती हूं। मंदिर इस प्राचीन शहर के दिल की धड़कन है। यह शहर चारों ओर से प्राचीन हिंदू मंदिरों से घिरा हुआ है – प्रतिष्ठित मीनाक्षी सुंदरेश्वर मंदिर जिसके चारों ओर यह शहर उग आया है, पास में ही कूडल अ़झगर पेरूमल मंदिर, उत्तर में थिरुपुरनकुंद्रन मंदिर, और वैगई नदी, जो इस शहर को बीचोबीच काटती है, की दूसरी तरफ नरसिंहम पेरूमल और तिरुमोहुर मंदिर हैं।
धर्म मायने रखता है
कैंब्रिज इंग्लिश डिक्शनरी के अनुसार, “एक मंदिर, कुछ धर्मों में देवी देवताओं की पूजा के लिए इस्तेमाल की जाने वाली इमारत है” मंदिर के लिए संस्कृत शब्द देवालय (देव = भगवान, आलय= निवास) है। अंग्रेजी शब्द ‘टेंपल’ देवालय के जादू, रहस्य, रहस्यवाद, आश्चर्य और विस्मय को निरूपित नहीं कर सकता। आश्चर्य नहीं कि हम अधार्मिक शब्दावली (जैसे अंग्रेजी) और वाक्य रचना में धार्मिक शब्दों का वर्णन करने के लिए संघर्ष करते हैं। इस प्रकार हम पाते हैं कि अनुवाद मोटे तौर पर अपर्याप्त है क्योंकि इनमें से कई शब्दों का आसान अनुवाद हो ही नहीं सकता।
सदियों के विदेशी आक्रमण, अधीनता और शासन का कुप्रभाव यह रहा कि हमारी हिंदू परंपराओं, रीति रिवाजों और प्रथाओं का प्रच्छन्न रूप से नाश किया गया, खासकर उनका जो हिंदू मंदिरों से संबंधित हैं। वर्तमान काल में देश में मंदिर कानून केवल हिंदू मंदिरों और धार्मिक अक्षय निधि के सरकारी नियंत्रण के औचित्य को सामान्य और निरूपित करता है, जबकि चर्च, मस्जिद और इसाई और मुसलमानों के धार्मिक अक्षय निधि को पुण्यमय माना गया है और इसलिए वह प्रतिरक्षित हैं।
कॉन्ग्रेस और महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चौहान की हालिया दुस्साहस पूर्ण मांग, कि कोविड-19 राहत और पुनर्वास के लिए हिंदू मंदिरों की सोने की संपत्ति का मुद्रीकरण किया जाए, यह हिंदू धर्म के सिद्धांतों और उसकी जड़ों पर – जो हिंदू मंदिरों का सारतत्व, परंपरा और उद्देश्य है – एक कठोर और दुर्भावनापूर्ण हमला है।
मंदिर एक पवित्र स्थान का रूप है
हिंदू धर्म में मंदिर एक क्षेत्रम या परिवर्तनकारी स्थान है। यह एक धर्म क्षेत्र या हिंदू धर्म के अभ्यास के लिए एक पवित्र स्थान है। श्री वैष्णव संप्रदाय के अनुसार मंदिर एक दिव्य क्षेत्र या पवित्र स्थान है जिसे श्री वैष्णव भक्त कवियों अझवार या उनके ईश्वरीय रहस्य साधक संतों द्वारा गाए पसुराम या भजनों द्वारा संस्कारित किया गया है। श्री वैष्णववादी यह भी मानते हैं कि 108 श्री वैष्णव मंदिरों में मूर्तियां अर्चावतार अर्थात भगवान (विष्णु) का प्रतिमा में अवरोहण के रूप में हैं ताकि वे आसानी से अपने भक्तों के लिए सुलभ हो सकें।
