हिन्दू लड़कियों को अपने मंगलसूत्र फेंकने का नारा लगवाने वाली फेमिनिस्ट हिजाब के समर्थन में उतर आईं। हालांकि इतने दिनों से शांत बैठी फेमिनिस्ट किसी क्रिया की प्रतीक्षा में थीं, जिससे वह प्रतिक्रिया दे सकें। दरअसल एक विशेष वर्ग है जो भारतीय जनता पार्टी की सरकार से हर प्रकार का लाभ भी उठाता है, हजारों और लाखों रूपए की फेलोशिप से लेकर जुगाड़ से नौकरियों से लेकर सरकारी मंचों पर वाहवाही भी पाता है और साथ ही प्रगतिशीलता का अर्थ हिन्दू धर्म को कोसना समझता है।
फेमिनिस्ट वर्ग का कहना था कि मुस्लिम महिलाओं से ही सुधार की आवाज आनी चाहिए, और राजनीति एवं हिन्दुओं को इसमें नहीं बोलना चाहिए। यहाँ तक बात ठीक लगती है, ठीक है हर समाज की महिलाओं को अपने आप आवाज़ उठानी चाहिए, परन्तु जो आज यह कह रही थीं, उनमें से कितने लोगों ने तसलीमा नसरीन के पक्ष में आवाज उठाई? कितनी महिलाओं ने उन सरकारों का विरोध किया, जिन्होनें तसलीमा नसरीन को अपने अपने राज्यों में प्रवेश नहीं करने दिया था? कितनी कथित फेमिनिस्ट लेखिकाओं ने यह कहा कि अमुक दल की सरकार पहले तसलीमा नसरीन की सुरक्षा कट्टरपंथी इस्लामिस्ट से सुरक्षित करे तो हम उसका सम्मान लेंगी या सरकारी मंच पर जाएँगी? कितनों ने भी नहीं!
आज वामपन्थी कथित फेमिनिस्ट जहाँ एक ओर इस कट्टरपंथी जिद्द के समक्ष नतमस्तक हो गई थीं, तो वहीं तसलीमा नसरीन, रूबिका लियाकत जैसी महिलाएं इन झूठी फेमिनिस्ट लेखिकाओं के समक्ष आईं, तसलीमा नसरीन ने लिखा कि
आप मुस्लिम महिलाओं के बुर्का और हिजाब पहनने, नमाज पढने और हज करने और कुछ पढ़ाई करने के अधिकारों के लिए लड़ते हैं, और मैं इसलिए लडती हूँ कि मुस्लिम महिलाओं के पास पढ़ाई करने का, आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने का और वैज्ञानिक सोच वाली मुक्त सोच का अधिकार हो, वह धर्म, पितृसत्ता और भेदभाव से मुक्त हों
और जिस लड़की की बहादुरी पर यह कथित फेमिनिस्ट बलिहारी हो रही हैं, उसके विषय में भी तसलीमा ने कहा कि उसकी बहादुरी और साहस को सुन्दर कहा जा सकता है, क्योंकि उसे वह शिक्षा से मिला, बुर्के से नहीं!
रुबिका लियाकत ने बहुत अच्छी बात कही, और मजे की बात यही है कि जब रूबिका लियाकत और तसलीमा जैसे स्वर उभर कर उसी समुदाय से आ रहे हैं, तो फेक फेमिनिज्म कहीं उसी बुर्के के अँधेरे में खो गया है, जिसमें वह मुस्लिम लड़कियों को धकेल रहा है।
रुबिका लियाकत ने लिखा
मैं हैरान हूँ इनके डबल स्टैंडर्ड से।।औरतों के हक़ की डफली बजाने का ढोंग करने वाली ये सारी ख़ालाएँ अपने पर्दे, हिजाब, बुर्का दुपट्टा सब पीछे छोड़ चुकी और आज लड़कियों को आगे लाने के बजाए पीछे ढकेल रही हैं।।solidarity स्वाँग रच रही है ताकि इनका एजेंडा चलता रहे।
रूबिका ने लिखा
“मत भूलना ये वही औरतें हैं जिन्होंने पहले शाह-बानो का साथ नहीं दिया…फिर तीन-तलाक़ पर दशकों मुस्लिम औरतों पर अत्याचार देखती रहीं…अब बच्चियों को हिजाब में बांधने का समर्थन कर रही हैं”
अम्बर जैदी ने भी लिखा कि
स्कूल हमेशा से एक तय यूनीफॉर्म के हिसाब से चलते आए है।। पता नहीं अब ये तमाशा क्यों?
