दिल्ली प्रेस की सरिता पत्रिका जहाँ एक ओर कथित अंधविश्वासों से लड़ने का दावा करते हुए केवल हिन्दुओ की ही आस्था का उपहास उड़ाती है, तो वहीं चम्पक भी अब इसी पंक्ति में लग गई है। हालांकि चम्पक ने वर्ष 2019 में देश के उस मामले पर बच्चों के मस्तिष्क में विष भरने का कुकृत्य किया था, जो हमारे देश की सुरक्षा से ही जुड़ा हुआ नहीं था, बल्कि एक ऐसा मामला था जिस पर न जाने कब से निर्णय लिया जाना था।
वह था कश्मीर से धारा 370 के हटाए जाने का निर्णय। वर्ष 2019 में अक्टूबर प्रथम के अंक का कवर फोटो भी रोते हुए पर्वतों का था। हम सभी जानते हैं कि बच्चों का मस्तिष्क कितना कोमल होता है, बालपन पर पड़ी छाप को कभी भी नहीं भुलाया जा सकता है। आज का दौर है बच्चों को उस मजहबी जिहाद के विषय में स्पष्ट बताने का जो उनके लिए समझना अनिवार्य है। पाकिस्तान और बांग्लादेश आदि में हिन्दुओं के साथ क्या हो रहा है, यह सब बताने का। कश्मीर में कश्मीरी हिन्दुओं के साथ क्या हुआ, वह तब समझ पाएंगे जब उन्हें यह बताया जाएगा कि कश्मीर में वास्तव में क्या हो रहा है।

परन्तु उनके कोमल मस्तिष्क में तो चम्पक जैसी पत्रिकाएँ जहर भर रही हैं। उन्होंने उस अंक में हसन पर एक कहानी लिखी थी। जिसमें कश्मीर में कर्फ्यू की कहानी थी और कैसे शिकारा नहीं चल पा रहे हैं, कैसे पर्यटक नहीं आ पा रहे हैं। कैसे उसे भूखा रहना पड़ रहा है! परन्तु यह नहीं बताते कि पर्यटक आखिर आ क्यों नहीं रहे हैं? चम्पक ने यह नहीं बच्चों को बताया कि हसन के अब्बू का तो केवल शिकारा ही खाली है, कश्मीरी हिन्दुओं के तो प्राण ही चले गए हैं।
मगर उस समय क्या लिखा था “कश्मीर के विशेष दर्जे को निरस्त किए जाने के बाद घाटी में स्थिति ठीक नहीं है। हजारों सैनिकों और सेना की बटालियनों को कश्मीर भेजा गया है और जगह-जगह कर्फ्यू लगा हुआ है। यहाँ तक कि टेलीफोन लाइनों और इंटरनेट सेवाओं को भी निलंबित कर दिया गया है।“

अर्थात वहां पर बहुत ही अधिक अत्याचार हो रहा है। परन्तु इस बात का कहीं उल्लेख नहीं था कि उससे पहले उन लोगों ने क्या किया था? उससे पहले उन लोगों ने कहीं किसी को जबरन बाहर तो नहीं निकाला? कश्मीर में कभी कश्मीरी हिन्दू भी हुआ करते थे, वह कहाँ है? चम्पक मौन है! चम्पक ही क्या हर प्रोपोगंडा चलाने वाला मौन ही है।
इस कहानी में यह पूरा दुष्प्रचार कर दिया है कि दरअसल बच्चे तो स्कूल जाना और खेलना चाहते हैं, परन्तु पुलिस और भारत की हिन्दू सेना नहीं चाहती। आतंकवाद, अलगाववाद किसी का कोई भी उल्लेख नहीं है!
न ही सेना और पुलिस पर पत्थरबाजी का उल्लेख है!
बच्चों के मस्तिष्क में देश के प्रति विष घोलने के बाद अब चम्पक ने विष घोला है पंडितों के प्रति! फरवरी 2022 के द्वितीय अंक में चीकू कार्टून में पहले तो ब्राह्मण के रूप में सुअर को दिखाया है। और उसके बाद पंडित को पूरी तरह से कामचोर और पिछड़ा बता दिया है। इसमें चीकू अपने दोस्त से बात कर रहा है और फिर पंडित जी आते हैं जो बच्चों से कहते हैं कि वह उनके जैसे बेरोजगार नहीं हैं, तो चीकू कहता है कि “आप जाइए पंडित जी, जितना ज्यादा आप काम करोगे, उतना ही अधिक इनाम पाओगे?”