इससे यह स्पष्ट है की हिंदू धर्म में मंदिर एक ईंट और पत्थर की संरचना नहीं अपितु एक पुण्यमयी स्थान है जो की ‘मूर्ति स्थापना’ (एक और धार्मिक शब्द जिसका अंग्रेजी में अनुवाद संभव नहीं) अर्थात मंदिर के पीठासीन देवी देवता की छवि स्थापित करने और ‘प्राण प्रतिष्ठा’ अर्थात मूर्ति में प्राण ऊर्जा अनुप्राणित करने के जुड़वा समारोह द्वारा संस्कारित है। इसके बाद देव मूर्ति एक जड़ निष्क्रिय पत्थर की मूर्ति नहीं अपितु एक जीवित, गतिशील ऊर्जा स्वरूप हो जाती है।
इसलिए जब हम किसी मंदिर में प्रवेश करते हैं या उसके द्वार को पार करते हैं तो हम अनंत संभावनाओं वाले क्षेत्र में कदम रखते हैं, जो दिव्य चेतना से स्पंदित होता है। इस प्रकार एक हिंदू मंदिर एक अवचेतन द्वार या दहलीज है जिसमें दोनों भौतिक और आध्यात्मिक क्षेत्र व्याप्त हैं।
दर्शन या पवित्र अनुभूति की कला
इंडिक संस्कृति मुख्य रुप से दृश्य है। हमारे मंदिरों में मूर्तियां या देवता, दर्शन या पवित्र अनुभूति के महत्व के जीवंत अनुस्मारक हैं। यह केवल देखने, जो कि एक शारीरिक संवेदिक घटना तक सीमित है, से कहीं अधिक है। दर्शन का यह गुण हमारे परीदृश्य, कला, प्रतिमा-विद्या, हमारे संपूर्ण जीवन में समाहित है। इसी प्रकार हम पवित्र स्थान के दर्शन करने के लिए तीर्थ यात्रा या पवित्र यात्रा करते हैं, अज्ञात की खोज में एक खोज कर्ता के रूप में, ना कि एक मंदिर पर्यटक यात्री के रूप में जो कि भ्रमण कर ली गई जगहों को अपनी यात्रा सूची में चिन्हित करता जाता है।
पूज्य श्री स्वामी चिन्मयानंद जी ने कहा, “…. जब एक भक्त मंदिर जाता है और देव मूर्ति के दर्शन करता है, तो वह चारों और प्रचलित तनावों के बावजूद, खुशी और आंतरिक शांति का रोमांच महसूस करता है। शायद ही इस बात पर कोई विशेष बल देने की जरूरत है कि आज के दौर में मंदिरों की कितनी जरूरत है। यह हमारे जीवन में एक गति अवरोधक की तरह काम करते हैं और व्यस्त जीवन की अंधी दौड़ को धीमा करते हैं। वे अवसाद और निराशा के दौरान, जो हमारे नियंत्रण के परे है, प्रेरणा और सांत्वनाकारी स्तोत्र होते हैं। इसीलिए प्राचीन समय में मंदिर निर्माण एक पवित्र गतिविधि माना जाता था जो कि किसी भी अन्य सामुदायिक सेवा की तरह पवित्र था।”
एक हिंदू सिर्फ देवता की पूजा करने के लिए मंदिर नहीं जाता है बल्कि वह मंदिर में देवता के दर्शन के लिए जाता है, उन्हें देखने और बदले में दिखने के लिए जाता है। हम आमतौर पर जो व्यक्ति मंदिर होकर आया है , उससे यह पूछते हैं, ” क्या आपको अच्छे दर्शन हुए?”
