तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइना मित्रा ने संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद देते हुए कई प्रकार का रोष व्यक्त किया। उनके रोष में सत्य कितना था और झूठ कितना था, वह “ऑल्टरिंग हिस्ट्री” शब्द सुनकर ही पता चल जाता है। प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि क्या अभी इतिहास आल्टर हो रहा है, या हमें अब तक इतिहास आल्टर या टेलर मेड ही पढ़ाया जा रहा था। यह कैसे हुआ कि हमारे इतिहास रामायण और महाभारत को मिथकों में पढाया जाता रहा और इतिहास का आरम्भ ही चन्द्रगुप्त मौर्य से बताया जाता है। खैर, इस पर बाद में फिर कभी, आज महुआ मोइत्रा के उर्दू प्रेम के बहाने से कथित लिब्रल्स की हिन्दुओं और लोक के प्रति घृणा पर बात करेंगे।
महुआ मोइना मित्रा ने कहा कि इस सरकार ने जम्मू और कश्मीर से “उसकी उर्दू” भाषा को हिन्दी से बदल दिया गया।
यह सभी जानते हैं कि उर्दू भाषा का जन्म इस्लाम के आगमन के साथ ही हुआ। और उर्दू जो वर्तमान की उर्दू है, उससे कहीं अलग उर्दू हुआ करती थी। उर्दू साहित्य के इतिहास में उर्दू को ऐसी भाषा बताया गया है, जो बाहर से आए हुए आक्रमणकारियों और भारत के लोगों के बीच एक संवाद के माध्यम में विकसित हुई, जिसमें ब्रज, अवध आदि प्रान्तों के प्रचलित शब्दों को भी सम्मिलित किया गया था। परन्तु धीरे धीरे उसमें “परिष्कृत” या “शुद्धिकरण” के नाम पर अरबी और फारसी के ऐसे शब्दों का प्रयोग बहुलता से होने लगा जिससे उसमें “इस्लामी श्रेष्ठता” का बोध आए।
और फिर उसमें धीरे धीरे उसी प्रवृत्ति के अनुसार ही रचनाएं होने लगीं और उर्दू साहित्य का इतिहास नामक पुस्तक में लिखा है कि जैसे जैसे उर्दू मुस्लिमों की भाषा बनती गयी वैसे वैसे उसके कवि, फिर चाहे वह हिन्दू ही क्यों न हों, मुस्लिम धर्म के प्रभाव में आ गए हैं, उनके लिए इस्लाम इतना महत्वपूर्ण हो गया है कि वह देश प्रेम को इस्लाम के लिए घातक समझते हैं। उनके लिए उनकी नबी का बतलाया मार्ग ही सत्य है और वह केवल अपने खुदा के साथ हैं। जिस भूमि में मुस्लिमों के सिवा अन्य धर्म वाले भी बसते हों या केवल अन्य धर्म वाले ही हों तो वह दारुल हर्ब कहलाता हैः, और उसे वह नापाक मानते हैं, सौदा साहब ने कहा था
“गर हो कशेशे शाहे खुरासान तो सौदा,
सिजदा न करूँ, मैं हिन्द की नापाक जमीं पर!”


इतना ही नहीं मोइना मित्रा जब यह कहती हैं कि उर्दू को जम्मू और कश्मीर की अधिकारिक भाषा से हटा दिया है, तो प्रश्न यह भी उठता है कि आखिर उर्दू कब बनी थी उसकी अधिकारिक भाषा और उर्दू का अपना क्या चरित्र है? और क्या वास्तव में नरेंद्र मोदी की भाजपा सरकार ने उर्दू को हटाने का कार्य किया है? सितम्बर 2020 में जम्मू और कश्मीर आधिकारिक भाषा अधिनियम पारित किया गया। जिसमें कश्मीरी, डोगरी और हिन्दी को जम्मू और कश्मीर के लिए उर्दू और अंग्रेजी के साथ अन्य आधिकारिक भाषाओं के रूप में जोड़ा गया था।
मोइना मित्रा को शायद डोगरी और कश्मीरी भाषा का पता नहीं है, उन्हें यह नहीं पता है कि जो समुदाय डोगरी बोलता था, उस पर भी उर्दू और अंग्रेजी ही शासन करती थी। उर्दू का परिवर्तित मजहबी चरित्र तो पुस्तकों में प्रमाणों के साथ उपलब्ध है ही, साथ ही उसका वर्चस्व डोगरी पर भी था, जो डोगरी भाषा जम्मू और कश्मीर के 2.6 मिलियन लोगों द्वारा बोली जाती है। britannica.com के अनुसार डोगरी का उद्भव ध्वनिविज्ञान के अनुसार संस्कृत से है और वेदों के काल से है। उसमें पुत्र शब्द का उदाहरण देते हुए कहा है कि संस्कृत में पुत्र है, फिर पूत शब्द भी प्रचलन में आया और फिर डोगरी में पुत्तर है।
