पाकिस्तान का इतिहास पढ़ते समय औरंगजेब की क्रूरताओं को छिपाने के लिए मन्दिरों का विध्वंस छिपा दिया जाता है। और यदि किया भी जाता है तो इस प्रकार से कि जैसे कोई घटना ही नहीं हुई हो, औरंगजेब को नायक बनाकर प्रस्तुत किया जाता है। The History of Pakistan में इफ्तिखार एच मलिक पृष्ठ 81 पर लिखते हैं कि उत्तराधिकार के युद्ध में दारा पराजित हुआ और औरंगजेब ने उस पर मुकदमा चलाकर उसे मृत्यु दंड दिया। और यह भी लिखते हैं कि कुछ मुगल शासकों के अंतर्गत कुछ मंदिरों का विध्वंस दिखाई देता है, परन्तु वह सभ्यताओं का संघर्ष नहीं बल्कि राजनीतिक कारणों से तोड़े गए थे।
इसी प्रकार A BRIEF HISTORY OF PAKISTAN जिसे JAMES WYNBRANDT ने लिखा है, उसमें भी औरंगजेब द्वारा मंदिरों को तोड़े जाने का कोई उल्लेख नहीं है। हाँ बस यही कहा गया है कि औरंगजेब ने कुछ ऐसी मजहबी नीतियों को अपनाया जिसने जिनके कारण उसके साम्राज्य में असंतोष पैदा हुआ और उसने हिन्दुओं को इस्लाम में लाना चाहा, उसने कानूनी व्यवस्था को शरिया कर दिया और उसने संगीत आदि पर प्रतिबन्ध लगाया, जिसके कारण असंतोष उत्पन्न हुआ।
जो विजन आईएएस में औरंगजेब को लेकर जो वीडियो आया है, वह पाकिस्तान में पढ़ाए जा रहे इतिहास में कितना मिलता है, वह THE MURDER OF HISTORY, A critique of history textbooks used in Pakistan में K.K. Aziz द्वारा पर्दाफ़ाश किए गए झूठ से प्राप्त होता है। के के अज़ीज़ पृष्ठ 97 पर लिखते हैं कि प्रोफ़ेसर राफुल्ला शेहाब द्वारा हिस्ट्री ऑफ पाकिस्तान में औरंगजेब के विषय में लिखा गया है कि “कई यूरोपीय और हिन्दू लेखकों ने औरंगजेब को एक मजहबी आदमी के रूप में पेंट करने का प्रयास किया है, जो वह नहीं था। वह तो लगभग उन नीतियों पर ही चल रहा था, जो अकबर ने बनाई थीं और यहाँ तक कि उसके दुश्मन भी यह मानते थे कि वह उदार, बड़े दिल वाला और सभी के साथ मिलकर चलने वाला था।”
और अब देखते हैं कि विज़न आईएएस के वायरल वीडियो में औरंगजेब के विषय में क्या पढ़ाया जा रहा है
औरंगजेब के विषय में यह जो पढ़ाया जा रहा है, यह पूरी तरह से झूठ तो है ही, साथ ही यह वही दृष्टिकोण है, जो पाकिस्तान के इतिहासकारों और साथ साथ पाकिस्तान प्रेमी पश्चिमी इतिहासकारों द्वारा बताया जा रहा है। परन्तु विज़न आईएएस के वायरल वीडियो और दृष्टि आईएएस की नेट पर उपलब्ध अध्ययन सामग्री को देखना चाहिए।
आइये देखते हैं कि दृष्टि आईएएस की नेट पर उपलब्ध अध्ययन सामग्री में औरंगजेब की धार्मिक नीति पर क्या लिखा है? इसमें लिखा है कि:
1559 ई. में औरंगज़ेब ने बनारस के पुजारियों को एक चार्टर दिया था जिसमें पुराने मंदिरों को न गिराने, ब्राह्मणों एवं दूसरे हिन्दुओं को परेशान न करने का उल्लेख था।
1666 ई. के पश्चात् ‘जजिया’ पुन: लगाया गया, गैर मुस्लिमों पर तीर्थयात्रा कर भी आरोपित किया गया एवं उन पर आयात कर बढ़ाया गया।
अंधविश्वास एवं इस्लाम के विरुद्ध होने के आधार पर झरोखा दर्शन एवं सिर्फ अल्लाह के सामने किये जाने के आधार पर बादशाह के सामने सिजदा किये जाने पर रोक और होली व मुहर्रम को सार्वजनिक रूप से मनाने पर रोक लगा दी गई।
आयात कर को लागू करने के पीछे बहुत सख्ती नहीं दिखाई गई और तीर्थयात्रा कर के पीछे धार्मिक कट्टरता से ज़्यादा आर्थिक लक्ष्य नज़र आता है।
मंदिरों को गिराने का आदेश सभी मंदिरों की बजाय कुछ खास मंदिरों के लिये ही था और ज़्यादातर आदेश कागज़ पर ही रहे तथा जजिया के पीछे धार्मिक कट्टरता के अतिरिक्त आर्थिक कारण भी मौजूद था।
अब देखते हैं कि इतिहास की पुस्तकों में क्या लिखा है, कि ज़ज़िया क्यों लगाया गया? यदुनाथ सरकार अपनी पुस्तक हिस्ट्री ऑफ औरंगजेब, मेनली बेस्ड ऑन पर्शियन सोर्सेस में जजिया के विषय में लिखते हैं कि “औरंगजेब ने जब जजिया लगाया तो उसने दया याचना की ओर से आँखें फेर ली थीं और वह लोगों की यातनाओं की ओर से पूरा बहरा बन गया था. दक्कन में यह कर केवल बलात ही लिया जा सकता था, और विशेषकर बुरहानपुर में, मगर औरंगजेब विचलित नहीं हुआ और उसने नगर पुलिस को आज्ञा दी कि हर व्यक्ति से जबरन कर वसूले”
औरंगजेब ने जजिया के लिए हर प्रकार की छूट से इंकार कर दिया था”आप किसी भी कर से छूट दे सकते हैं: परन्तु जजिया से नहीं!” और इसके परिणाम क्या हुए थे: वह पढ़ें कि जजिया का क्या परिणाम हुआ, क्या यह आर्थिक था या धार्मिक? सर यदुनाथ सरकार लिखते हैं कि
“जिस प्रकार जजिया कर लगाया गया, उसका परिणाम यह हुआ कि हिन्दू अधिक संख्या में मुस्लिम बन गए क्योंकि जो गरीब लोग जजिया नहीं दे पाए वह कर से बचने के लिए मुसलमान हो गए. औरंगजेब का मानना था कि ऐसे अत्याचारों से हिन्दू अधिक से अधिक संख्या में मुस्लिम बनेंगे!”