मंदिर एक हिंदू के लिए मौज मस्ती करने का, और हिन्दुओं के साथ एकत्रित होने का, या साधारण बातों पर चर्चा या बहस करने का स्थान नहीं है, अपितु ईश्वर के साथ प्रत्यक्ष संवाद और उनके दर्शन का स्थान है। स्वाभाविक रूप से यह होता है कि जब हम मंदिर में एक मूर्ति के सामने खड़े होते हैं तो हम ईश्वर के प्रभाव में होते हैं और एक संत की तरह हो जाते हैं। मेरी मां अक्सर मुझसे कहती है कि जब हम मूर्ति के सामने खड़े होते हैं तो बंद आंखों से नहीं बल्कि खुली आंखों से प्रार्थना करें, खुली आंखों से मूर्ति के दर्शन से ओतप्रोत होकर उसकी दृष्टि का भरपूर आनंद ले।
सिर्फ दृष्टिकोण से कहीं ज्यादा
एक साझा शब्दावली और व्याकरण की अनुपस्थिति ने भारत के शुरुआती आक्रमणकारियों और विजेताओं को उलझन और अचरज में डाल दिया। उदाहरण के लिए, यूरोपिय यात्री भारत की मूर्तियों, प्रतीकों और चित्रों को देखकर हैरान और घृणित रह गए। उनके लिए और अन्य अब्राहमिक धर्मों के मानने वालों के लिए हमारी मूर्तियां जड़ ‘प्रतिमाएँ’ थी और मूर्तियों की पूजा करने वाले ‘प्रतिमा उपासक’ (‘आइडल वॉरशिप्पर’ या ‘बुत परस्त’) थे जो कि उनकी मान्यता में एक बहुत ही गहरा पाप था और इसलिए इन मूर्तियों को तोड़ने का कारण था।
एम ए शैरिंग (1826- 1880) प्रोटेस्टेंट मिशनरी और इंडोलॉजिस्ट, बनारस में रहते और काम करते थे। उन्होंने एक प्रभावशाली पुस्तक लिखी जिसका नाम था” द सेक्रेड सिटी ऑफ द हिंदू – प्राचीन और आधुनिक समय में बनारस का एक विवरण” इसमें वे लिखते हैं- ” ….अशिष्ट आकृतियों की पूजा, राक्षसों की, लिंग की और अन्य अशोभनीय आकृतियों की, बड़ी संख्या में विकृत भद्दी और अजीबोगरीब वस्तुओं की।”
अमेरिका के जाने-माने लेखक मार्क ट्वेन ने बनारस की अपनी यात्रा और मूर्तियों के देखने के अपने अनुभव के बारे में लिखा है-” और उनका कितना बड़ा झुंड है! पूरा शहर मूर्तियों का एक विशाल संग्रहालय है – सभी अशिष्ट, विकृत और बदसूरत हैं। वह सपने में आते हैं, बुरे और डरावने सपने”
श्रुत का दृष्टिगत के विरुद्ध अधिमूल्यन
यह दृष्टा और दृष्ट के दृष्टिकोण में बुनियादी अंतर की ओर इशारा करता है। अब्राहमिक विश्वासों (यहूदी, ईसाई और इस्लाम) के लोगों में हिंदू छवियों के प्रति ऐसी अतिशय प्रतिक्रियाएं, “दिव्यता की कल्पना” के विरुद्ध एक गहरी विद्वेष दर्शाती हैं। इसलिए अब्राहमिक श्रुत या सुनी सुनाई बातों पर विश्वास रखते हैं। इसलिए द बुक, वन गॉड, एक पैगंबर (यहूदी-ईसाई परंपरा) के लोग दृष्टिगत के प्रति एक अंतर्निहित संदेह और अविश्वास रखते हैं। विडम्बना यह है की आज के उन्मूलित, धर्मनिरपेक्ष, उदारवादी हिंदुओं ने भी अपनी धार्मिक शब्दावली, व्याकरण और वाक्य रचना की विरासत से संबंध खो दिया है।
विचारों और दृष्टिकोण में ऐसा भेद तथा भिन्नता, और उसके अतिरिक्त ब्रिटिश साम्राज्यवाद तथा ईसाई धर्मांतरण (मिशनरी) के लक्ष्यों ने शासकों और हिंदू मंदिरों के बीच संबंधों में विवर्तनिक बदलाव के लिए मंच तैयार किया। इससे धीरे-धीरे हिंदू मंदिरों और हिन्दू समाज, जिसका वे अभिन्न अंग थे, के बीच समीकरण बदलने लगे।
विदेशी आक्रमणों के दौरान हिंदू मंदिर समाज का केंद्र बिंदु थे। हिंदू धर्म की परंपरा में मंदिर बहुत भव्य हुआ करता था । वह समुदाय की पवित्र, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, सामाजिक और कलात्मक परंपराओं का संगम था। वास्तव में, समुदाय का ताना-बाना परंपराओं, प्रथाओं और रीति-रिवाजों के साथ बुना गया था जो मंदिर के पवित्र क्षेत्रों में जीवंत था।