और विडंबना यही है कि संस्कृत निकली यह भाषा, और वर्तमान में अर्थात वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार मात्र 0.16 प्रतिशत लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा उर्दू द्वारा शासित हो रही थी। गौरतलब है कि जम्मू और कश्मीर के 74% लोग कश्मीरी और डोगरी भाषा बोलते हैं। वहीं वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार जम्मू और कश्मीर में 2.3 प्रतिशत लोग हिन्दी बोलते हैं।
इसलिए उर्दू पर हिन्दी थोपने के सारे आरोप झूठे हैं। फिर उर्दू सभी मुस्लिम बहुल प्रदेशों की भाषा है, यह भ्रम कैसे उत्पन्न होता है? इस विषय में भारत में पसमांदा मुस्लिमों के आन्दोलन की मुख्य आवाज डॉ फैयाज़ कहते हैं कि दरअसल उर्दू मूलत: अशराफ मुस्लिमों की भाषा रही है, जिसे वह अपनी राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि के लिए प्रयोग करता रहता है।
मोइना मित्रा को यह भी नहीं पता होगा कि पाकिस्तान, जो मुस्लिम देश है और जहाँ की सरकारी भाषा उर्दू है, वहां भी उर्दू मात्र 7% लोगों की भाषा है और किसी भी क्षेत्र विशेष की भाषा नहीं है, और जब पाकिस्तान में उच्चतम न्यायालय ने आदेश दिया था कि उर्दू को आधिकारिक भाषा बनाया जाए तो वहां पर भी यह कहा गया था कि यह अलगाववाद की भाषा है। बीबीसी के अनुसार लोगों ने आरोप लगाया था कि यह विभाजन करने वाली भाषा है।
इसमें लिखा था
“कई लोगों का मानना है कि पाकिस्तान में अलगाववाद के बीज तभी पड़ गए थे, जब राष्ट्र के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना ने 1948 में घोषणा की थी कि उर्दू पाकिस्तान की सरकारी भाषा होगी, हालाँकि पूर्वी पाकिस्तान बंगाली को अपनी प्रांतीय भाषा के रूप में इस्तेमाल कर सकता है।”
वहीं भारत में डॉ फैयाज़ इस बात को कई तर्कों से प्रमाणित करते हैं कि उर्दू दरअसल एक समय विशेष के बाद अशराफ के वर्चस्वकी भाषा बनकर रह गयी है। वह लिखते हैं
अशराफ ने कैसे पसमांदा के ज़ेहन (मन-मस्तिष्क) में उर्दू को पेवस्त किया इसकी बानगी इस उद्धरण से समझी जा सकती है
“एक बुजुर्ग ने सपने में अल्लाह ता’अला को उर्दू बोलते हुए देखा, उन्होंने पूछा,” या अल्लाह आपने उर्दू कैसे सीखी? आप तो सुरयानी, इब्रानी और अरबी बोलते हैं। अल्लाह ने कहा, “मैंने यह भाषा शाह रफीउद्दीन, शाह अब्दुल क़ादिर, थानवी, देवबन्दी, मिर्ज़ा हैरत, डिप्टी नज़ीर से बात-चीत के दौरान सीखी।” (1। पेज 61, मबला-ई-वहाबियत को गुरेज़ 2। पेज 198, इस्लामिक रिवाइवल इन ब्रिटिश इंडिया: देवबन्द 1860-1900, बी०डी० मेटकाफ)
वह कई शायरों के शेर उद्घृत करते हुए यह साबित करने का प्रयास करते हैं कि उर्दू में लोक को दबाने की कैसी प्रवृत्ति है, मीर तकी मीर का शेर वह लिखते हैं
“नुक़्त-ए-पर्दाज़ी से इज़लफों को क्या
शेर से बज्जाजो, नद् दाफों को क्या”
नुक़्त-ए-पर्दाज़ी=किसी पॉइंट की आलोचना
इज़लाफ़ो=जिल्फ़ का बहुबचन, इज़लाफ का बहुबचन। अरबी में इसे जमा-उल-जमा (बहुबचन का बहुबचन) कहते हैं।
जिल्फ़= नीच, असभ्य। इस्लामी फिक़्ह (विधि) में अज़लाफ़ कुछ ख़ास जातियों को कहते हैं। भारत सरकार के ओबीसी और एसटी की लिस्ट में ज़्यादातर अज़लाफ जातियां हैं।
बज्जाज= कपड़ा बेचने वाले
नाद् दाफ़ = रूई धुन ने वाले, धुनिया मंसूरी
अर्थात:-
मीर तक़ी मीर कहते हैं कि साहित्य (अदब) की आलोचना करना सिर्फ अशराफ* लोगों का काम है। उसे नीच और असभ्य लोग क्या जानें, शेर को समझना बज्जाज और धुनिओ के बस का नहीं है।
