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Tuesday, April 16, 2024

तपस्विनी एवं सिद्धा माता शबरी को मात्र भीलनी तक सीमित करने का षड्यंत्र या फिर कुछ और? क्या हम अपनी नायिकाओं को अब औपनिवेशिक प्रभाव से उत्पन्न व्यवस्था में सीमित करेंगे?

इन दिनों लगातार श्रीरामचरित मानस पर प्रहार हो रहे हैं। बार-बार श्रीरामचरितमानस की चुनिन्दा चौपाइयों को निशाना बनाया जा रहा है और उस समय पर लिखे गए शब्दों को आज के कथित समाजशास्त्र के शब्दों से तौला जा रहा है। साथ ही कहीं न कहीं उन चरित्रों को, जिनमें भक्ति है, जिनमें तप है एवं जिनमें हिन्दू धर्म के ऐसे प्रतीक हैं, जो हर षड्यंत्र का सामना कर सकते हैं, उन्हें उन दायरे में रखकर देखा जा रहा है, जिन दायरों का निर्माण दरअसल औपनिवेशिक काल की देन है।

जिनमें उन चरित्रों को सीमित किया जा रहा है, मूल से काटकर सन्दर्भ रहित प्रस्तुत किया जा रहा है और यह बहुत ही सूक्ष्म स्तर पर कथित समरसता या कथित समानता के आधार पर स्थापित किया जा रहा है। जो विद्वान हैं, जिनमें भक्ति है, जिनमें हिन्दुओं की वह ज्ञान परम्परा है जो हमारी चेतना का हिस्सा है, उन्हें इस सीमा तक सीमित किया जा रहा है कि लोग केवल उनकी उसी पहचान तक सीमित हो कर रह जाएं, जो पहचान पहले उन्हें औपनिवेशिक काल में कथित विकसित अंग्रेजों ने दी और उसके बाद पश्चिम के समाजशास्त्र से प्रभावित होकर लिखे गए संवैधानिक दायरे ने!

इनका सबसे पहला और महत्वपूर्ण शिकार है प्रभु श्रीराम कथा की एक महत्वपूर्ण स्त्री, जिनका नाम भक्ति का ही नहीं बल्कि ज्ञान का भी पर्याय है। जिन्होनें वर्षों तक अपने प्रभु श्री राम की प्रतीक्षा की एवं जिन्होनें अपने प्रभु श्री राम को वह कंदमूल फल खिलाए, जिससे आगे की उनकी यात्रा सुगम हो जाए, उन्हें मात्र “भीलनी शबरी” तक सीमित किया जा रहा है।

यह नैरेटिव की लड़ाई है। यहाँ पर एक पक्ष यह नैरेटिव बना रहा है कि श्रीरामचरित मानस स्त्री विरोधी, समतामूलक समाज का विरोधी है। परन्तु यह नैरेटिव बनाने वाले उस दृष्टि से देख रहे हैं, जिस दृष्टि से मिशनरी विमर्श उन्हें दिखा रहा है और उसके प्रतिउत्तर में कुछ लोग हैं वह भीलनी शबरी का उदाहरण दे रहे हैं, जो उनके अनुसार कथित पिछड़ी है।

परन्तु पिछड़ी होने का प्रमाणपत्र देने वाले न ही कथित प्रश्न उठाने वाले हैं एवं न ही कथित स्पष्टीकरण देने वाले। पहले तो ऐसे ग्रंथों पर उठ रहे प्रश्नों का तब तक कोई भी स्पष्टीकरण नहीं देना चाहिए, जब तक समाज उस व्यवस्था के दायरे में न आ जाए, जिस व्यवस्था के दायरे में उस समय का समाज था।

जब तक समाज धर्मगत व्यवस्था पर नहीं चलता है, तब तक श्रीरामचरित मानस पर कोई भी उंगली नहीं उठा सकता क्योंकि जो उन्होंने लिखा वह उस समय की शब्दावली थी एवं उस समय की बात थी। अभी नहीं। अब आते हैं, माता शबरी पर! हमने अपने पूर्व में प्रकाशित लेख में बताया है कि कैसे माता शबरी को मात्र जूठे बेरों की कहानी तक सीमित कर दिया गया। उनके ज्ञान पर चर्चा क्यों नहीं होती, क्यों इस बात पर चर्चा नहीं होती कि जिस भारत में यह विमर्श फैलाया जा रहा है कि स्त्रियों का शोषण होता रहा है, वहां पर माता शबरी के पास ज्ञान था, भक्ति का ज्ञान एवं ज्ञान की भक्ति!

माता शबरी के विषय में जो वाल्मीकि रामायण में लिखा है, वही श्री रामचरित मानस में सरल शब्दों में लिखा है। आइये पहले पढ़ते हैं कि श्रीवाल्मीकिकृत रामायण में माता शबरी के विषय में क्या लिखा है। जब हम इन्हें पढेंगे तो पाएंगे कि कहीं न कहीं प्रभु श्रीराम की प्रतीक्षा में प्रतीक्षारत शबरी के साथ कई कथाएँ जुड़ती गईं और भक्ति की जो सूक्ष्म धारा थी वह मात्र भीलनी के जूठे फलों की कहानी में दब गयी?