स्कूल के बाहर जो मर्जी पहले वो आपका मसला है !
“यूनीफोर्म ज़रूरी है”
जो लोग घूँघट और बुर्के की बात कर रहे हैं, उन्हें भी रूबिका ने जबाव देकर कहा कि
मैं राजस्थान से आती हूँ वहाँ घूँघट की प्रथा एसी थी कि आधी चूनर घूँघट में ख़त्म हो जाती थी… लेकिन कभी किसी लड़की को घूँघट में स्कूल जाते नहीं देखा।। किसी परिवार को स्कूल कॉलेज प्रशासन से ज़िद करते नहीं देखा।। ज़माना आगे बढ़ा औरतों ने घूँघट कारना लगभग ख़त्म कर दिया लेकिन ½
लेकिन हम उल्टे ही चले जा रहे हैं।। ईमानदारी से अपने आस पास मुस्लिम बुज़ुर्ग नानी-दादी को देखिए बुर्का नहीं भारतीय लिबास पहने मिलेंगी ऊपर दुपट्टा या चादर पहनेंगी।। या तो साड़ी या फिर सलवार क़मीज़।। ये काले बुर्के नई पीढ़ी में इस कदर बढ़ कैसे गए?
वहीं खान अब्दुल गफ्फार खान की पोती यास्मिन निगार खान ने कहा स्कूलों में एक यूनीफोर्म कोड होना ही चाहिए, अगर आप खुद को स्कूल के भीतर किसी बुर्के या हिजाब से ढकेंगी तो पहचान की समस्या होगी।
यह नियम केवल स्कूल के लिए बने हैं, जिसका विरोध यह लडकियां कर रही थीं, जो अब पूरे देश में फ़ैल गया है, फ़ैल गया है या फैला दिया गया है, क्योंकि एकदम से ही कई राजनीतिक दल इसमें कूद पड़े हैं। सीएए का विरोध करने वाला और किसान आन्दोलन में अपनी “कुबौद्धिक” सेवाएं देने वाला पूरा का पूरा वर्ग इसमें कूद पड़ा है और यह मामला भी मुस्लिमों के अधिकारों के हनन के रूप में सामने लाया जा रहा है, जो सरासर झूठ है क्योंकि किसी ने भी उनके हिजाब पहनने के अधिकार पर प्रतिबन्ध नहीं लगाया है, बस स्कूल के कुछ ड्रेसकोड है, उन्हें भी इन लड़कियों को तो नहीं ही मानना है, और साथ ही उनका साथ देने वाले कथित फेमिनिस्ट और कुबुद्धिजीवी भी इस प्रकरण में पूरी तरह से नंगे हो गए हैं।
वह न ही शाहबानों के समय शाहबानो के साथ खड़े हुए थे, और न ही तीन तलाक में तलाक पीड़िताओं के साथ, न ही वह हलाला के खिलाफ बोल रहे हैं, यदि उनका कहना यह है कि वह उन महिलाओं का साथ देंगे जो अपने मजहब की कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाएंगी तो फिर वह उर्फी जावेद के साथ क्यों नहीं है? जिसे हर समय उसके छोटे छोटे कपड़ों के कारण कट्टरपंथी इस्लामिस्ट परेशान करते हैं?
वह सारा अली खान के साथ क्यों नहीं दिखाई देते, जब वह मंदिर की तस्वीरें पोस्ट किए जाने पर इस्लामी कट्टरपंथियों का शिकार होती है? वह उन तमाम अफगानी लड़कियों के पक्ष में खडी क्यों नहीं हुईं, जिन्हें तालिबान ने अब शांत करा दिया है।
दरअसल आज हिन्दी की फेमिनिस्ट लेखिकाओं का असली कट्टरपंथी इस्लामी चेहरा सामने आया, जिसमें बजबजाती घृणा थी, और वह घृणा थी हिन्दुओं के प्रति, वह घृणा थी केसरिया के प्रति, वह घृणा थी प्रभु श्री राम के प्रति!
वह न ही रूबिका लियाकत और तसलीमा नसरीन जैसे आजाद ख्याल लड़कियों के पक्ष में खड़ी होती हैं और न ही उर्फ्री जावेद के पक्ष में, जो यह कहती है कि उसे इस्लामी कट्टरपंथ से घुटन होती है, जो यह कहती है कि उसके कपड़ों का निर्धारण वह खुद करेगी? हिन्दी का फेमिनिज्म इस्लामी कट्टरपंथ की जूनियर ब्रांच बनकर रह गया है!