आलिया भट्ट की फिल्म डार्लिंग को दर्शकों ने बेपनाह प्यार दिया है। इस फिल्म में आलिया भट्ट और शेफाली शाह ने बेटी और माँ के रूप में उस पीड़ा को दिखाया है, जिस पीड़ा से आज भारत की कई महिलाएं परेशान हैं। उनपर भी कई प्रकार से कहा जा सकता है कि घरेलू हिंसा हो रही है, मगर इस महिलावादी फिल्म में सारा खेल हो गया है। यह खेल ऐसा था कि जिसे कोई समझ ही नहीं पाया, यह खेल ऐसा था कि जिसने हिन्दुओं एवं व्यवस्था को ही उस हिंसा का दोषी ठहरा दिया, जो बदरू अर्थात कहानी में आलिया भट्ट पर हो रही है।
पहले जानते हैं कि कहानी क्या है फिल्म की!
फिल्म आरम्भ होती है आलिया भट्ट अर्थात बदरुन्निसा के विजय वर्मा अर्थात हमजा के इंतज़ार के साथ। वह इंतजार कर रही है हमजा का और हमजा आता है, अपनी बदरू को यह खुशखबरी देता है कि उसे नौकरी मिल गयी है और वह भी सरकारी! अब वह लोग शादी करेंगे! अर्थात कहीं न कहीं यह दिखाया है कि उस समय हमजा शायद ठीक ठाक व्यक्ति है, शायद शराब नहीं पीता है और कहीं न कहीं अपनी बदरू से प्यार बहुत करता है।
उसके बाद कहानी अचानक से ही तीन साल बाद आ जाती है। और फिर दर्शकों के सामने आता है कि बदरू पर हमजा बहुत नाइंसाफी करता है। शायद यह कहानी लगभग हर उस औरत की है जो बदरू वाले समुदाय की है और कुछ उन औरतों की भी जो बदरू के समुदाय की नहीं हैं, तो इसे लोगों ने खूब प्यार दिया, औरतें इस पीड़ा को अपनी पीड़ा मानने लगीं।
मगर सारा खेल शायद इन्हीं तीन सालों में था।
यह कहानी जिस चॉल में आगे बढ़ती है, वह भी मिश्रित है, माने कोई हिन्दू मुस्लिम वाला पंगा उधर नहीं है। लोग बदरू को अपनी ही मानते हैं और उसके दर्द को समझते हैं। यही कारण था कि जब बदरू ने वापस हमजा के साथ हिंसा करनी शुरू की, तो तमाम तरह के सोशल मीडिया बॉयकाट की अपील के बाद भी लोगों ने उसे देखना और सराहना बंद नहीं किया। यह कोई टिपिकल मुस्लिम फिल्म नहीं थी, बल्कि यह साझी थी।
परन्तु फिर भी, कहीं न कहीं यह प्रश्न तो उठता ही है कि जब बेकार से बेकार फ़िल्में भी थिएटर में रिलीज हो रही थीं, तो ऐसी फिल्म को, जिसे आम औरतों की सहानुभूति मिल सकती थी, उसे ओटीटी पर रिलीज किया गया? आखिर क्या कारण था? क्या निर्माता गौरी खान, आलिया भट्ट एवं गौरव वर्मा को यह डर था कि जो एजेंडा वह ओटीटी पर परोस सकते हैं, वह बड़ी स्क्रीन पर अधिक स्पष्ट दिखेगा? क्या वास्तव में उन्हें डर था?
एजेंडा क्या है और कहाँ?