जिस शबरी को श्रमणी की संज्ञा प्राप्त हुई है, जिस श्रमणी ने योग और तपबल से स्वयं को विकसित किया है, जिस शबरी ने इतने वर्ष मात्र इस प्रतीक्षा में व्यतीत कर दिए कि एक दिन राम उसकी कुटिया में आएँगे, अत: उसे रुकना है, रुकना ही नहीं है अपितु राम और लक्ष्मण के आने तक वन को भी उसी प्रकार रखना है, जैसा ऋषि छोड़ गए हैं। शबरी भक्ति का वह अध्याय है जिसका अध्ययन प्रत्येक भक्त को करना चाहिए।

प्रभुश्री राम ने शबरी से उसकी तपस्या के विषय में अवश्य पूछा जो यह प्रमाणित करता है कि शबरी एक ज्ञानी स्त्री थी।

परन्तु राम कहते हैं न कि भक्त और ज्ञानी में से भक्त महान होता है, इसी प्रकार शबरी का तपस्या वाला रूप भक्ति के रूप के कहीं पीछे दब जाता है।  राम उनसे पूछते हैं:

कच्चिते निर्जिता विघ्ना कच्चिते वर्धते तप:

कच्चिते नियत: क्रोध आहाराश्च तपोधने।

(वाल्मीकि रामायण अरण्य काण्ड 74/8)

अर्थात कामादि छ: रिपुओं को जो तपस्या में विघ्न डाला करते हैं वह तुमने जीत तो लिया है? तुम्हारी तपस्या उत्तरोत्तर बढ़ती तो जाती है? तुमने क्रोध को वश में कर रखा है? हे तपोधने, तुम आहार में संभल कर तो रहती हो?

फिर उसके उपरान्त वह लिखते हैं:

कच्चिते नियम: प्राप्त: कच्चिते मनस: सुखम

कच्चिते गुरुशुश्रषा सफला चारुभाषिणी

(वाल्मीकि रामायण अरण्य काण्ड 74/9)

अर्थात  हे चारुभाषिणी, तुम्हार सभी व्रत तो ठीक ठाक चले जाते हैं? तुम्हारा मन संतुष्ट तो रहता है? क्या तुम्हारी सेवा शुश्रुषा सफल हुई?

प्रभु श्रीराम के इन प्रश्नों का शबरी उत्तर देते हुए कहती हैं

अद्य प्राप्ता तप: सिद्धिस्तव संदर्शनानम्या

अद्य में सफलं तप्तं गुरुवश्च सपूजिता:

(वाल्मीकि रामायण अरण्य काण्ड 74/11)

अर्थात आपके दर्शन करके मुझे आज तप करने का फल मिल गया। आज मेरा तप करना और गुरु की सेवा करना सफल हुआ।

वाल्मीकि रामायण में आगे लिखा है कि जब शबरी प्रभु श्रीराम से कहती हैं कि उन्होंने पम्पा सरोवर के निकटवर्ती वन से वन में उत्पन्न होने वाले अनेक कंदमूल फलों को इकट्ठा कर रखा है।

वाल्मीकि रामायण में आदि  कवि वाल्मीकि शबरी को अति दुर्लभ परमात्मा का ज्ञान रखने वाली की संज्ञा देते हैं।

शबरी कोई बेचारी वृद्ध स्त्री नहीं है जो प्रभु श्रीराम की प्रतीक्षा में है, अपितु वह तो इतनी मजबूत स्त्री है कि वह इतने बड़े आश्रम का रखरखाव एवं देखभाल कर रही है, अकेली। इसीके साथ वह तप और जप भी कर रही है।

प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण को भली भांति आश्रम दिखाने के उपरान्त वह आज्ञा मांगती है और स्वयं को अग्नि में समर्पित कर इस देह को त्याग देती है।

अब प्रश्न यह है कि जिस शबरी को श्रमणी कहकर संबोधित किया गया है एवं जिस शबरी को तप जप एवं यज्ञ का ज्ञान है उसे मात्र झूठे बेर खिलाने तक ही सीमित क्यों किया गया? वह अध्यात्म की वह गंगा है जो कईयों को राह दिखा सकती है। शबरी को तप के समस्त नियमों का ज्ञान है, अर्थात वह शिक्षित है। वह महानारी है जो अपने गुरु के आदेश का पालन कर रही है। मतंग ऋषि का आश्रम अत्यंत ही सुन्दर है, अत: प्रभु श्रीराम के आने पर वह निराश न हो जाएं, इसलिए शबरी का रहना आवश्यक है।

जिन शबरी ने ऐसी तपस्या की है, उन्हें मात्र उस पहचान तक सीमित क्यों और किस लिए किया जा रहा है, जो पहचान उन्हें औपनिवेशिक काल के बाद एक संकुचित रूप से प्राप्त हुई है। वह भीलनी होते हुए भी तपस्वी हैं, उनमें ज्ञान है।