यद्यपि अक्सर शक्तिशाली राजाओं और सम्राटों द्वारा दी गई धनराशि मंदिरों की सहायक होती थी, फिर भी मंदिर स्थानीय समुदाय द्वारा संयुक्त रूप से प्रबंधित और प्रशासित किये जाते थे। स्थानीय समुदायों के उत्थान और कल्याण के लिए मंदिरों द्वारा इस तरह के धर्मार्थ बंदोबस्तों और धनराशि का उपयोग किया जाता था, जैसे कि विश्राम गृह का निर्माण, अस्पताल का निर्माण, वेद पाठशालाओं के माध्यम से शिक्षा प्रदान करना, गौरक्षा के लिए गौशाला, गरीबों के लिए भोजन उपलब्ध कराना इत्यादि। हिंदू मंदिर एक जीवंत इकोसिस्टम था जो पूरे समुदाय की आजीविका का समर्थन और प्रबंध करता था। वह हर जाति, हर उपजाति और हर समुदाय का था। वह वास्तव में उद्देश्य से लोकतांत्रिक था।
कानून का प्रवेश
श्री टी. आर. रमेश, फायर ब्रांड मंदिर कार्यकर्ता और अध्यक्ष, इंडिक कलेक्टिव ट्रस्ट (जो कानूनी हस्तक्षेप के माध्यम से इंडिक सभ्यता के मूल्यों को बढ़ावा देता है), और उनकी टीम सरकारी नियंत्रण से पुनः मंदिरों को बाहर निकालने के आंदोलन का नेतृत्व कर रही है। वह ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी (EIC, 1600-1874) से जन्मे हिंदू मंदिरों के विधान की यात्रा पर एक सटीक दृष्टिकोण प्रदान करते हैं।
श्री रमेश के अनुसार, हिंदू मंदिरों में सरकार के हस्तक्षेप की शुरुआत हुई थी 1817 में ब्रिटिश द्वारा पारित किये गए मद्रास अधिनियम से जिसका कथा-कथित उद्देश्य था धार्मिक, धर्मार्थ और पूजा स्थलों के ‘कुशल प्रशासन’ को सुनिश्चित करना। हालांकि इस कदम का मुस्लिमों ने पुरजोर विरोध किया और इसलिए वे इस अधिनियम के दायरे में नहीं आए। इसाई धर्मार्थ हमेशा की तरह इस तरह के अधिनियमों से मुक्त थे।
हालांकि श्री रमेश बताते हैं कि केवल प्रमुख हिंदू मंदिर EIC की निगरानी में थे और वह भी सरकार के नियंत्रण में नहीं थे। 1817 से 1840 के बीच हिंदू मंदिरों का प्रशासन ‘कुशल’ था और थॉमस एडवर्ड रवेन्शा और थॉमस मुनरो (1761-1827) जैसे कई जिला कलेक्टर मंदिरों की गतिविधियों का खुलकर समर्थन करते थे क्योंकि वह राजस्व में भी योगदान करते थे। हालांकि यह ध्यान रखना दिलचस्प है कि 1840 में EIC ने खुद को मंदिरों से दूर करने का फैसला लिया क्योंकि ईसाई मिशनरियों ने ब्रिटिश संसद से यह शिकायत की थी कि हिंदू मंदिरों का कुशल प्रशासन धर्मांतरण प्रयासों में बाधक है।
1863 में ब्रिटिश सरकार ने धार्मिक एवं धर्मदान अधिनियम जारी किया जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया था कि सरकार का हिंदू मंदिरों में ट्रस्टी आदि की नियुक्ति पर कोई नियंत्रण नहीं होगा। 1925 में और बाद में 1926 में, जस्टिस पार्टी के तथाकथित प्रगतिशील बुद्धिजीवियों की अगुवाई में, मद्रास प्रेसिडेंसी में प्रांतीय सरकार हिंदू मंदिरों और संस्थानों पर सरकारी नियंत्रण करने पर तुली हुई थी जिससे उनकी संपत्ति पर नियंत्रण हासिल हो सके। मद्रास हिंदू धार्मिक एवं धर्मदान (HRCE) अधिनियम 1926 में पेश किया गया जो की वर्तमान हिंदू धार्मिक एवं धर्मदान अधिनियम 1959 का अग्रदूत था जिससे कुप्रबंधन के बहाने हिंदू धार्मिक संस्थानों (मंदिरों और मठों) का प्रबंधन और नियंत्रण सरकारी हाथों में लेने का कार्य किया गया।
“हिंदू अपने धर्म के बारे में और अपने मौलिक अधिकारों से अनभिज्ञ हैं कि वे अपने धर्म का अभ्यास और प्रचार कर सकते हैं। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्हें इस बात की जानकारी ही नहीं है कि वह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 26 के तहत अपने धर्म को और धार्मिक संस्थाओं को चलाने और बनाए रखने के मौलिक अधिकारों से निहित हैं। भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय के उस हुक्म से भी हिंदू पूरी तरह से अनभिज्ञ हैं कि किसी धार्मिक संस्था का प्रशासन एक धर्मनिरपेक्ष प्राधिकरण (शिरूर मठ निर्णय, ए आई आर 1954 एस सी 282) में निहित नहीं हो सकता है। अब्राहमिक मज़हब ऐसा हस्तक्षेप कभी सहन नहीं करते। जब तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जे जयललिता ने चर्च और मस्जिदों में ‘अन्नदानम’ या मुफ्त भोजन देने की कोशिश की तो अल्पसंख्यक बहुत स्पष्ट थे कि इस तरह के हस्तक्षेप को बर्दाश्त नहीं करेंगे,” श्री रमेश कहते हैं।
