जब भी कभी हिन्दू धर्म की बुराई की बात आती है तो बार बार यही कहा जाता है कि यह हिन्दू धर्म था, जिसमें उंच नीच थी, भेदभाव होता है, एक जाति के व्यक्ति का छुआ कोई नहीं खाता आदि आदि! परन्तु उस चक्कर में समाजशास्त्री मुस्लिम समाज का अध्ययन नहीं करते जो पूरी तरह से सैय्य्दवाद से भरा हुआ है। यह भाव इनमे इतना अधिक है कि कथित प्रगतिशील मुस्लिम लेखक और लेखिकाएँ भी इस इस सैय्यदवाद से अछूते नहीं है।
सैयद स्वयं को पैगम्बर के परिवार के रक्तसंबंधी मानते हैं।
उर्दू की एक अत्यंत प्रगतिशील लेखिका हुई है रजिया सज्जाद जहीर! कहने को इन्होने बहुत कहानियां लिखी हैं, परन्तु उन्होंने विभाजन के लिए मात्र सियासत को उत्तरदायी ठहराया है, अपने उस मजहब को नहीं, जिसने हिन्दुओं के साथ रहने से इंकार कर दिया था। नमक नामक कहानी जो हमारे बच्चों को पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती है, उसमें सैय्यद की महिमा का बखान करते हुए वह लिखती हैं कि सैयद होकर वादा जैसे तोड़ सकते हैं!
इस कहानी में उन्होंने वतन, देश, मुल्क, सीमाओं पर बात की है! इनके नाम से स्पष्ट है कि इन्होनें कारणों पर बात नहीं की होगी कि आखिर पाकिस्तान क्यों बना? क्यों बांग्लादेश बना? बस यही बात है कि लाहौर जैसा कोई शहर नहीं! इसमें एक पंक्ति सारी प्रगतिशीलता की पोल खोलती है। वह श्रेष्ठता ग्रंथि को प्रदर्शित करती है! देखियेगा, और यह हमारे बच्चों को कक्षा बारह में पढ़ाई जाती है, बच्चा सैयद के विषय में पढ़ेगा कि वह वचन के पक्के होते हैं, और विभाजन के लिए कोई जिम्मेदार था ही नहीं!
जो हुआ, वह सहज हुआ, सैयदों ने जो वादा कर दिया, सो कर दिया।
यह हमारे बच्चे पढ़ते हैं कि सैयद तो वादा निभाने वाले होते हैं आदि आदि! परन्तु क्या यह भाव अभी से है? क्या यह भारतीयों के संपर्क में आने से आया? और इनका व्यवहार उन मुस्लिमों के प्रति कैसा होता है, जो किसी न किसी कारणवश इस्लाम में चले गए थे। क्या उन्हें सम्मान मिला? क्या उन्हें समाज में सम्मिलित किया गया?
और क्या यह इतिहास में भी था?