भक्ति एवं ज्ञान का जो विवरण माता शबरी के विषय में श्री वाल्मीकिरामायण में है, लगभग वही उन शब्दों में श्रीरामचरित मानस में है। जब प्रभु श्रीराम नवधा भक्ति उपदेश देते हैं। भक्ति के महत्व को कितना सुन्दर श्री गोस्वामी तुलसीदास जी ने बताया है:

* जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई॥

भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा॥3॥

भावार्थ:- जाति, पाँति, कुल, धर्म, बड़ाई, धन, बल, कुटुम्ब, गुण और चतुरता- इन सबके होने पर भी भक्ति से रहित मनुष्य कैसा लगता है, जैसे जलहीन बादल (शोभाहीन) दिखाई पड़ता है॥3॥

* नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं॥

प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥4॥

भावार्थ:- मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर। पहली भक्ति है संतों का सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम॥4॥

दोहा :

* गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।

चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥35॥

भावार्थ:- तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें॥35॥

चौपाई :

* मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥

छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥1॥

भावार्थ:- मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना॥1॥

* सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा॥

आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥2॥

भावार्थ:- सातवीं भक्ति है जगत् भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना॥2॥

* नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना॥

नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई। नारि पुरुष सचराचर कोई॥3॥

भावार्थ:- नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना। इन नवों में से जिनके एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कोई भी हो-॥3॥

* सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें॥

जोगि बृंद दुरलभ गति जोई। तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई॥4॥

भावार्थ:- हे भामिनि! मुझे वही अत्यंत प्रिय है। फिर तुझ में तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है। अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिए सुलभ हो गई है॥4॥

* मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा॥

जनकसुता कइ सुधि भामिनी। जानहि कहु करिबरगामिनी॥5॥

भावार्थ:- मेरे दर्शन का परम अनुपम फल यह है कि जीव अपने सहज स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। हे भामिनि! अब यदि तू गजगामिनी जानकी की कुछ खबर जानती हो तो बता॥5॥

* पंपा सरहि जाहु रघुराई। तहँ होइहि सुग्रीव मिताई॥

सो सब कहिहि देव रघुबीरा। जानतहूँ पूछहु मतिधीरा॥6॥

भावार्थ:- (शबरी ने कहा-) हे रघुनाथजी! आप पंपा नामक सरोवर को जाइए। वहाँ आपकी सुग्रीव से मित्रता होगी। हे देव! हे रघुवीर! वह सब हाल बतावेगा। हे धीरबुद्धि! आप सब जानते हुए भी मुझसे पूछते हैं!॥6॥

* बार बार प्रभु पद सिरु नाई। प्रेम सहित सब कथा सुनाई॥7॥

भावार्थ:- बार-बार प्रभु के चरणों में सिर नवाकर, प्रेम सहित उसने सब कथा सुनाई॥7॥

माता शबरी में वह समस्त नौ प्रकार की भक्ति हैं, जिन्हें प्रभु बताते हैं।

फिर अब प्रश्न यही है कि क्या उन्हें बार-बार भीलनी तक सीमित रखकर उस भक्ति का अपमान नहीं किया जा रहा है, जो भारत की चेतना में समाई है।

जहाँ विमर्श यह होना चाहिए कि उस समय हर कोई प्रभु को पाने के लिए भक्ति किया करता था वहाँ पर प्रभु श्री राम स्त्री विरोधी नहीं है इसकी सफाई देने के लिए कभी माता शबरी तो कभी किसी और का उदाहरण देकर व्यर्थ का स्पष्टीकरण दिया जा रहा है, जो दरअसल बेकार है क्योंकि जिस स्त्री विमर्श के दायरे में श्रीरामचरित मानस या माता शबरी को लाकर देखा जा रहा है, वह स्त्री विमर्श कभी भी भारत की मेधा का विषय नहीं था, वह कभी भी अपनी स्त्रियों को इतना सीमित नहीं करता था।

अत: श्रीरामचरित मानस को पश्चिम के विमर्श की जूठन पर पल रहे जूठे विमर्श के दायरे में देखने से और भी विकृत विमर्श उत्पन्न होंगे।

यह स्मरण रखना होगा कि हर काल की एक व्यवस्था होती है, उसी के दायरे में रचनाएं लिखी जाती हैं।, युगों के उपरान्त एक-दो शब्दों पर हल्ला मचाने से न ही ग्रन्थ का कुछ होता है और न ही उसके रचयिता का, परन्तु हाँ, जो राजनीति के चलते हल्ला मचाते हैं, जनता उन्हें उनका स्थान अवश्य दिखा देती है।

इसी प्रकार महान शबरी को मात्र भीलनी शबरी तक सीमित करना भी एक षड्यंत्र है, क्योंकि उनमें असीमित ज्ञान है, भक्ति है. यह भी देखना होगा कि अपने नायकों को यदि आज की औपनिवेशिक प्रभाव से उत्पन्न जातिव्यवस्था के दायरे में देखेंगे तो उन्हें हम कहीं सीमित तो नहीं कर दे रहे हैं?

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