* शरीफ{बड़ा} का बहुबचन, मुस्लिम उच्च वर्ग
“पानी पीना पड़ा है पाइप का
हर्फ़ पढ़ना पड़ा है टाइप का
पेट चलता है आँख आई है
शाह एडवर्ड की दुहाई है”
—अकबर इलाहाबादी
पृष्ठभूमि:
ज़मींदारों के यहाँ पानी भरने वाले हुआ करते थे जो पानी कुआँ से लाते थे। और उन्हें पानी की बहुतायत थी लेकिन सब के साथ ऐसा नहीं था। कुआँ भी आम तौर से पसमांदा (पिछड़े, दलित और आदिवासी) चाहे वो किसी धर्म के मानने वाले रहे हों, के पहुँच से बाहर हुआ करता था कुछ के लिए तो बिलकुल वर्जित था। और पसमांदा को पानी उनके ज़रूरत से बहुत कम प्राप्त था उस पर ताना ये कि “बहुत गंदे रहते हैं” लेकिन जब अंग्रेज़ों ने पानी को आम लोगों के लिए पाइप के ज़रिये पहुँचाने का इंतेज़ाम किया तो पसमांदा को थोड़ी बहुत सहूलत हो गयी जिसका विरोध अकबर इलाहाबादी ने अपने चिर परिचित व्यंगात्मक अंदाज़ में यूँ बयान किया। कुछ यही किस्सा छापे खाने और टाइप मशीन का भी था।
अर्थात:
पाइप के पानी पीने से पेट ख़राब हो रहा है और टाइप की लिखावट पढ़ने से आँख ख़राब हो रहा है ऐ राजा एडवर्ड आप की दुहाई देता हूँ कि आप इस से हमें छुटकारा दें।
हिन्दी का विरोध न ही अस्वाभाविक है और न ही राजनीति से परे
यह संयोग नहीं है कि राहुल गांधी के अंग्रेजी में भाषण देने के बाद, शशि थरूर द्वारा ज्योतिरादित्य सिंधिया को हिन्दी में उत्तर देने को अपमान बताया गया है और मोइना मित्रा को उर्दू को लेकर हिन्दी पर झूठ बोला गया है। प्रश्न यही उठता है कि जिस भाषा पर स्वयं ही यह आरोप लगते रहे हैं कि वह अपने ही लोगों के प्रति एक दुराग्रह पूर्ण व्यवहार रखती है और वह मात्र मुस्लिमों के एक ऐसे कथित कुलीन वर्ग की भाषा होने का दावा करती है, जो कुलीन वर्ग अपने ही लोगों के प्रति सहज नहीं है, उन्हें कई नामों से बुलाता है, तो ऐसे में मोइना मित्रा का उर्दू के विषय में झूठ बोलना क्या प्रमाणित करता है?
उर्दू में इमाम बख्श नासिख ने अपने बुजुर्गों की परम्परा को छोड़कर उर्दू में अरबी और फारसी शब्दों और वाक्य विन्यासों की बहुतायत कर दी थी और हिन्दी के मधुर शब्दों को हटा दिया था।

अत: कहा जा सकता है कि उर्दू को भारत के लोक से अलग करने की परम्परा को परिष्करण का नाम दिया गया एवं कहीं न कहीं बाहरी श्रेष्ठता को भारत के लोक पर थोपने की प्रक्रिया भाषा के माध्यम से आरंभ हुई, और उसमें वह सभी नाम भुला दिए गए जिन्होनें इस भाषा को आगे लाने में योगदान दिया था।
फिर भी उर्दू को भारत की भाषा माना जाता है क्योंकि कहीं न कहीं अभी भी लोग इसे अपनी भाषा मानते हैं, परन्तु जब उर्दू साहित्य के इतिहास को पढ़ते हैं तो यह भी देखते हैं कि कैसे एक खास विचार का इस पर कब्जा होता चला गया, और इसके साहित्य पर इस्लाम का कब्जा होता गया, इस्लामी अवधारणाएं अपना अधिकार बनाती गईं।
परन्तु उर्दू के कंधे पर रखकर बंदूक क्यों मोइना मित्रा ने चलाई यह तो समय के साथ स्पष्ट होगा, फिर भी यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि जैसे इस सत्र में भाषा और वह भी हिन्दी भाषा पर बिना कारण, बिना तथ्यों के आक्रमण किया जा रहा है, वह पूरा भारत देख तो रहा ही है, और साथ में पूछ रहा है कि “पार्टनर आपकी पॉलिटिक्स क्या है?”
क्या यह भाषा के स्तर पर विभाजनकारी राजनीति का पुन: आरम्भ है? या अब विपक्ष के पास भाषा का कन्धा है, जिस पर रखकर वह समाज को विभाजित करने का और अपनी राजनीति चमकाने का विचार रखे हुए हैं?