मंदिरों के संभाषण की पुनः प्राप्ति
श्री जे साईं दीपक, सुप्रीम कोर्ट के वकील और इंडिक कलेक्टिव के कानूनी संरक्षक, राज्य से हिंदू मंदिरों को पुनः प्राप्त करने के आंदोलन के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध हैं। उनके अनुसार, हिंदू मंदिरों का राज्य नियंत्रण “असंवैधानिक और भेदभावपूर्ण है।”
अपने ‘सेट इंडिया टेंपल्स फ्री’ भाषण में, श्री साईं दीपक कहते हैं, “हमारे मंदिर हमारे हाथों में नहीं हैं। यह एक तथ्य है। हिंदू मंदिरों को धर्म की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए बाध्य भारतीय राज्य ने ही हड़प लिया है…राज्य के हाथों में हिंदू मंदिरों को इतनी गहरी क्षति पहुंची है की आज हमारी परंपराएं और जीवनशैली ही विलुप्त होने की कगार पर हैं।”
साईं दीपक के अनुसार विडंबना यह है कि वास्तविक क्षति ब्रिटिश शासन के तहत नहीं, बल्कि स्वतंत्रता के बाद हुई। 1951 में, कर्नाटक के उदीपी में शिरूर मठ को मद्रास हिंदू धार्मिक एवं धर्मदान अधिनियम 1951 के तहत राज्य के लिए अधिसूचित किया गया था और मद्रास उच्च न्यायालय में कानूनी लड़ाई लड़ी गई थी। बाद में 1954 में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अधिनियम के कुछ केंद्रीय प्रावधानों को “असंवैधानिक और अवैध” करार दिया। परन्तु 1959 में, राज्य ने एक नया कानून पारित किया जिसमें न्यायलय द्वारा रद्द किये गए पहले के प्रावधानों में केवल हल्का फेर-बदल था, और आज भी यह कानून चलन में है।
श्री साईं दीपक यह भी बताते हैं कि कुछ छिट-पुट उदाहरणों को छोड़कर, 1959 से “हिंदू समाज के किसी भी व्यक्ति ने राज्य द्वारा अपने धार्मिक संस्थानों के अधिग्रहण को चुनौती देना उचित नहीं समझा, जब की यह उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है,” और 2012 में जा कर इस कानून को चुनौती दी गई। पूज्य श्री स्वामी दयानंद जी ने 2012 में तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और पुदुचेरी के हिंदू धार्मिक एवं धर्मदान अधिनियम को चुनौती दी। हालांकि सुप्रीम कोर्ट में यह याचिका अभी भी सुस्त है।
श्री दीपक कहते हैं, “ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि ऐसे हिंदू केंद्रित विधानों की उपस्थिति केवल दक्षिणी राज्यों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि बिहार, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा और महाराष्ट्र में भी लागू है, जिसमें हिंदू मंदिरों को नियंत्रित करने वाले कानून हैं।”
मंदिरों का राज्य नियंत्रण हिंदू समाज को नष्ट करता है और हिंदुओं को उनकी जड़ों से अलग कर देता है। इससे भ्रष्टाचार में भी वृद्धि हुई है। इसके अंतर्निहित भेदभावपूर्ण केंद्र-बिंदु ने एक धर्मनिरपेक्ष भारतीय राज्य की धारणा पर सवाल उठाया है, जो सभी धर्मों से समान दूरी बनाये रखने की बात करता है। इससे आजीविका का नुकसान भी हुआ है जो लोगों को हिंस्त्र धर्मांतरण के लिए भेद्य बनाता है, और मंदिर की अचल संपत्ति का राज्य तथा गैर-हिन्दू समूहों द्वारा नियंत्रण की सम्भावना को बढ़ावा देता है। श्री टी आर रमेश और श्री साई दीपक के अनुसार 1959 से आजतक केवल तमिलनाडु में ही 47,000 एकड़ मंदिर की भूमि खो गई है।
शायद धार्मिक मूल्यों से इस व्यवस्थित अलगाव का ही परिणाम है कोविड-19 महामारी से लड़ने के लिए मंदिर के सोने के मुद्रीकरण का हालिया मुद्दा – ऐसी चयनात्मक रणनीतियाँ केवल एक विशेष धर्म के धन पर निशाना साधती हैं!
