भारत के संविधान की प्रस्तावना में संशोधन के माध्यम से प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा सेक्युलर शब्द जोड़ा गया। सेक्युलर का अर्थ है धर्मनिरपेक्ष! अर्थात हर धर्म उसके लिए समान हैं। परन्तु भारत में ऐसा है क्या? क्या भारत में वास्तव में हिन्दुओं और मुस्लिमों के साथ राजनीति समान व्यवहार करती है? यदि भेदभाव होता है तो उसके लिए कारण क्या है? यह सांविधिक है या फिर मानसिकता में? या फिर दोनों? कुछ उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं।
एक भजन है जिसे सुनकर हमारा बचपन बीता है,
रघुपति राघव राजा राम,
पतित पावन सीता राम,
ईश्वर अल्लाह तेरो नाम,
सबको सन्मति दे भगवान!
हमारे बच्चे भी यह गाते हैं। और बचपन से ही बच्चा जो अपनी धार्मिक पहचान के प्रति जागरूक होना चाहिए, वह एक ऐसी समानता के सपने में फंस जाता है। वह एक ऐसे भ्रम में बंध जाता है, जो दरअसल कहीं है ही नहीं। बच्चा धीरे धीरे मंदिरों से दूर होने लगता है क्योंकि उसके लिए जब ईश्वर और अल्लाह एक समान हैं तो धार्मिक स्थल भी एक समान होंगे। मंदिरों का टूटना उसके हृदय में पीड़ा नहीं जगाता, क्योंकि जिसने तोड़ा है, वह जिसकी इबादत करता है, वह और मंदिर में रहने वाला ईश्वर एक ही तो है!
जबकि मूल भजन में ऐसा नहीं है। क्या मूल भजन को विकृत कर हमें मानसिक रूप से उस स्वीकार्यता की ओर लाने का षड्यंत्र रचा गया जिसमें हिन्दुओं के मंदिर टूटते रहें, या फिर वह टूटे हुए मंदिरों के सामने खड़ा हो, फिर भी उसकी चेतना विरोध न करे!
मूल भजन है:
रघुपति राघव राजाराम पतित पावन सीताराम ॥
सुंदर विग्रह मेघश्याम गंगा तुलसी शालग्राम ॥
भद्रगिरीश्वर सीताराम भगत-जनप्रिय सीताराम ॥
जानकीरमणा सीताराम जयजय राघव सीताराम ॥
रघुपति राघव राजाराम पतित पावन सीताराम ॥
रघुपति राघव राजाराम पतित पावन सीताराम ॥
– श्रीलक्ष्मणाचार्य
हिन्दुओं के ईष्ट प्रभु श्री राम के भजन की प्रथम पंक्ति को लेकर शेष विकृत रूप में प्रस्तुत करने का उद्देश्य क्या रहा होगा? आज यह प्रश्न इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि आज इसी वैचारिक विकृतता को और आगे बढ़ा दिया गया है। अब ईश्वर को तो लगभग त्याज्य ही समझा जाने लगा है और अल्लाह को विशेषाधिकार, ऐसी ही विकृतता फ़ैलाने वाले राजनीतिज्ञों द्वारा प्रदान किए जाने लगे हैं।
परन्तु फिर भी जिन्हें हिन्दुओं के सम्मुख महात्मा गांधी के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है, उन्होंने अल्लाह-ईश्वर को एक समान बताया था और फिर यह भी अपेक्षा की थी कि हिन्दू मुस्लिमों पर गुस्सा न करें और अपने दिल में उनके प्रति गुस्सा न पालें, तब भी नहीं जब मुस्लिम उन्हें मारना चाहते हों। यदि मुस्लिम हम सभी को मार डालना चाहते हैं तो हमें मृत्यु का सामना वीरता से करना चाहिए। यदि वह हिन्दुओं को मारकर अपना शासन स्थापित करना चाहते हैं, तो हमें अपने जीवन का बलिदान देकर एक नए संसार की शुरुआत करनी चाहिए।
किसी को भी मृत्यु से भय खाने की आवश्यकता नहीं है। जीवन और मृत्यु तो मानव जीवन का हिस्सा है। तो हमें क्यों प्रसन्न या दुखी होना चाहिए? यदि हम एक मुस्कान के साथ नए जीवन में प्रवेश करते हैं, तो हम एक नए भारत में प्रवेश करेंगे। और गीता का भी दूसरा अध्याय भी यही बताता है कि कैसे एक भगवान से डरने वाले व्यक्ति को जीना चाहिए!”