एजेंडा बहुत महीन है। हम सभी बदरू का दर्द देखते हैं कि वह हमजा माने अपने शौहर के हाथों पिटती है। मगर जब हमजा उसके सामने रहता है, निर्देशक जसमीत के रीन और लेखक परवेज़ शेख और जसमीत के रीन ने तभी तक हमजा को खलनायक दिखाया है। जैसे ही वह अपनी बीवी से परे होकर आम लोगों अर्थात हिन्दुओं के बीच अर्थात समाज में आता है, वह बेचारा हो जाता है। बेचारा माने उस पर अत्याचार होते हैं।
जैसे वह रेलवे में टीसी है, मगर फिल्म में दिखाया है कि उसका बॉस उससे टॉयलेट साफ़ कराता है, अर्थात उसके मन में गुस्सा भरता है कि नौकरी है टीसी की, मगर वह काम कर रहा है हिन्दू व्यवस्था में टॉयलेट क्लीनर का! जबकि रेलवे में ऐसा आज तक शायद ही देखा गया हो कि जिसका जो काम है उससे इतर कोई काम करे! अर्थात इस फिल्म के माध्यम से यह दिखाने का प्रयास किया गया कि हमजा दरअसल अच्छा ही था, मगर चूंकि उसके साथ भेदभाव हो रहा है, इसलिए वह गुस्से में रहता है और अपना गुस्सा वह अपनी बीवी पर निकालता है!
फिल्म में यह भी दिखाया है कि हमजा के शेष सहकर्मी वह एक्स्ट्रा काम नहीं करते हैं, जो हमजा करता है, जैसे टॉयलेट साफ़ करना, आम काटना, प्लेट साफ़ करना आदि!
उसके बाद एक दृश्य है जिसमें पुलिस इन्स्पेक्टर ख्यालों और ख़्यालों में अंतर करते हुए जैसे यह अहसास दिलाता है कि उनकी भाषा अलग है और हिन्दी अलग! जबकि उर्दू को हिन्दी से अलग किसने किया है, यह हमने बार बार आपको अपने लेखों में बताने का प्रयास किया है!
इन्स्पेक्टर कहता है कि “नीचे जो मस्सा लगता है!” इस पर बदरू कहती है कि उसे मस्सा नहीं नुक्ता बोलते हैं!
अर्थात उर्दू भाषा की भी राजनीति खेल दी गयी है और कहीं न कहीं यह स्थापित करने का प्रयास किया है कि पुलिस प्रशासन भी भाषा के आधार पर भेदभाव करता है!
अंत में जब वह दृश्य है कि जब हमजा मारा गया है और पुलिस स्टेशन में शम्सू अर्थात बदरू की अम्मी जो टिफिन भेजती है, उसमें मटन होता है तो पुलिस इंस्पेक्टर पूछता है कि “लंच के डिब्बे में क्या है?” उसे उत्तर मिलता है कि मटन! तो वह कहता है कि “जाओ, पाव लेकर आओ!” अर्थात इसमें लेखक और निर्देशक कहीं न कहीं यह दिखा रहे हैं कि पुलिस वालों को यह अविश्वास है कि कहीं उन्होंने मटन के बजाय और कुछ न भेज दिया हो!
इतना ही नहीं, जनसँख्या नियंत्रण क़ानून जो प्रस्तावित है और जिसे लेकर हिन्दू समाज मांग कर रहा है, इस पर भी व्यंग्यात्मक टिप्पणी की गयी है! एवं हमजा अपने बॉस से पूछता है कि “सर आपके कितने बच्चे हैं!” जब वह कहता है कि जनसँख्या बहुत बड़ी समस्या है!
हिन्दू मुस्लिम ही करना था तो दूसरी फिल्म बनाई जा सकती थी
यह भी कहा जा सकता है कि यदि इन्हीं सूक्ष्म नैरेटिव को लेकर फिल्म बनानी थी तो उसमें घरेलू हिंसा का एंगल क्यों डालना था? क्यों यह दिखाना कि बदरू को हमजा पीटता है? क्यों यह दिखाना कि वह पिटती है? हमजा को जब कैदी बना लिया जाता है तो वह जुल्फी, जो बदरू की अम्मी अर्थात शम्सु को क्यूट मानता है, से कहता है कि वह टॉयलेट साफ़ करता है और शेष काम करता है!
इधर पुलिस भी उन लोगों पर संदेह करती है,
कुल मिलाकर घरेलू हिंसा और मुस्लिम महिलाओं की घरेलू कहानी में भी वही एजेंडा बहुत ही परिष्कृत तरीके से डाल दिया गया है, यही कहा जा सकता है कि निर्माता गौरी खान, आलिया भट्ट एवं गौरव वर्मा और लेखक परवेज़ शेख और जसमीत के रीन ने औरतों के दर्द में एजेंडा घोलकर पिला दिया और लोगों ने कहा “वाह-वाह!”