मंदिर के सोने पर हक़दारी सोच रखने वाले तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादी और राजनेता यह भूल गए हैं की जब एक भक्त मंदिर में दक्षिणा देता है तो वह धन या संपत्ति देवता की हो जाती है। यह किसी एक संस्थान या व्यक्ति की नहीं रहती।
श्री रमेश पूर्ण रूप से मंदिर स्वर्ण के मुद्रीकरण का विरोध करते हैं। वह विश्लेषणात्मक सटीकता के साथ कहते हैं –
“अनुच्छेद 26 के तहत हर मंदिर केवल स्वामित्व रख सकता है या प्रशासन कर सकता है। वह पराया या विमुख नहीं कर सकता। उसे पराया (भक्तों को) करना भी नहीं चाहिए। प्राचीन सिक्कों और रत्नों के रूप में दान दिया हुआ सोना जो देवी-देवताओं के श्रृंगार के लिए या किसी अनुष्ठान के दौरान उपयोग में आता है, उसका मुद्रीकरण नहीं हो सकता और उसे किसी भी प्रकार छुआ नहीं जा सकता।
अगर किसी मंदिर के पास अन्य प्रकार से दान में मिले सोने के भंडार हैं तो वह उसे बुलियन में बदल सकते हैं और भारतीय रिजर्व बैंक के पास गोल्ड डिपॉजिट्स में जमा कर सकते हैं जहां जमा सोना सोने में ही ब्याज कमाता है। परन्तु यह सब मंदिरों के सच्चे ट्रस्टीयों द्वारा ही तय किया जाना चाहिए ना कि सरकारों द्वारा। राजनेता और धर्मनिरपेक्षतावादी इस तरह के सोने के विनियोग की मांग करते हैं क्योंकि केवल हिंदू और जैन मंदिरों में ही सोना है, वे धार्मिक संस्थानों से संबंधित अचल संपत्ति के बारे में कभी भी अपना मुंह नहीं खोलते क्योंकि चर्च और वक्फ के पास इस तरह की भूमि सम्पत्ति की बड़ी मात्रा है।”
कई शताब्दियों से हम हिंदू कुंभकरण की तरह, भ्रम और उदासीनता में लिप्त, सोए हुए हैं। मुझे केरल के लोगों द्वारा पश्चिमी घाट में साइलेंट वैली के जंगल से होकर बहने वाली नदी पर पनबिजली परियोजना के निर्माण को रोकने के लिए जो आंदोलन हुआ था, उसकी याद आती है। वह एक सहभागी आंदोलन था जो यह मानता था कि साइलेंट वैली को बचाना हर किसी की ज़िम्मेदारी है, केवल सक्रियतावादियों और शोधकर्ताओं की नहीं।
हमें अपने मंदिरों को राज्य नियंत्रण से पुनः प्राप्त करने के लिए हिंदू समाज में आम लोगों के ऐसे ही आंदोलन की आवश्यकता है। हमें एक समुदाय के रूप में जुड़ने की जरूरत है – हिंदू धार्मिक मूल्यों में गर्व की भावना जागृत करें और जो हमारा है उसे पुनः प्राप्त करें। यहाँ कोई अनिच्छुक पीड़ित नहीं है, उत्पीड़ना की भावना कमज़ोर करती है – व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से। हिंदू मंदिरों को पुनः प्राप्त करना हर हिंदू की जिम्मेदारी है। हर हिंदू आवाज मायने रखती है।
(रागिनी विवेक कुमार द्वारा द्वारा इस अंग्रेजी लेख का हिंदी अनुवाद)
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