और फिर कहते हैं कि मैं आपको बताता हूँ कि इस श्लोक का सही अर्थ क्या है और कैसे जीना चाहिए!”
यह उन्होंने नई दिल्ली में 6 अप्रेल को एक प्रार्थना सभा में कहा था। अब एक प्रश्न यहाँ पर उत्पन्न होता है कि गांधी जी को यह अधिकार किसने दिया कि वह भगवान द्वारा दिए गए जीवन को मात्र इसलिए बलिदान करने की सलाह दे रहे हैं क्योंकि उनके अनुसार एक दिन अवश्य उनका हृदय परिवर्तन हो जाएगा?

यदि वह गीता से ही श्लोक का अर्थ समझा रहे हैं, तो वह हिन्दुओं को गीता के सम्पूर्ण श्लोकों का अर्थ क्यों नहीं समझा रहे हैं? वह डरा क्यों रहे हैं कि महाभारत में पांडव और कौरव दोनों ही नष्ट हो गए थे। अत: हिन्दुओं को लड़ना नहीं चाहिए! क्योंकि वह भी मारे जा सकते हैं और फिर वह ही आगे कह रहे हैं, कि हिन्दुओं को मुसलमानों के हाथों मर जाना चाहिए!
वह ऐसा कह ही कैसे सकते हैं कि हिन्दुओं को मर जाना चाहिए? उनको सम्पूर्ण हिन्दू समाज की ओर से यह अधिकार किसने दे दिया कि हिन्दुओं को मुसलमानों के हाथों मर जाना चाहिए क्योंकि श्रीमद्भागवत गीता के एक श्लोक को उन्होंने अपने अनुसार अर्थ दे दिया है? क्या उन्हें नहीं पता था कि गीता और महाभारत दोनों ही शक्ति की महत्ता बताती हैं, वह इस प्रकार से पलायन नहीं बताती हैं। और महात्मा गांधी से यह भी प्रश्न करना चाहिए था कि मुस्लिम तो सैकड़ों वर्षों से लोगों को मारते हुए आ रहे हैं। उनकी खून की प्यास कब शांत हुई है?
कब उनकी तलवार से खून सूखा है? उनके कारण हिन्दुओं की स्त्रियों को जौहर करना पड़ा था, और न जाने कितनी लड़कियों को बाज़ार में बेचा गया, क्या गर्दन काटकर जनेऊ तुलवाने वालों ने अपनी तलवार को विराम दिया? और क्या काफिरों की गर्दनों की मीनारों पर गाजी की उपाधि धारण करने वालों का सम्मान कम हुआ?
हिन्दुओं को यह सब भूलकर केवल इसलिए मर जाना चाहिए क्योंकि एक कथित महात्मा कह रहे हैं?
हिन्दुओं में महानता की परिभाषा यह कबसे निर्धारित की जाने लगी थी कि पहले भजन को विकृत करके हिन्दुओं के हृदय से अस्तित्व के प्रति लड़ने का बोध ही समाप्त कर दिया जाए और फिर अंत में जाकर उसके जीने का वह अधिकार छीन लिया जाए, जो जीवन उसे स्वयं प्रभु ने दिया है।
महात्मा गांधी कौन थे जो अपनी महानता या कथित संतत्व की झूठी सनक में हिन्दुओं के जीवन के अधिकार को छीन लें? और फिर महान भी कहलाएं? आज हिन्दुओं के साथ यही व्यवहार किया जाने लगा है कि उन्हें विकास के लिए अपने मंदिर बलिदान कर देने चाहिए, फिर चाहे वह कितने ही वर्ष पुराने क्यों न हों?