अर्थात यह कह रहा है कि पंडित इनाम के लिए काम करते हैं। इस दुनिया में हर कोई अपने परिश्रम से आजीविका कमाता है, यदि पंडित अपने ज्ञान से अर्जन करते हैं, तो किसी को क्या समस्या है? परन्तु चर्च में हो रहे ननों के साथ होने वाले अत्याचारों पर चुप रहने वाली पत्रिकाएँ पंडितों का अपमान इसी प्रकार करती हैं।
क्या आज तक चम्पक ने यह बात बच्चों को बताई है कि चर्च में लाखों बच्चों का यौन शोषण होता है? मदरसों में यौन शोषण के मामले आते हैं। क्या कभी किसी पादरी को सुअर के रूप में चम्पक दिखा सकती है? शायद नहीं! मगर हिन्दुओं के साथ चम्पक यह करेगी।
उसके बाद वह पंडित जी फिर से वापस आते हैं और कहते हैं कि वह कुछ सामान भूल गए थे। और फिर गधा उनसे कुछ कहता है तो उसे वह निठल्ला कहते हैं। उसके बाद चीकू कहता है कि पंडित जी सोचते हैं कि वही सिर्फ काम करते हैं, और बाकी हम बेरोजगार हैं।
उसके बाद फिर से कुछ देर बाद पंडित जी आते हैं तो लोग कहते हैं कि अब क्या भूल गए पंडित जी, तो वह कहते हैं कि अब मुहूर्त निकल गया। तो चीकू और उसके दोस्त कहते हैं कि हाहाहा, ऐसे ही लगे रहो पंडित जी, एक न एक दिन सफल हो जाओगे!

आखिर क्यों इस प्रकार से एक धर्म विशेष के प्रति अपमान बच्चों के दिलों में भरा जा रहा है? उनके मस्तिष्क को क्यों प्रदूषित किया जा रहा है? क्या कथित क्रान्ति का अर्थ केवल हिन्दू धर्म और वह भी पंडितों पर अपमानजनक टिप्पणी करना है?
हर कार्य करने का मुहूर्त या समय होता है। क्या सूर्य कभी भी निकल सकते हैं? क्या परीक्षाओं का आयोजन कभी भी किया जा सकता है? या फिर सरिता या चम्पक कभी बिना एक निश्चित समय से पहले प्रकशित हो सकती हैं? वह भी तो पाक्षिक हैं, क्या कभी दस दिन और कभी बीस दिनों में निकल सकती हैं? नहीं! तो क्या उनका उपहास उड़ाया जाए?
प्रश्न यही है कि मनोरंजन के नाम पर एक वर्ग विशेष के प्रति, मनोरंजन के नाम पर देश के प्रति विष भरने का अधिकार बाल पत्रिकाओं को किसने और क्यों दिया? और यह विष हमारे बच्चों के बालमन को कितना दूषित कर रहा है? क्या एक वर्ग के प्रति घृणा लेकर बच्चे कभी स्वस्थ समाज का निर्माण कर पाएंगे? बच्चों को एजेंडे के टूल बनाना कब बंद करेंगी पत्रिकाएँ?
क्या हमारे बच्चे मात्र हर किसी के लिए किसी न किसी प्रकार से टूलकिट का हिस्सा हैं? प्रश्न तो है ही!
दिल्ली प्रेस वही प्रकाशक है जो ‘थी कारवां’ जैसी घोर हिन्दू-द्वेषी मैगज़ीन छापता है, इन लीगों के विरुद्ध कठोर कानूनी कार्यवाही होनी चाहिए