अब आयात कर क्या वास्तव में कम किया था? इस पर तथ्य देखते हैं: और एक बात यदुनाथ सरकार लिखते हैं कि पहले तो औरंगजेब ने हिन्दू व्यापारियों पर कस्टम ड्यूटी मुस्लिम व्यापारियों की तुलना में अधिक लगाई, परन्तु बाद में 9 मई 1667 को बादशाह ने कस्टम ड्यूटी अर्थात कर को मुस्लिम व्यापारियों के लिए माफ़ कर दिया, पर हिन्दुओं को उसी मूल्य पर कर देना पड़ता था, जो पूर्व में उनके लिए निर्धारित किया गया था।
इसी में पृष्ठ संख्या 301 में लिखा है कि औरंगजेब ने अपना हिन्दू घृणा का अभियान दुसरे तरीके से आरम्भ किया, उसने पहले बनारस के पंडितों को एक पत्र लिखा कि उसे नए मंदिरों से आपत्ति है, परन्तु पुराने मंदिर वह नहीं तोड़ेगा! बादशाह बनने से पहले औरंगजेब ने गुजरात में एक नए बन रहे मंदिर में गाय काटकर अपवित्र किया था और उसे मस्जिद में बदल दिया था ।
उसके बाद उसने अपने शासनकाल के बारहवें वर्ष में यह आदेश दिया कि काफिरों के सभी मंदिरों को तोड़ डाला जाए। और उन मंदिरों में सोमनाथ का मंदिर, काशी विश्वनाथ का मंदिर और मथुरा का कृष्ण मंदिर सम्मिलित थे, जो हिन्दुओं की आस्था के मुख्य केंद्र थे।
यह तथ्य इतिहास की पुस्तकों में सम्मिलित हैं. परन्तु वह तथ्य नहीं जो हमारे बच्चों को कुछ कोचिंग संस्थानों में पढ़ाए जा रहे हैं! अब आइये देखते हैं मंदिरों के विषय में और तथ्य क्या कहते हैं:
ऐतिहासिक तथ्य यही कहते हैं कि काशी के मंदिर को तुड़वाने का कारण पूरी तरह से धार्मिक था। मासिर-ए-आलमगीरी में लिखा है कि बनारस में ब्राह्मण काफ़िर अपने विद्यालयों में अपनी झूठी किताबें पढ़ाते हैं और जिसका असर हिन्दुओं के साथ साथ मुसलमानों पर भी पड़ रहा है।
आलमगीर जो इस्लाम को ही फैलाना चाहते थे, उन्होंने सभी प्रान्तों के सूबेदारों को आदेश दिए कि काफिरों के सभी विद्यालय और मंदिर तोड़ दिए जाएं और इन काफिरों की पूजा और पढाई पर रोक लगाई जाए!
फिर उसी वर्ष अर्थात 1669 में आगे आकर पृष्ठ 66 पर लिखा है कि यह रिपोर्ट किया गया कि बादशाह के आदेश से उसके अधिकारियों ने काशी में विश्वनाथ मंदिर तोड़ दिया!
भारत के इस इतिहास को उन अधिकारियों को क्यों नहीं पढाया जा रहा है, जो आगे जाकर जिलों के इतिहास आदि को संरक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने जा रहे होते हैं। क्या उन्हें झूठ पढ़ाना किसी और ही एजेंडे का हिस्सा है?
प्रश्न यही उठता है कि जब तथ्य इतिहास की पुस्तकों में उपस्थित हैं, तो उनके स्थान पर गलत क्यों पढ़ाया जा रहा है? प्रश्न यह भी है कि जो पाकिस्तान का दृष्टिकोण है, वही भारत में क्यों पढ़ाया जा रहा है? वहां तो उन्हें औरंगजेब को नायक बनाकर हिन्दुओं को अर्थात काफिरों को मारना हो सकता है परन्तु भारत में ऐसा क्या कारण है? क्या यह आवश्यक नहीं है कि अध्ययन सामग्री में स्रोत भी दिए जाएं, जिससे स्रोत पर भी बात हो, स्रोत जिसने लिखा उस पर भी बहस हो, उसके इतिहास पर भी बहस हो!