क्योंकि मंदिरों के प्रति आदर तो मंदिरों को अपमानित करके कम कर दिया गया, जैसे प्रथम प्रधानमंत्री श्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने भाखड़ा नांगल बाँध को समर्पित करते हुए कहा कि यही आधुनिक मंदिर हैं। अर्थात हिन्दुओं के मन में यह विचार प्रक्षेपित किया गया कि मंदिर और विकास परस्पर विरोधी हैं, जबकि मंदिर रोजगार के सबसे बड़े माध्यमों में से एक हैं। इतना ही नहीं, प्रधानमन्त्री श्री नरेंद्र मोदी ने भी यह कहा था कि मंदिर से पहले शौचालय बनने चाहिए! अर्थात मंदिर और स्वच्छता दो परस्पर विरोधी ध्रुव हैं, जबकि सत्यता यही है कि मंदिर और स्वच्छता एक ही हैं, मंदिरों से स्वच्छता के विषय में जागरूकता का प्रसार हो सकता है और विकास का भी! हिन्दुओं के मंदिर सनातनी वास्तु कला के ऐसे उदाहरण हैं, जिनकी तुलना आज भी कहीं नहीं हैं! मंदिरों को बिना किसी दोष में विकास एवं स्वच्छता विरोधी प्रतीक बनाकर शीर्ष नेतृत्व द्वारा प्रस्तुत कर दिया गया!
मंदिरों का प्रबंधन सरकार के हाथों में होने के कारण यह अघोषित नियम बना है कि यह मंदिरों का फर्ज है कि वह बलिदान हो जाएँ, पर मस्जिदों के पास यह अधिकार है कि वह कहीं भी उग आएं। उन्हें प्रतिस्थापन का अधिकार है, परन्तु हिन्दुओं के मंदिरों को तोड़ा सकता है! और जब हिन्दू समाज विरोध करेगा तो उसे विकास विरोधी और गंदगी प्रेमी ही ठहरा दिया जाएगा, क्योंकि मंदिर तो पिछड़ेपन और गंदगी के ही प्रतीक हैं।
विकास के नाम पर और देश के नाम पर बलिदान मांगा जाता है मंदिरों का। अभी हाल ही में तमिलनाडु में मंदिरों के आभूषणों को पिघलाकर उनके बदले में राष्ट्रीयकृत बैंकों में गोल्ड मोनेटाइज़ेशन योजना के अंतर्गत जमा करने की और फिर उस धन से मंदिर के विकास में व्यय करने की योजना है।
अर्थात हिन्दू मंदिरों से यह अपेक्षा है कि अपने चढ़ावे को वह अपने अनुसार व्यय न करे, बल्कि सरकार करे, जबकि कथित अल्पसंख्यक मजहबी संस्थानों के साथ ऐसा नहीं है।
क्योंकि मानसिकता ही यह हो गयी है कि मुस्लिमों के लिए हिन्दुओं को मर जाना चाहिए, तो जब हिन्दू मर सकते हैं, तो मंदिर भी सरकार के लिए सोना पिघलाने वाले हो ही सकते हैं।
यह एक मामला है, सबरीमाला मंदिर के साथ किए गए मंदिर एक्टिविज्म के विषय में भी पाठक जानते ही हैं।
हिन्दुओं को या हिन्दुओं के मंदिरों को सलाह देने वाले कथित सुधारकों को यह अधिकार कौन देता है कि वह उनके मरने की भी बात कर दें और मंदिर की परम्पराओं को भी मारने की बात कर दें?
धर्मनिरपेक्षता का अर्थ हिन्दू द्वेष या हिन्दुओं का वैध तरीके से वध तो नहीं होता है, बल्कि धर्मनिरपेक्षता का अर्थ सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार होता है, अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक वाद में फंसे बिना। ऐसा कैसे हो सकता है कि कथित धर्मनिरपेक्षता के साए में हिन्दुओं को मारने तक की सलाह दे दी जाए और वह भी गीता के श्लोक की गलत व्याख्या के चलते?
आज 2 अक्टूबर को, ऐसी धर्मनिरपेक्षता पर बात अवश्य होनी चाहिए, जो अब एक कदम आगे बढ़कर हिन्दुओं के अस्तित्व के लिए ही खतरा बन गयी है। और हिन्दू भजनों का हिन्दुओं को ही नीचा दिखाने के लिए विकृतीकरण बंद किया जाए, जैसे रघुपति राघव राजा राम भजन के साथ हुआ,
श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों की मनमानी व्याख्या बंद हो, जैसी महात्मा गांधी ने उस प्रार्थना सभा में की, और श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों को हिन्दुओं को ही मारने के लिए प्रयोग किया।