इसका वर्णन अकबर में राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखे गए तथ्यों से प्राप्त होता है:
अरब आदमी नहीं, अरब खून के महत्व को जरूर माना जाता था,”
फिर वह लिखते हैं
“अकबर के समय तक शेख, सैय्यद, मुग़ल, पठान का भेद गैर मुल्की मुसलमानों में स्थापित हो चुका था। शेख के महत्व को हम अब इसलिए नहीं समझ पाते क्योंकि अब वह टके सेर है, वैसे ही जैसे खान। तुर्कों और मंगोलों में खान राजा को कहते हैं। 1920 ई तक बुख़ारा में सिवाय वहां के बादशाह के कोई अपने नाम के आगे खान नहीं लगा सकता था। युवराज भी तब तक अपने नाम के आगे खान नहीं जोड़ सकता था, जब तक कि वह तख़्त पर न बैठ जाता।”
फिर वह अकबर के समय इस्लाम में उसी मजहब में व्याप्त वर्ग भेद के विषय में लिखते हैं
“शेख सबसे श्रेष्ठ माने जाते थे! शेख का अर्थ हुआ गुरु या सत पुरुष।——————– उनके बाद पैगम्बर के अपने वंश और रक्त से संबंधी होने से सैय्यदों का नंबर आता था। मध्य एशिया में उन्हें खोजा कहा जाता था। मुग़ल पहले तुर्क कहाए जाते थे।”
पसमांदा आन्दोलन का मुख्य चेहरा डॉ फैयाज़ लिखते हैं:
“बादशाह अकबर ने कसाई और मछुआरों के लिए राजकीय आदेश जारी किया था कि उनके घरों को आम आबादी से अलग कर दिया जाए और जो लोग इस जाति से मेलजोल रखें, उनसे जुर्माना वसूला जाए। अकबर के राज में अगर निम्न श्रेणी का व्यक्ति किसी उच्च श्रेणी के किसी व्यक्ति को अपशब्द कहता था तो उस पर कहीं अधिक अर्थदंड लगाया जाता था।“
अर्थात यह भेदभाव भारत में आने से पहले से था, जिसमें भारत में आकर एक और नई श्रेणी उत्पन्न कर दी!
उत्तर प्रदेश में पसमांदा समुदाय से मंत्री बनने से निशाने पर आए छोटी जाति के मुस्लिम:
उत्तर प्रदेश सरकार में इस बार पसमांदा समाज की ओर से दानिश आज़ाद अंसारी नाम के एक मुस्लिम चेहरे को स्थान दिया है। और वह जाति से बुनकर हैं। जैसे ही उन्हें यह पद प्राप्त हुआ, वैसे ही अशराफ अर्थात मुस्लिमों की ऊंची जाति के लोग अपने ही मजहब के उन भाइयों का मजाक उड़ने लगे, जो उनसे नीची जाति के हैं। पसमांदा कार्यकर्त्ता डॉ. फैयाज़ अहमद फैज़ ने अपने ट्विटर खाते पर कई ऐसे स्क्रीनशॉट साझा किये हैं, जिनसे पसमांदा समाज के प्रति मुस्लिमों की ऊंची जाति वालों की नफरत दिखाई दे रही है:
डॉ फैयाज़ ने प्रश्न करते हुए पूछा है कि क्या आपने कभी ऐसा देखा है कि किसी हिन्दू पिछड़े दलित को राजनैतिक भागेदारी मिलने पर सवर्ण समाज की तरफ से इस प्रकार गाली गलौज किया जाता है? जिस तरह से अशराफ़ समाज के नौजवानों और बुजुर्गो द्वारा एक देशज पसमांदा को भागेदारी मिलने पर लगातार किया जा रहा है।
इससे पता चलता है कि मुस्लिमों में नस्लवाद/जातिवाद कितनी गहरी है और उनमें सामाजिक न्याय की कितनी आवश्यकता है।
ये हैं: मोहम्मद शाहिद हुसैन: “तुमलोगों से न आज तक कुछ उखड़ा है और न आगे उखड़ेगा। विधवा विलाप करते रहो।”
ये जुलाहे आजकल खुश क्यों नजर आ रहे हैं? कोई लाटरी लगी है क्या?”
कौन हैं दानिश अंसारी?
दानिश अंसारी बलिया से हैं एवं छात्र जीवन से ही वह अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े रहे हैं। दानिश अंसारी उस अंसारी समुदाय से आते हैं जिसे मुस्लिम समाज में पिछड़ा माना जाता है। दानिश अंसारी से पहले मोहसिन रजा राज्य सरकार में मंत्री थे, जो शिया थे और जो ऊंची जाति से आते थे।
बहुत ही हैरानी की बात है कि जो समाज अपने भाइयों की तरक्की नहीं देख सकता, जो अपने भाइयों को अपना भाई नहीं मनाता, उन पर जातिगत टिप्पणी करता है, वह स्वयं को समानता का मजहब कहता है?